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  • श्रीहरिनामचिन्तामणिः


श्रीहरिनामचिन्तामणि
श्रीगोद्रुमचन्द्राय नमः

(१)
प्रथमपरिच्छेद
श्रीनाममाहात्म्यसूचना

गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन  ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण  ॥ १.१ ॥

लवण जलधि तीरे        नीलाचले श्री मन्दिरे
दारु ब्रह्म पुरुष प्रधान  ।
जीवे निस्तारिते हरि         अर्चा रूपे अवतरि
भोग मोक्ष करेन प्रदान  ॥ १.२ ॥
सेइ धामे श्री चैतन्य          मानवे करिते धन्य
सन्न्यासी रूपेते भगवान्  ।
कलिते ये युग धर्म         बुझाइते तार मर्म
काशी मिश्र घरे अधिष्ठान  ॥ १.३ ॥
निज भक्त वृन्द लये          निजे कल्प तरु हये
कृष्ण प्रेम देन सर्व जने  ।
नाना मते भक्त मुखे          भक्त कथ शुनि सुखे
जीव शिक्षा देन सुयतने  ॥ १.४ ॥
एक दिन भगवान्         समुद्रे करिया स्नान
श्री सिद्ध बकुले हरि दासे  ।
मिलि आनन्दित मने         जिज्ञासिला सयतने
किसे जीव तरे अनायासे  ॥ १.५ ॥
प्रभुर चरण धरिऽ      अनेक विनय करिऽ
गलद्अश्रु पुलक शरीर  ।
हरिदास महाशय      काङ्दिते काङ्दिते कय
प्रभु तव लीला सुगभीर  ॥ १.६ ॥
आमि अति अकिञ्चन       नाहि मोर विद्या धन
तव पद आमार सम्बल  ।
ए हेन अयोग्य जने       प्रश्न करिऽ अकारणे
बल प्रभु हबे किबा फल  ॥ १.७ ॥
तुमि कृष्ण स्वयं प्रभो        जीव उद्धारिते विभो
नवद्वीप धामे अवतार  ।
कृपा करिऽ राङ्गा पाय       राख मोरे गौर राय
तबे चित्त प्रफुल्ल आमार  ॥ १.८ ॥
तोमार अनन्त नाम       तवानन्त गुण ग्राम
तव रूप सुखेर सागर  ।
अनन्त तोमार लीला       कृपा करिऽ प्रकाशिला
ताइ आस्वादये ए पामर  ॥ १.९ ॥
चिन्मय भास्कर तुमि       किरणेर कण आमि
तुमि प्रभु, आमि नित्य दास  ।
चरण पीयूष तव       मम सुख सुवैभव
तव नामामृते मोर आश  ॥ १.१० ॥
ए मत अधम आमि       कि बलिते जानि स्वामी
तबु आज्ञा करिब पालन  ।
या बलाबे मोर मुखे       तोमारे बलिब सुखे
दोष गुण ना करि गणन  ॥ १.११ ॥
कृष्णतत्त्व

एकमात्र इच्छामय कृष्ण सर्वेश्वर  ।
नित्य शक्तियोगे कृष्ण विभु परात्पर  ॥ १.१२ ॥

कृष्ण कृष्णशक्ति

कृष्णशक्ति कृष्ण हैते ना हय स्वतन्त्र  ।
येइ शक्ति सेइ कृष्ण कहे वेदमन्त्र  ॥ १.१३ ॥
कृष्ण विभु, शक्ति ताङ्र वैभव स्वरूप  ।
अनन्त वैभवे कृष्ण हय एक रूप  ॥ १.१४ ॥

त्रिविध वैभव

शक्तिर प्रकाश येइ सेइ त वैभव  ।
विभुर वैभव मात्र हय अनुभव  ॥ १.१५ ॥
वैभव त्रिविध तव गौराङ्ग सुन्दर
चिदचित्जीव तिन शास्त्रेर गोचर  ॥ १.१६ ॥

चिद्वैभव

अनन्त वैकुण्ठ आदि यत कृष्ण धाम  ।
गोविन्द श्रीकृष्ण हरि आदि यत नाम  ॥ १.१७ ॥
द्विभुज मुरलीधर आदि यत रूप  ।
भक्तानन्दप्रद आदि गुण अपरूप  ॥ १.१८ ॥
व्रज रसलीला नवद्वीपे सङ्कीर्तन  ।
एइ रूप कृष्ण लीला विचित्र गणन  ॥ १.१९ ॥
ए समस्त चिद्वैभव अप्राकृत हय  ।
आसियौ ए प्रपञ्चे प्रापञ्चिक नय   ॥ १.२० ॥
चिद्व्यापार समुदय विष्णुतत्त्वसार  ।
विष्णुपद बलि वेदे गाय बार बार  ॥ १.२१ ॥

कृष्णेर चिद्विभुते विष्णुतत्त्व शुद्धतत्त्व

नाहि ताहे जडधर्म मायार विकार  ।
जडातीत विष्णुतत्त्व शुद्धसत्त्वसार  ॥ १.२२ ॥
शुद्धसत्त्व रजस्तमोगन्धविरहित  ।
रजस्तमोमिश्र मिश्रसत्त्व सुविदित  ॥ १.२३ ॥
गोविन्द वैकुण्ठनाथ कारणोदशायी  ।
गर्भोदशायी आर क्षीरसिन्धुशायी  ॥ १.२४ ॥
आर यत स्वांश परिचित अवतार  ।
सेइ सब शुद्धसत्त्व विष्णुतत्त्वसार  ॥ १.२५ ॥
गोलोके वैकुण्ठे आर कारणसागरे  ।
अथवा ए जडे थाके, विष्णुनाम धरे  ॥ १.२६ ॥
प्रवेशि ए जड विश्व मायार अधीश  ।
विष्णुनाम प्राप्त विभु सर्वदेव ईश  ॥ १.२७ ॥
मायार ईश्वर मायी शुद्धसत्त्वमय  ।

मिश्रसत्त्व

मिश्रसत्त्व ब्रह्मा शिव आदि सब हय  ॥ १.२८ ॥

चिद्वैभवेर विस्तृति

ए समस्त विष्णुतत्त्व आर विष्णुधाम  ।
तव चिद्वैभव नाथ तव लीलाग्राम  ॥ १.२९ ॥

अचिद्वैभव मायतत्त्व

विरजार एइ पारे यत वस्तु हय  ।
अचित्वैभव तव चौद्दलोकमय  ॥ १.३० ॥
मायार वैभव बलि बले देवीधाम  ।
पञ्चभूत मनो बुद्धि अहङ्कार नाम  ॥ १.३१ ॥
ए भूर्लोक, भुवर्लोक आर स्वर्गलोक  ।
महर्लोक, जनतपसत्यब्रह्मलोक  ॥ १.३२ ॥
अतलसुतलादि निम्न लोक सात  ।
मायिक वैभव तव शुन जगन्नाथ  ॥ १.३३ ॥
चिद्वैभव पूर्णतत्त्व माया छाया तार  ।

जीववैभव

चिद्अणुस्वरूप जीव वैभव प्रकार  ॥ १.३४ ॥
चिद्धर्मवशतः जीव स्वतन्त्र गठन  ।
सङ्ख्याय अनन्त सुख तार प्रयोजन  ॥ १.३५ ॥

मुक्त जीव

सेइ सुख हेतु यारा कृष्णेरे बरिल  ।
कृष्णपारिषद मुक्तरूपेते रहिल  ॥ १.३६ ॥

बद्ध वा बहिर्मुख जीव

यारा पुनः निजसुख करिया भावना   ।
पार्श्वस्थिता माया प्रति करिल कामना  ॥ १.३७ ॥
सेइ सब नित्यकृष्णबहिर्मुख हैल  ।
देवीधामे मायाकृत शरीर पाइल  ॥ १.३८ ॥
पुण्य पाप कर्म चक्रे पडिया एखन  ।
स्थूल लिङ्ग देहे सदा करेन भ्रमण  ॥ १.३९ ॥
कभु स्वर्गे उठे, कभु निरये पडिया  ।
चौराशि लक्ष योनि भोगे भ्रमिया भ्रमिया  ॥ १.४० ॥

तथापि कृष्णदया

तुमि विभु, तोमार वैभव जीव हय  ।
दासेर मङ्गल चिन्ता तोमार निश्चय  ॥ १.४१ ॥
दास याहा सुख मानि करे अन्वेषण  ।
तुमि ताहा कृपा करि कर वितरण  ॥ १.४२ ॥

प्राकृत शुभकर्म कर्मकाण्ड

मायार वैभवे ये अनित्य सुख चाय
तोमार कृपाय से अनायासे पाय  ॥ १.४३ ॥
सेइ सुख प्राप्त्य्उपाय शुभकर्म यत  ।
निरमिले धर्मयज्ञयोगहोमव्रत  ॥ १.४४ ॥
सेइ सब शुभकर्म सदा जडमय  ।
चिन्मयी प्रवृत्ति ताहे कभु ना मिलय  ॥ १.४५ ॥
ताहार साधने साध्य जडमय फल  ।
उच्चलोक भोग सुख ताहाते प्रबल  ॥ १.४६ ॥
सेइ सब कर्मभोग नाहि आत्मशान्ति  ।
ताहाते प्रयास करा अतिशय भ्रान्ति  ॥ १.४७ ॥
सेइ सब शुभ कर्म उपाय हैया   ।
अनित्य उपेय साधे लोक सुख दिया  ॥ १.४८ ॥

सेइ अवस्था हैते उद्धारेर उपाय

कभु यदि साधु सङ्गे जानिते से पारे  ।
आमि जीव कृष्णदास, याय माया पारे  ॥ १.४९ ॥
से विरल फल मात्र सुकृतिजनित  ।
तुच्छ कर्मकाण्ड नाहि करिले विहित  ॥ १.५० ॥

ज्ञानकाण्ड, ब्रह्मलय सुख

आर यिनि मायार यन्त्रणा मात्र जानि  ।
मुक्ति लाभे यत्नवान् तिनि हन ज्ञानी  ॥ १.५१ ॥
से सब लोकेर जन्य तुमि दयामय  ।
ज्ञानकाण्ड ब्रह्मविद्या दियाछ निश्चय  ॥ १.५२ ॥
सेइ विद्या मायावाद करिया आश्रय  ।
जड मुक्त हये ब्रह्मे जीव हय लय  ॥ १.५३ ॥

ब्रह्मवस्तु कि?

सेइ ब्रह्म तव अङ्गकान्ति ज्योतिर्मय  ।
विरजार पारे स्थित ताते हय लय  ॥ १.५४ ॥
ये सब असुरे विष्णु करेन संहार  ।
ताहारौ सेइ ब्रह्मे याय मायापार  ॥ १.५५ ॥
कृष्णबहिर्मुख

कर्मी ज्ञानी उभये इ कृष्णबहिर्मुख  ।
कभु नाहि आस्वादय कृष्णदास्यसुख  ॥ १.५६ ॥
भक्त्य्उन्मुखी सुकृति

भक्तिर उन्मुखी सेइ सुकृति प्रधान  ।
तार फले जीव भक्तसाधुसङ्ग पान  ॥ १.५७ ॥
श्रद्धावान् हये कृष्णभक्तसङ्ग करे  ।
नामे रुचि, जीवे दया, भक्तिपथ धरे  ॥ १.५८ ॥

कर्मी ओ ज्ञानीर प्रति कृपाय गौणपथ विधान

दयार सागर तुमि जीवेर ईश्वर  ।
कर्मी ज्ञानी बहिर्मुख उद्धारे तत्पर  ॥ १.५९ ॥
कर्मपथे ज्ञानपथे पथिक ये जन  ।
ताहार उद्धार लागि तोमार यतन  ॥ १.६० ॥
सेइ सेइ पथिकेर मङ्गल चिन्तिया  ।
गौणभक्ति पथ एक राखिल करिया  ॥ १.६१ ॥

कर्मीर पक्षे कर्मेर गौणभक्ति पथ

कर्मी वर्णाश्रमे थाकि साधुसङ्ग करि  ।
कर्म माझे भक्ति करे गौणपथ धरि  ॥ १.६२ ॥
तार कृत कर्म सब हृदय शोधिया  ।
तिरोहित हय श्रद्धा बीजे स्थान दिया  ॥ १.६३ ॥

ज्ञानीर गौणपथ

ज्ञानी सुकृतिर बले भक्तेर कृपाय  ।
अनन्य भक्तिते श्रद्धा बीजे स्थान दिया  ॥ १.६४ ॥
तुमि बल मोर दास मायार विपाके  ।
चाहे अन्य तुच्छ फल छाडिया आमाके  ॥ १.६५ ॥
आमि जानि तार याते हय सुमङ्गल  ।
भुक्ति मुक्ति छाडाइया दी भक्ति फल  ॥ १.६६ ॥

गौणपथेर प्रक्रिया

तार काम अनुसारे चालाञा ताहारे
गौणपथ भक्तिमार्गे श्रद्धा दी तारे  ॥ १.६७ ॥
ए तोमार कृपा प्रभु तुमि कृपामय  ।
कृपा ना करिले किसे जीव शुद्ध हय  ॥ १.६८ ॥
कलिते गौणपथेर दुर्दशा

सत्ययुगे ध्यानयोगे कत ऋषिगणे  ।
शुद्ध करिऽ दिले प्रभु निजभक्तिधने  ॥ १.६९ ॥
त्रेतायुगे यज्ञकर्मे अनेक शोधिले  ।
द्वापरे अर्चनमार्गे भक्ति बिलाइले  ॥ १.७० ॥
कलि आगमने नाथ जीवेर दुर्दशा  ।
देखि ज्ञान कर्म योग छाडिल भरसा  ॥ १.७१ ॥
अल्प आयु, बहु पीडा, बलबुद्धिह्रास  ।
एइ सब उपद्रव जीवे कैल ग्रास  ॥ १.७२ ॥
वर्णाश्रम धर्म आर साङ्ख्य योग ज्ञान  ।
कलिजीवे उद्धारिते नहे बलवान्  ॥ १.७३ ॥
ज्ञानकर्मगत ये भक्तिर गौणपथ  ।
कण्टके सङ्कीर्ण हञा हैल विपथ  ॥ १.७४ ॥
पृथकुपाय धरि उपेय साधने  ।
विघ्न बहुतर हैल जीवेर जीवने  ॥ १.७५ ॥

नामालोचनार मुख्यपथ

प्रभु तुमि जीवेर मङ्गल चिन्ता करि  ।
कलि युगे नाम सङ्गे स्वयमवतरि  ॥ १.७६ ॥
युग धर्म प्रचारिले नाम सङ्कीर्तन  ।
मुख्य पथे जीव पाय कृष्ण प्रेम धन  ॥ १.७७ ॥
नामेर स्मरणे आर नामसङ्कीर्तन  ।
एइ मात्र धर्म जीव करिबे पालन  ॥ १.७८ ॥

साध्यसाधन ओ उपाय उपेयेर अभेदताक्रमे नामेर मुख्यता

येइ त साधन सेइ साध्य यबे हैल  ।
उपाय उपेय मध्ये भेद ना रहिल  ॥ १.७९ ॥
साध्येर साधने आर नाहि अन्तराय  ।
अनायासे तरे जीव तोमार कृपाय  ॥ १.८० ॥
आमि त अधम अति मजिया विषये  ।
ना भजिनु नाम तव अति मूढ हये  ॥ १.८१ ॥
दर दर धारा चक्षे ब्रह्महरिदास  ।
पडिल प्रभुर पदे छाडिया निःश्वास  ॥ १.८२ ॥
हरि भक्त भक्ति मात्रे विनोद याहार  ।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार  ॥ १.८३ ॥

इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ नाममाहात्मसूचनं नाम प्रथमः परिच्छेदः  ।

 


(२)
द्वितीय परिच्छेद
नामग्रहणविचार

गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन  ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण  ॥ २.१ ॥
महाप्रेमे हरिदास करेन रोदन  ।
प्रेमे तारे गौरचन्द्र दिला आलिङ्गन  ॥ २.२ ॥
बलेन तोमार सम भक्त कोथा आर  ।
सर्वतत्त्वज्ञाता तुमि सदा मायापार  ॥ २.३ ॥
अनन्य भजनेर श्रेष्ठता

निचकुले अवतरि देखाले सकले  ।
धने माने कुले शीले कृष्ण नाहि मिले  ॥ २.४ ॥
अनन्य भजने याङ्र श्रद्धा अतिशय  ।
देवता अपेक्षा श्रेष्ठ सेइ महाशय  ॥ २.५ ॥

श्रीहरिदासेर नामाचार्य्यता

नामतत्त्व सर्वसार तोमार विदित  ।
आचारे आचार्य्य तुमि प्रचारे पण्डित  ॥ २.६ ॥
बल हरिदास नाममहिमा अपार  ।
शुनिया तोमार मुखे आनन्द आमार  ॥ २.७ ॥
वैष्णवलक्षण

एक नाम यार मुखे वैष्णव से हय  ।
तारे गृही यत्न करि मानिबे निश्चय  ॥ २.८ ॥
वैष्णवतरलक्षण

निरन्तर यार मुखे शुनि कृष्णनाम  ।
सेइ से वैष्णवतर सर्वगुणधाम  ॥ २.९ ॥
वैष्णवतमलक्षण

वैष्णव उत्तम सेइ याहारे देखिले  ।
कृष्णनाम आसे मुखे कृष्णभक्ति मिले  ॥ २.१० ॥
हेन कृष्णनाम जीव कि रूपे करिबे  ।
ताहार विधान तुमि आमारे बलिबे  ॥ २.११ ॥
कर युडि हरिदास बलेन वचन  ।
प्रेम गदगद स्वर सजल नयन  ॥ २.१२ ॥
नामेर स्वरूप

कृष्णनाम चिन्तामणि अनादि चिन्मय  ।
येइ कृष्ण सेइ नाम एकतत्त्व हय  ॥ २.१३ ॥
चैतन्य विग्रह नाम नित्य मुक्त तत्त्व  ।
नाम नामी भिन्न नय नित्य शुद्ध सत्त्व  ॥ २.१४ ॥
ए जड जगते ताङ्र अक्षर आकार  ।
रसरूपे रसिकेते सत्त्व अवतार  ॥ २.१५ ॥
कृष्ण वस्तु हय चारि धर्मे परिचित  ।
नाम रूप गुण कर्म अनादि विहित  ॥ २.१६ ॥
नाम नित्यसिद्ध

नित्य वस्तु रसरूप कृष्ण से अद्वय  ।
सेइ चारि परिचये वस्तु सिद्ध हय  ॥ २.१७ ॥
सन्धिनी शक्तिते ताङ्र चारि परिचय  ।
नित्यसिद्ध रूपे ख्यात सर्वदा चिन्मय  ॥ २.१८ ॥
कृष्ण आकर्षये सर्व विश्वगत जन  ।
सेइ नित्य धर्म गत कृष्ण नाम धन  ॥ २.१९ ॥
कृष्णरूप नित्य

कृष्णरूप कृष्ण हैते सर्वदा अभेद  ।
नाम रूप एक वस्तु नाहिक प्रभेद  ॥ २.२० ॥
श्रीनाम स्मरिले रूप आइसे सङ्गे सङ्गे  ।
रूप नाम भिन्न नय नाचे नाना रङ्गे  ॥ २.२१ ॥


कृष्णगुण नित्य

कृष्णगुण चतुःषष्ठि अनन्त अपार  ।
याङ्र निज अंशरूपे सब अवतार  ॥ २.२२ ॥
याङ्र गुण अंशे ब्रह्मा शिवादि ईश्वर  ।
याङ्र गुणे नारायण षष्ठि गुणेश्वर  ॥ २.२३ ॥
सेइ सब नित्यगुणे नित्य नाम ताङ्र  ।
अनन्त सङ्ख्याय व्याप्त वैकुण्ठ व्यापार  ॥ २.२४ ॥
कृष्णलीलार नित्यत्व

सेइ गुण तरङ्गेते लीलार विस्तार  ।
गोलोके वैकुण्ठ व्रज सब चिद्आकारे  ॥ २.२५ ॥
चिद्वस्तुते नाम, रूप, गुण, लीला वस्तु हैते पृथक्नय

नाम रूप गुण लीला अभिन्न उदय  ।
अचित्सम्पर्के बद्ध जीवे भिन्न हय  ॥ २.२६ ॥
शुद्ध जीवे नाम रूप गुण क्रिया एक  ।
जडाश्रित देहे भेद एइ से विवेक  ॥ २.२७ ॥
कृष्णे नाहि जडगन्ध अतएव ताङ्य  ।
नाम रूप गुण लीला एकतत्त्व भाय  ॥ २.२८ ॥
नामेर सर्वमूलत्व
एइ चारि परिचय मध्ये नाम ताङ्र  ।
सकलेर आदि से प्रतीति सबाकार  ॥ २.२९ ॥
अतएव नाम मात्र वैष्णवेर धर्म  ।
नामे प्रस्फुटित हय रूप गुण कर्म  ॥ २.३० ॥
कृष्णेर समग्र लीला नामे विद्यमान  ।
नामे से परम तत्त्व तोमार विधान  ॥ २.३१ ॥
वैष्णव ओ वैष्णवप्राये भेद आछे

सेइ नाम बद्ध जीव श्रद्धा सहकारे  ।
शुद्ध रूपे लैले वैष्णव बलि तारे  ॥ २.३२ ॥
नामाभास यार हय से वैष्णवप्राय  ।
कृष्णकृपा बले क्रमे शुद्ध भाव पाय  ॥ २.३३ ॥
एइ मायिक जगते कृष्णनाम ओ जीव एइ दुइटि मात्र चिद्व्यापार

नाम सम वस्तु नाइ ए भव संसारे  ।
नामे से परम धन कृष्णेर भाण्डारे  ॥ २.३४ ॥
जीव निजे चिद्व्यापारे कृष्णनाम आर  ।
आर सब प्रापञ्चिक जगत्संसार  ॥ २.३५ ॥

मुख्य गौण भेदे नाम दुइ प्रकार

मुख्य ओ गौण भेदे कृष्णनाम द्विप्रकार  ।
मुख्यनामाश्रये जीव पाय सर्व सार  ॥ २.३६ ॥
चिल्लीला आश्रय करि यत कृष्ण नाम  ।
सेइ सेइ मुख्य नाम सर्व गुण धाम  ॥ २.३७ ॥

मुख्य नाम

गोविन्द गोपाल राम श्रीनन्दनन्दन  ।
राधानाथ हरि यशोमती प्राणधन  ॥ २.३८ ॥
मदनमोहन श्यामसुन्दर माधव  ।
गोपीनाथ व्रजगोप राखाल यादव  ॥ २.३९ ॥
एइ रूप नित्य लीला प्रकाशक नाम  ।
ए सब कीर्तने जीव पाय कृष्ण धाम  ॥ २.४० ॥

गौण नाम ओ ताहार लक्षण

जडा प्रकृतिर परिचये नाम यत   ।
प्रकृतिर गुणे गौण वेदेर सम्मत  ॥ २.४१ ॥
सृष्टिकर्ता परमात्मा ब्रह्म स्थितिकर  ।
जगत्संहर्ता पाता  यज्ञेश्वर हर  ॥ २.४२ ॥

मुख्य ओ गौण नामेर फलभेद

एइरूप नाम कर्मज्ञानकाण्डगत  ।
पुण्य मोक्ष दान करे शास्त्रेर सम्मत  ॥ २.४३ ॥
नामेर ये मुख्य फल कृष्ण प्रेम धन  ।
तार मुख्य नामे मात्र लभे साधु गण   ॥ २.४४ ॥

नाम ओ नामाभासमात्र फलभेद

एक कृष्णनाम यदि मुखे बाहिराय  ।
अथवा श्रवणपथे अन्तरेते याय  ॥ २.४५ ॥
शुद्ध वर्ण हय वा अशुद्ध वर्ण हय  ।
ताते जीव तरे एइ शास्त्रेर निर्णय  ॥ २.४६ ॥
किन्तु एक कथा इथे आछे सुनिश्चित  ।
नामाभास हैले विलम्बे हय हित  ॥ २.४७ ॥
नामाभास हैले ओ अन्य शुभ हय  ।
प्रेमधन केवल विलम्बे उपजय  ॥ २.४८ ॥
नामाभासे पापक्षये शुद्ध नाम हय  ।
तखने श्रीकृष्णप्रेम लभये निश्चय  ॥ २.४९ ॥

व्यवहित वा व्यवधाने दोषे जन्मे

किन्तु व्यवहित हले हय अपराध  ।
सेइ अपराधे हय प्रेमलाभ बाध  ॥ २.५० ॥
नामनामी भेदबुद्धि व्यवधान हय  ।
व्यवहित थाकिले कदापि प्रेम नय  ॥ २.५१ ॥

व्यवधान दुइ प्रकार

वर्णव्यवधान आर तत्त्वव्यवधान  ।
व्यवधान द्विप्रकार वेदेर विधान  ॥ २.५२ ॥
मायावादे नामे तत्त्वव्यवधान करे

तत्त्वव्यवधान मायावाद दुष्ट मत  ।
कलिर जञ्जाल एइ शास्त्र असम्मत  ॥ २.५३ ॥
व्यवधानाबिद्ध नामे शुद्ध नाम

अतएव शुद्ध कृष्ण नाम याङ्र मुखे  ।
ताङ्हाके वैष्णव जानि सदा सेवि सुखे  ॥ २.५४ ॥

अनर्थ यत नष्ट हय तते नामाभासत्व दूर हय ओ चिन्मय नाम प्रकाश पाय

नामाभास भेदि शुद्धनाम लभिबारे  ।
सद्गुरु सेविबे जीव यत्न सहकारे  ॥ २.५५ ॥
भजने अनर्थ नाश येइ क्षणे पाय  ।
चित्स्वरूप नामे नाचे भक्तेर जीह्वाय  ॥ २.५६ ॥
नाम से अमृत धारा नाहि छाडे आर  ।
नाम रसे मत्त जीव नाचे अनिवार  ॥ २.५७ ॥
नाम नाचे जीव नाचे नाचे प्रेम धन  ।
जगत्नाचाय माया करे पलायन  ॥ २.५८ ॥

याहार नामे श्रद्धा हय ताहारे नामे अधिकार हैया थाके नामे सर्वशक्ति आछे

नामे  अधिकार नरमात्रे कैले दान  ।
सर्वशक्ति नामे प्रभु करिले विधान  ॥ २.५९ ॥
यार श्रद्धा हय नामे सेइ अधिकारी   ।
यार मुखे कृष्णनाम सेइ से आचारी   ॥ २.६० ॥

देशकाल अशौचादिर बाधा नामे नाइ

देश काल अशौचादि नियम सकाल  ।
श्रीनामग्रहणे नाइ नाम से प्रबल  ॥ २.६१ ॥

कलिजीवेर नामे निष्कपट विश्वास हैले इ नामे अधिकार हैल

दाने यज्ञे स्नाने जपे आछे त विचार  ।
कृष्णसङ्कीर्तने मात्र श्रद्धा अधिकार  ॥ २.६२ ॥
युगधर्म हरिनाम अनन्य श्रद्धाय  ।
ये करे आश्रय तार सर्वलाभ हय  ॥ २.६३ ॥
कलि जीव निष्कपटे कृष्णेर संसारे  ।
अवस्थित हये कृष्णनाम सदा करे   ॥ २.६४ ॥
नामेर अनुकूल विषय ग्रहण ओ प्रतिकूल विसय वर्जन

भजनेर अनुकूल सर्व कार्य्य करिऽ  ।
भजनेर प्रतिकूल सब परिहरिऽ  ॥ २.६५ ॥
कृष्णेर संसारे थाकिऽ काटाये जीवन  ।
निरन्तर हरिनाम करेन स्मरण  ॥ २.६६ ॥
अनन्य बुद्धिते नाम ग्रहण करिबे

आर कोन धर्म कर्म कभु ना करिबे  ।
स्वतन्त्र ईश्वरज्ञाने अन्ये ना पूजिबे  ॥ २.६७ ॥
कृष्णनाम भक्तसेवा सतत करिबे  ।
कृष्णप्रेम लाभ तार अवश्य हेबे  ॥ २.६८ ॥
हरिदास काङ्दि प्रभु चरणे पडिया  ।
नामे अनुराग मागे चरण धरिया  ॥ २.६९ ॥
हरिदास पदे भक्तिविनोद याहार  ।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार  ॥ २.७० ॥


इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ
नामग्रहणविचारो नाम द्वितीयः परिच्छेदः  ।

 

(३)
तृतीय परिच्छेद
नामाभास विचार

गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन  ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तजन  ॥ ३.१ ॥
हरिदासे महाप्रभु सदय हैया  ।
उठाय तखन पद्महस्त प्रसारिया  ॥ ३.२ ॥
बले शुन हरिदास आमार वचन  ।
नामाभास स्पष्टरूपे बुझाओ एखन  ॥ ३.३ ॥
नामाभास बुझाइले नाम शुद्ध हबे  ।
अनायासे जीव नामगुणे तरे याबे  ॥ ३.४ ॥
नामाभासमेघ कुज्झटिकारूप अज्ञान ओ अनर्थ

नाम सूर्यसम नाशे माया अन्धकार  ।
मेघ कुज्झटिका नामे ढाके बार बार  ॥ ३.५ ॥
जीवेर अज्ञान आर अनर्थ सकल  ।
कुज्झटिकामेघरूपे हय त प्रबल  ॥ ३.६ ॥
कृष्णनाम सूर्य चित्तगगणे उठिल  ।
कुज्झटिकामेघ पुनः ताहारे ढाकिल  ॥ ३.७ ॥
अज्ञान कुज्झटिका स्वरूप भ्रम

नामेर ये चित्स्वरूप ताहा नाहि जाने  ।
से अज्ञान कुज्झटिका अन्धकार आने  ॥ ३.८ ॥
कृष्ण सर्वेश्वर बलि नाहि जाने येइ  ।
नाना देवे पूजि कर्ममार्गे भ्रमे सेइ  ॥ ३.९ ॥
जीवे चित्स्वरूप बलि नाहि यार ज्ञान  ।
माया जडाश्रये तार सतत अज्ञान  ॥ ३.१० ॥
तबे हरिदास बले आज आमि धन्य  ।
मम मुखे नाम कथा शुनिबे चैतन्य  ॥ ३.११ ॥
कृष्ण जीव प्रभु दास जडात्मिका माया   ।
ये ना जाने तार शिरे अज्ञानेर छाया  ॥ ३.१२ ॥
मेघ अनर्थासत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध

असत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध  ।
अनर्थ ए सब मेघरूपे करे बाध  ॥ ३.१३ ॥
नामसूर्य रश्मि ढाके नामाभास हय  ।
स्वतः सिद्ध कृष्णनामे सदा आच्छादय  ॥ ३.१४ ॥
नामाभासेर अवधि

सम्बन्धतत्त्वेर ज्ञान यावत्ना हय  ।
तावत्से नामाभास जीवेर आश्रय  ॥ ३.१५ ॥
साधक यद्यपि पाय सद्गुरु आश्रय  ।
भजननैपुण्ये मेघ आदि दूर हय  ॥ ३.१६ ॥
सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन

मेघ कुज्झटिका गेले नामदिवाकर  ।
प्रकाश हैया भक्ते देन प्रेमवर  ॥ ३.१७ ॥
सद्गुरु सम्बन्ध ज्ञान करिया अर्पण  ।
अभिधेय रूपे करान नामानुशीलन  ॥ ३.१८ ॥
नामसूर्य स्वल्पकाले प्रबल हैया  ।
अनर्थकुज्झटिका देन ताडाइया  ॥ ३.१९ ॥
प्रयोजनतत्त्व तबे देन प्रेमधन  ।
प्राप्तप्रेम जीव करे नामसङ्कीर्तन  ॥ ३.२० ॥
सम्बन्धज्ञान

सद्गुरुचरणे जीव श्रद्धा सहकारे  ।
प्रथमे सम्बन्धज्ञान पाय सुविचारे  ॥ ३.२१ ॥
कृष्ण नित्य प्रभु आर जीव नित्य दास  ।
कृष्ण प्रेम नित्य जीवस्वभाव प्रकाश  ॥ ३.२२ ॥
कृष्ण नित्य दास जीव ताहा विस्मरिया  ।
मायिक जगते फिरे सुख अन्वेषिया  ॥ ३.२३ ॥
मायिक जगथय जीव कारागार  ।
जीवेर वैमुख्य दोषे दण्ड प्रतिकार  ॥ ३.२४ ॥
तबे यदि जीव साधु वैष्णव कृपाय  ।
सम्बन्ध ज्ञानेते पुनः कृष्णनाम पाय  ॥ ३.२५ ॥
तबे पाय प्रेमधन सर्वधर्मसार  ।
याहार निकटे सायुज्यादिर धिक्कार  ॥ ३.२६ ॥
यावत्सम्बन्ध ज्ञान स्थिर नाहि हय  ।
तावतनर्थे नामाभासेर आश्रय  ॥ ३.२७ ॥
नामाभासेर फल

नामाभास दशाते ओ अनेक मङ्गल  ।
जीवेर अवश्य हय सुकृति प्रबल  ॥ ३.२८ ॥
नामाभासे नष्ट हय आछे पाप यत  ।
नामाभासे मुक्ति हय कलि हय हत  ॥ ३.२९ ॥
नामाभासे नर हय सुपङ्क्ति पावन  ।
नामाभासे सर्वरोग हय निवारण  ॥ ३.३० ॥
सकल आशङ्का नामाभासे दूर हय  ।
नामाभासी सर्वारिष्ट हैते शान्ति पाय  ॥ ३.३१ ॥
यक्ष रक्ष भूत प्रेत ग्रह समुदय  ।
नामाभासे सकल अनर्थ दूरे याय  ॥ ३.३२ ॥
नरके पतित लोक सुखे मुक्ति पाय  ।
समस्त प्रारब्ध कर्म नामाभासे याय  ॥ ३.३३ ॥
सर्ववेदाधिक सर्व तीर्थ हैते बड  ।
नामाभास सर्वशुभकर्म श्रेष्ठतर  ॥ ३.३४ ॥

नामाभासेर वैकुण्ठादिप्रापकत्व

धर्म अर्थ काम मोक्ष चतुर्वर्गदाता  ।
सर्वशक्ति धरे नामाभासे जीवत्राता  ॥ ३.३५ ॥
जगतानन्दकर श्रेष्ठपदप्रद  ।
अगतिर एक गति सर्वश्रेष्ठपद  ॥ ३.३६ ॥
वैकुण्ठादि लोक प्राप्ति नामाभासे हय  ।
विशेषतः कलियुगे सर्वशास्त्र कय  ॥ ३.३७ ॥
सङ्केत, परिहास, स्तोभ ओ हेला एइ चारिप्रकार नामाभास

चतुर्विध नामाभास एइ मात्र जानि  ।
सङ्केत ओ परिहास, स्तोभ, हेला मानि  ॥ ३.३८ ॥
सङ्केतरूप नामाभासेर प्रकारद्वय

विष्णु लक्ष्य करि जड बुद्ध्ये नाम लय  ।
अन्य लक्ष्य करि विष्णु नाम उच्चारय  ॥ ३.३९ ॥
सङ्गेते द्विविध एइ हय नामाभास  ।
अजामिल साक्षी तार शास्त्रेते प्रकाश  ॥ ३.४० ॥
यवन सकल मुक्त हबे अनायासे  ।
हाराम हाराम बलि कहे नामाभासे  ॥ ३.४१ ॥
अन्यत्र सङ्केते यदि हय नामाभास  ।
तथापि नामेर तेज ना हय विनाश  ॥ ३.४२ ॥
परिहासनामाभास

परिहासे कृष्णनाम येइ जन करे  ।
जरासन्ध सम सेइ ए संसारे तरे  ॥ ३.४३ ॥
स्तोभ नामाभास

अङ्गभङ्गी चैद्य सम करे नामाभास  ।
स्तोभ मात्र हय तबु नाशे भवपाश  ॥ ३.४४ ॥
हेला नामाभास

मन नाहि देय आर अवज्ञा भावेते  ।
कृष्ण राम बले हेला नामाभास ताते  ॥ ३.४५ ॥
एइ सब नामाभासे म्लेच्छगण तरे  ।
विषयी अलस जन एइ पथ धरे  ॥ ३.४६ ॥
श्रद्धा ओ हेला नामाभासेर भेद

श्रद्धा करि करे नाम अनर्थ सहित  ।
श्रद्धा नाम हय सेइ तोमार विहित  ॥ ३.४७ ॥
सङ्केतादि अवज्ञा पर्यन्त भाव धरि  ।
नाम करे हेलाय ये श्रद्धा परिहरि  ॥ ३.४८ ॥
नामाभास अवधि से हेला नाम हय  ।
ताहाते ओ मुक्ति लभे पाप हय क्षय  ॥ ३.४९ ॥
अनर्थनाशे नामाभास नाम हैया प्रेम देय

कृष्ण प्रेम छाडि सब नामाभासे पाय  ।
नामाभासे पुनः शुद्ध नाम हये याय  ॥ ३.५० ॥
अनर्थ विगते यबे शुद्ध नाम हय  ।
कृष्णप्रेम तबे तार हेबे निश्चय  ॥ ३.५१ ॥
नामाभासे साक्षात्से प्रेम दिते नारे  ।
नाम हये प्रेम देय विधि अनुसारे  ॥ ३.५२ ॥
नामाभास ओ नामापराधेर भेद

अतएव नाम अपराध परिहरि  ।
नामाभास करे येइ तारे नति करि  ॥ ३.५३ ॥
कर्म ज्ञान हैते अनन्त श्रेष्ठतर  ।
बलि नामाभासे जानि ओहे सर्वेश्वर  ॥ ३.५४ ॥
रति मूला श्रद्धा यदि शुद्धभावे हय  ।
तबे त विशुद्ध नाम हेबे उदय  ॥ ३.५५ ॥
छाया ओ प्रतिबिम्ब भेदे आभास दुइ प्रकार
छाया नामाभास

आभास द्विविध हय प्रतिबिम्ब छाया  ।
श्रद्धाभास द्विप्रकार सब तव माया  ॥ ३.५६ ॥
छाया श्रद्धाभासे छायानामाभास हय  ।
सेइ नामाभासे जीवेर शुभ प्रसवय  ॥ ३.५७ ॥
प्रतिबिम्ब नामाभास

अन्य जीवे शुद्धा श्रद्धा करिया दर्शन  ।
निज मने श्रद्धाभास आने येइ जन  ॥ ३.५८ ॥
भोग मोक्ष वाञ्छा ताहे थाके नित्य मिशि  ।
अश्रमे अभीष्ट लाभे यते दिवानिशि  ॥ ३.५९ ॥
श्रद्धार लक्षण मात्र श्रद्धा ताहे नय  ।
ताके प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास शास्त्रे कय  ॥ ३.६० ॥
प्रतिबिम्ब श्रद्धाभासे नामाभास यत  ।
प्रतिबिम्बनामाभास हय अविरत  ॥ ३.६१ ॥

प्रतिबिम्ब नामाभासे मायावाद कपटता उत्पन्न करे

एइ नामाभासे मायावाद दुष्टमत  ।
प्रवेशिया शठताय हय परिणत  ॥ ३.६२ ॥

कपट प्रतिबिम्बनामाभास नामापराध

नित्य साध्य नामे साधन बुद्धि करि  ।
नामेर महिमा नाशि अपराधे मरि  ॥ ३.६३ ॥

छाया नामाभास ओ प्रतिबिम्बनामाभासेर भेद

छाया नामाभासे मात्र हयत अज्ञान  ।
हृदयदौर्बल्य हैते अनर्थ विधान  ॥ ३.६४ ॥
सेइ सब दोषे नाम करेन मार्जन  ।
प्रतिबिम्ब नामाभासे दोषेर वर्धन  ॥ ३.६५ ॥
मायावाद ओ भक्ति  इङ्हारा परस्पर विपरीत धर्म
मायावादे अपराध

कृष्णनाम रूप गुण लीलादि सकल  ।
मायावादिमते मिथ्या नश्वर सकल  ॥ ३.६६ ॥
सेइ मते प्रेमतत्त्व नित्य नाहि हय  ।
भक्तिविपरीत मायावाद सुनिश्चय  ॥ ३.६७ ॥
भक्तिवैरी मध्ये मायावादेर गणन  ।
अतएव मायावादी अपराधी हन  ॥ ३.६८ ॥
मायावादि मुखे नाम नाहि बाहिराय  ।
नाम बाहिराय तबु नामत्व ना पाय  ॥ ३.६९ ॥
मायावादी यदि करे नाम उच्चारण  ।
नामके अनित्य बलि लभये पतन  ॥ ३.७० ॥
नामेर निकटे भोगमोक्षेर प्रार्थना  ।
नामेर निकटे शाठ्य फलेते यातना   ॥ ३.७१ ॥
मायावादीर अपराध कखन छाडे

तबे यदि मायावादी भुक्ति मुक्ति आश  ।
छाडिया करये नाम हये कृष्णदास  ॥ ३.७२ ॥
तबे तारे छाडे मायावाद दुष्टमत  ।
अनुताप सह हय नाम अनुगत  ॥ ३.७३ ॥
साधु सङ्गे करे पुनः श्रवण कीर्तन  ।
सुसम्बन्ध ज्ञान तार उदे तत क्षण  ॥ ३.७४ ॥
अविश्रान्त नाम करे पडे चक्षु जल  ।
नाम कृपा पाय चित्त हय त सबल  ॥ ३.७५ ॥
भक्तिके अनित्य बलिया मायावाद अपराध हेयाछे

कृष्णरूप कृष्णदास्य जीवेर स्वभाव  ।
मायावाद अनित्य कल्पित बले सब  ॥ ३.७६ ॥
हेन मायावाद नाम अपरादे गणि   ।
मायावाद हय सर्व विपदेर खनि  ॥ ३.७७ ॥
मायावादी नामाभासे युक्त्य्आभासरूपे सायुज्य लाभ करे

नामाभास कल्पतरु मायावादिजने   ।
अभीष्ट अर्पण करे सायुज्य निर्वाणे  ॥ ३.७८ ॥
सर्वशक्ति नामे आछे ताइ नामाभासे  ।
प्रतिबिम्ब हेले ओ देन मुक्त्य्आभासे  ॥ ३.७९ ॥
पञ्चविध मुक्ति मध्ये सायुज्य आभास  ।
भव क्लेश नाशे मात्र फले सर्वनाश  ॥ ३.८० ॥

मायावादी नित्यसुख पाय ना

मायाय मोहित जन ताहे सुख माने  ।
सुखाभास मात्र पाय सायुज्य निर्वाणे  ॥ ३.८१ ॥
सच्चित्आनन्द सेवा परम निर्वृति  ।
सायुज्य ना पाय कभु हतकृष्णस्मृति  ॥ ३.८२ ॥
याङ्हा नाहि भक्ति प्रेम नित्यता विश्वास  ।
नित्य सुख कैछे ताहे हेबे प्रकाश  ॥ ३.८३ ॥
छाया नामाभासी दुष्टमते ना प्रवेश करिले क्रमे शुद्ध नाम पाइया थाकेन

छाया नामाभासी नाहि जाने दुष्टमत  ।
मतवादे चित्तबले नहे तार हत  ॥ ३.८४ ॥
से केवल नाहि जाने यथार्थ प्रभाव  ।
से प्रभाव ज्ञानदान नामेर स्वभाव  ॥ ३.८५ ॥
मेघाच्छन्ने सूर्यप्रभा प्रतीत ना हय  ।
किन्तु मेघे नाशि सूर्य करेन उदय  ॥ ३.८६ ॥
छाया नामाभासी धन्य सद्गुरु प्रभावे  ।
अल्पदिने नाम प्रेम अनायासे पाबे  ॥ ३.८७ ॥
भक्तेर मायावादीर सङ्ग अवश्य परित्याज्य

मायावादी सङ्ग तेङ्ह सतर्के छाडिया  ।
शुद्ध नाम परायण तुषिबे सेविया  ॥ ३.८८ ॥
एइ त तोमार आज्ञा श्रीकृष्णचैतन्य  ।
सेइ आज्ञा येइ पाले सेइ जीव धन्य  ॥ ३.८९ ॥
ये ना पाले तव आज्ञा सेइ जीव छार  ।
कोटी जन्मे किछुते इ ना हबे उद्धार  ॥ ३.९० ॥
कुसङ्ग छाडिये प्रभु राख तव पाय  ।
तव पादपद्म विना ना देखि उपाय  ॥ ३.९१ ॥
हरिदास पदद्वन्द्वे विनोद याहार  ।
हरिनामचिन्तामणि सदा गान तार  ॥ ३.९२ ॥

इति श्री हरिनामचिन्तामणौ नामाभासवर्णनं नाम
तृतीयः परिच्छेदः  ।

 

(४)
चतुर्थ परिच्छेद
नाम अपराधसाधु निन्दा

सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते
यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हाम्  ।

गदाधरप्राण जय जाह्नवाजीवन  ।
जय सीतानाथ श्रीवासादि भक्तजन  ॥ ४.१ ॥
प्रभु बले हरिदास एबे सविस्तारे  ।
नाम अपराध व्याख्या कर अतःपर  ॥ ४.२ ॥
हरिदास बले प्रभु मोरे या बलाबे  ।
ताहाइ बलिब आमि तोमार प्रभावे  ॥ ४.३ ॥
दशविध नामापराध

नाम अपराध दशविध शास्त्रे कय  ।
सेइ अपराधे मोर बड हय भय  ॥ ४.४ ॥
एक एक करि आमि बलिब सकल  ।
अपराधे वाङ्चि याते देह मोरे बल  ॥ ४.५ ॥
साधुनिन्दा अन्यदेव स्वातन्त्र्य मनन  ।
नाम तत्त्व गुरु आर शास्त्र विनिन्दन  ॥ ४.६ ॥
हरिनामे अर्थ वाद कल्पित मनन  ।
नामबले पाप श्रद्धाहीने नामार्पण  ॥ ४.७ ॥
अन्य शुभकर्मेर समान कृष्णनाम  ।
ए कथा बलिले अपराध अविश्राम  ॥ ४.८ ॥
नामेते अनवधान हय अपराध  ।
ताहाके पुराण कर्ता बलेन प्रमाद  ॥ ४.९ ॥
नामेर माहात्म्य जाने तबु नाहि भजे  ।
अहं मम आसक्तिते संसारेते मजे  ॥ ४.१० ॥

साधुनिन्दाइ प्रथम अपराध

साधुनिन्दा प्रथमापराध बलिऽ जानि  ।
एइ अपराधे जीवेर हय सर्व हानि  ॥ ४.११ ॥
स्वरूप ओ तटस्थ लक्षण भेदे साधु लक्षण द्वय विचार

साधुर लक्षण तुमि बलियाछ प्रभो  ।
एकादशे उद्धवेरे कृष्णरूपे विभो  ॥ ४.१२ ॥
दयालु सहिष्णु सम द्रोहशून्यव्रत  ।
सत्यसार विशुद्धात्मा परहिते रत  ॥ ४.१३ ॥
कामे अक्षुभित बुद्धि दान्त अकिञ्चन  ।
मृदु शुचि परिमितभोजी शान्तमन  ॥ ४.१४ ॥
अनीह धृतिमान् स्थिर कृष्णैकशरण  ।
अप्रमत्त सुगम्भीर विजित षड्गुण  ॥ ४.१५ ॥
अमानी मानद दक्ष अवञ्चक ज्ञानी  ।
एइ सब लक्षणेते साधु बलि जानि   ॥ ४.१६ ॥
एइ सब लक्षण प्रभो हय द्विप्रकार  ।
स्वरूप तटस्थ भेदे करिब विचार  ॥ ४.१७ ॥

स्वरूपलक्षणे प्रधान लक्षण, तद्आश्रये तटस्थ लक्षण उदय हय

कृष्णैकशरण हय स्वरूपलक्षण  ।
तटस्थ लक्षणे अन्य गुणेर गणन  ॥ ४.१८ ॥
कोन भाग्ये साधुसङ्गे नामे रुचि हय  ।
कृष्णनाम गाय करे कृष्णपादाश्रय  ॥ ४.१९ ॥
स्वरूप लक्षण सेइ हेत हेल  ।
गाइते गाइते नाम अन्य गुण आइल  ॥ ४.२० ॥
अन्य गुणगण ताइ तटस्थ गणन  ।
अवश्य वैष्णव देहे हबे सङ्घटन  ॥ ४.२१ ॥

वर्णाश्रम लिङ्ग, नानाप्रकार वेषद्वारा साधुत्व हय ना,
कृष्णैकशरणताइ साधुर लक्षण

वर्णाश्रम चिह्न नानावेषेर रचना  ।
साधुर लक्षणे कभु ना हय गणना  ॥ ४.२२ ॥
श्रीकृष्णशरणागति साधुर लक्षण  ।
तार मुखे हय कृष्णनामसङ्कीर्तन  ॥ ४.२३ ॥
गृही  ब्रह्मचारी वानप्रस्थ न्यासिभेदे  ।
शूद्र वैश्य क्षत्र विप्रगणेर प्रभेदे  ॥ ४.२४ ॥
साधुत्व कखन नाहि हेबे निर्णीत  ।
कृष्णैकशरण साधु शास्त्रेर विहित  ॥ ४.२५ ॥

गृहिसाधुलक्षण

रघुनाथदासे लक्ष्ये करिया सेवार  ।
गृहिसाधुजने शिखायेछ एइ सार  ॥ ४.२६ ॥
स्थिर हये घरे याओ ना हओ बातुल  ।
क्रमे क्रमे पाय लोक भवसिन्धुकुल  ॥ ४.२७ ॥
मर्कट वैराग्य छाड लोक देखाइया  ।
यथायोग्य विषय भुञ्ज अनासक्त हञा  ॥ ४.२८ ॥
अन्तरे निष्ठा कर बाह्ये लोक व्यवहार  ।
अचिरे श्रीकृष्ण तोमाय करिबे उद्धार  ॥ ४.२९ ॥
गृहत्यागी साधुलक्षण

पुनः तुमि तार देखि वैराग्य ग्रहण  ।
एइ मत शिक्षा दिले अपूर्व श्रवण  ॥ ४.३० ॥
ग्राम्यकथा ना शुनिबे ग्राम्यवार्ता ना कहिबे  ।
भाल ना खाइबे आर भाल ना परिबे  ॥ ४.३१ ॥
अमानी मानद हञा कृष्णनाम सदा लबे  ।
व्रजे राधाकृष्णसेवा मानसे करिबे  ॥ ४.३२ ॥
गृही ओ गृहत्यागी  उभयेरे स्वरूप लक्षण

स्वरूप लक्षण एक सर्वत्र समान  ।
आश्रमादि भेदे पृथक्तटस्थ विधान  ॥ ४.३३ ॥
अनन्यशरणे यदि देखि दुराचार  ।
तथापि से साधु बलि सेव्य सबाकार  ॥ ४.३४ ॥
एइ त श्रीकृष्णवाक्य गीताभागवते  ।
इहाके पूजिब यत्ने सदा सर्व मते  ॥ ४.३५ ॥
इहाते आछे त एक निगूढ सिद्धान्त  ।
कृपा करि जानायेछ ताइ पाइ अन्त  ॥ ४.३६ ॥

पूर्वपापेर गन्धावशेष ओ पूर्वपाप लक्ष्य करिया यिनि कृष्णैकशरण साधुर निन्दा करेन, तिनि नामापराधी

कृष्णनामे रुचि यबे हेबे उदय  ।
एक नामे पूर्व पाप हेबेक क्षय  ॥ ४.३७ ॥
पूर्वपाप गन्ध तबु थाके किछु दिन  ।
नामेर प्रभावे क्रम हञा पडे क्षीण  ॥ ४.३८ ॥
शीघ्र सेइ पापगन्ध विदूरित हय  ।
परम धर्मात्मा बलि हय परिचय  ॥ ४.३९ ॥
ये कयेक दिन सेइ गन्ध नाहि याय  ।
साधारण जन चक्षे पाप बलि भाय  ॥ ४.४० ॥
से पाप देखिया येइ साधुनिन्दा करे  ।
पूर्वपाप लक्षि पुनः अवज्ञा आचरे  ॥ ४.४१ ॥
सेइ त पाषण्डी वैष्णवेर निन्दा दोषे  ।
नाम अपराध मजि पडे कृष्णरोषे  ॥ ४.४२ ॥

कृष्णैकशरणताइ साधु लक्षण आपनाके साधु बलिया परिचय देओया दाम्भिकता

कृष्णैकशरण मात्र कृष्णनाम गाय  ।
साधुनामे परिचित कृष्णेर कृपाय  ॥ ४.४३ ॥
कृष्णभक्त व्यतीत नाहिक साधु आर  ।
आमि साधु बलि हय दम्भ अवतार  ॥ ४.४४ ॥
स्वल्पाक्षरे साधुनिर्णय

से बलिबे आमि दीन कृष्णैकशरण  ।
कृष्णनाम यार मुखे साधु सेइ जन  ॥ ४.४५ ॥
तृण हैते हीन बलि आपनाके जाने  ।
सहिष्णु तरुर न्याय आपनाके माने  ॥ ४.४६ ॥
निजे त अमानी आर सकले मानद  ।
तार मुखे कृष्णनाम कृष्णरतिप्रद  ॥ ४.४७ ॥

नामापराध वैष्णवे साधु, तद्देहे कृष्णशक्ति

हेन साधुमुखे यबे शुनि एक नाम  ।
वैष्णव बलिया तारे करिब प्रणाम  ॥ ४.४८ ॥
वैष्णव से जगद्गुरु जगतेर बन्धु  ।
वैष्णव सकल जीवे सदा कृपा सिन्धु  ॥ ४.४९ ॥
ए हेन वैष्णवनिन्दा येइ जन करे  ।
नरके पडिबे से जन्मजन्मान्तरे  ॥ ४.५० ॥
भक्ति लभिबारे आर नाहिक उपाय  ।
भक्ति लभे सर्वजीव वैष्णव कृपाय  ॥ ४.५१ ॥
वैष्णव देहेते थाके श्रीकृष्णेर शक्ति  ।
सेइ देह स्पर्शे अन्ये हय कृष्णभक्ति  ॥ ४.५२ ॥
वैष्णव अधरामृत आर पद जल  ।
वैष्णवेर पदरजः तिन महाबल  ॥ ४.५३ ॥
वैष्णवेर शक्ति सञ्चार

वैष्णवनिकटे यदि बैसे कतलक्षण  ।
देह हैते हय कृष्णशक्ति निःसरण  ॥ ४.५४ ॥
सेइ शक्ति श्रद्धावान् हृदये पशिया  ।
भक्तिर उदय करे देह काङ्पाइया   ॥ ४.५५ ॥
ये बसिल वैष्णवेर निकटे श्रद्धाय  ।
ताहार हृदये भक्ति हेबे उदय  ॥ ४.५६ ॥
प्रथमे आसिबे तार मुखे कृष्णनाम  ।
नामेर प्रभावे पाबे सर्वगुणग्राम  ॥ ४.५७ ॥
वैष्णवेर कि कि दोष धरिले वैष्णवनिन्दा हयजातिदोष पूर्वदोष नष्टप्राय अवशिष्ट दोष कादाचित्क दोष

वैष्णवेर जाति आर पूर्व दोष धरे  ।
कादाचित्क दोष देखि येइ निन्दा करे  ॥ ४.५८ ॥
नष्टप्राय दोष लये करे अपमान  ।
यमदण्डे कष्ट पाय से सब अज्ञान  ॥ ४.५९ ॥
वैष्णवेर मुखे नाममाहात्म्यप्रचार  ।
से वैष्णवनिन्दा कृष्ण नाहि सहे आर  ॥ ४.६० ॥
धर्म योग याग ज्ञानकाण्ड परिहरि  ।
ये भजिल कृष्णनाम सेइ सर्वोपरि  ॥ ४.६१ ॥
अन्य देव शास्त्र निन्दादिशून्य नामाश्रयी साधु

अन्यदेर अन्यशास्त्र ना करि निन्दन  ।
नामेर आश्रय लय शुद्ध साधुजन  ॥ ४.६२ ॥
से साधु गृहस्थ हो अथवा सन्न्यासी  ।
ताहार चरणरेणु पाइते प्रयासी  ॥ ४.६३ ॥
याब यत नामे रति से तत वैष्णव  ।
वैष्णवेर क्रम एइ मते अनुभव  ॥ ४.६४ ॥
इथे वर्णाश्रम धन पाण्डित्य यौवन  ।
कोन कार्य नाहि करे रूप बल जन  ॥ ४.६५ ॥
अतएव यिनि करिलेन नामाश्रय  ।
साधुनिन्दा छाडिबेन ए धर्म निश्चय  ॥ ४.६६ ॥
नामाश्रया शुद्धा भक्ति भक्त भक्तिरूपा  ।
भक्त भक्तिविवर्जिता हेले विरूपा  ॥ ४.६७ ॥
याङ्हा साधुनिन्दा ताङ्हा नाहि भक्ति स्थिति  ।
अतएव अपराधे तथा परिणति  ॥ ४.६८ ॥
साधुनिन्दा छाडि भक्त साधुभक्ति करे  ।
साधुसङ्ग साधुसेवा एइ धर्माचरे  ॥ ४.६९ ॥
असत्सङ्ग दुइ प्रकार, तन्मध्ये स्त्रीसङ्गी

असत्सङ्गत्यागे हय वैष्णवाचार  ।
असत्सङ्गे हय साध्ववज्ञा अपार  ॥ ४.७० ॥
असत्ये द्विप्रकार सर्वशास्त्रे कय  ।
सेइ दुइयेर मध्ये योषित्सङ्गी एक हय  ॥ ४.७१ ॥
योषित्सङ्गिसङ्गी पुनः तार मध्ये गण्य  ।
तार सङ्गत्यागे जीव हेबेक धन्य  ॥ ४.७२ ॥

योषित्सङ्गी काहाके बले

कृष्णेरे संसारे ये दाम्पत्य धर्म थाके  ।
असत्बलिया शास्त्र ना बले ताहाके  ॥ ४.७३ ॥
अधर्म संयोगे आर स्त्रैण भावे रत  ।
योषित्सङ्गी जन दुष्ट शास्त्रेर सम्मत  ॥ ४.७४ ॥
द्वितीय प्रकार असत्(कृष्णेते अभक्त) तिन प्रकार

कृष्णेते अभक्त  असत्द्वितीय प्रकार  ।
मायावादी धर्मध्वजी निरीश्वर आर  ॥ ४.७५ ॥

यिनि बलेन, एइ सब लोकेर निन्दाके ओ साधुनिन्दा बले तिन्यो वर्ज्य

वर्जिले ए सब सङ्ग साधुनिन्दा नय  ।
इहाके ये निन्दा बले सेइ वर्ज्य हय  ॥ ४.७६ ॥
एइ सब सङ्ग छाडि अनन्यशरण  ।
कृष्णनाम करि पाय कृष्णप्रेमधन  ॥ ४.७७ ॥
वैष्णवाभास, प्राकृतवैष्णव, वैष्णवप्राय ओ कनिष्ठवैष्णवैइ सकल एके कथा

साधुसेवाहीन अर्चे लौकिक श्रद्धाय  ।
प्राकृत वैष्णव हय वैष्णवेर प्राय  ॥ ४.७८ ॥
वैष्णवाभास सेइ नहे तऽ वैष्णव  ।
केमने पाइबे साधुसङ्गेर वैष्णव  ॥ ४.७९ ॥
अतएव कनिष्ठ मध्येते तारे गणि  ।
तारे कृपा करिबेन वैष्णव आपनि   ॥ ४.८० ॥
मध्यम वैष्णव

कृष्णप्रेम कृष्णभक्ते मैत्री आचरण  ।
बालिशेते कृपा आर द्वेषी उपेक्षण  ॥ ४.८१ ॥
करिले मध्यम भक्त शुद्ध भक्त हन  ।
कृष्णनाम्ने अधिकार करेन अर्जन  ॥ ४.८२ ॥
उत्तम वैष्णव

सर्वत्र याङ्हार हय कृष्णदरशन  ।
कृष्णे सकलेर स्थिति कृष्ण प्राण धन  ॥ ४.८३ ॥
वैष्णवावैष्णवभेद नाहि थाके ताङ्र  ।
वैष्णव उत्तम तिनि कृष्णनामसार  ॥ ४.८४ ॥
मध्यम वैष्णवे साधु सेवा करेन

अतएव मध्यम वैष्णव महाशय  ।
साधु सेवा रत सदा थाकेन निश्चय  ॥ ४.८५ ॥
प्राकृत वैष्णव नामाभासेर अधिकारी

प्राकृत वैष्णव येइ वैष्णवेर प्राय  ।
नामाभासे अधिकारी सर्वशास्त्र पाय  ॥ ४.८६ ॥
मध्यम वैष्णव नामाधिकारी ओ नामापराध विचार करिबेन

मध्यम वैष्णव मात्र नामे अधिकारी  ।
श्रीनामभजने अपराधेर विचारी  ॥ ४.८७ ॥
उत्तम वैष्णवे अपराध असम्भव  ।
सर्वत्र देखेन तिनि कृष्णेर वैभव  ॥ ४.८८ ॥
निज निज अधिकार करिया विचार  ।
साधुनिन्दा अपराध करि परिहार  ॥ ४.८९ ॥
साधु सङ्ग साधु सेवा नाम सङ्कीर्तन  ।
सर्व जीवे दया एइ भक्त आचरण  ॥ ४.९० ॥
साधु निन्दा घटिले कि करा कर्तव्य ?

प्रमादे यद्यपि घटे साधुविगर्हण  ।
तबे अनुतापे धरि से साधुचरण  ॥ ४.९१ ॥
काङ्दिया बलिब प्रभो क्षमि अपराध  ।
ए दुष्टनिन्दके कर वैष्णवप्रसाद  ॥ ४.९२ ॥
साधु बड दयामय तबे आर्द्रमने  ।
क्षमिबेन अपराध कृपा आलिङ्गने  ॥ ४.९३ ॥
एइ त प्रथम अपराधेर विचार  ।
श्रीचरणे निवेदिनु आज्ञा अनुसार  ॥ ४.९४ ॥
हरिदास पादपद्मे भ्रर ये जन  ।
हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन  ॥ ४.९५ ॥

इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ साधुनिन्दापराधविचारो
नाम चतुर्थः परिच्छेदः  ।


श्रीहरिनामचिन्तामणि
श्रीगोद्रुमचन्द्राय नमः

(१)
प्रथमपरिच्छेद
श्रीनाममाहात्म्यसूचना

गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन  ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण  ॥ १.१ ॥

लवण जलधि तीरे        नीलाचले श्री मन्दिरे
दारु ब्रह्म पुरुष प्रधान  ।
जीवे निस्तारिते हरि         अर्चा रूपे अवतरि
भोग मोक्ष करेन प्रदान  ॥ १.२ ॥
सेइ धामे श्री चैतन्य          मानवे करिते धन्य
सन्न्यासी रूपेते भगवान्  ।
कलिते ये युग धर्म         बुझाइते तार मर्म
काशी मिश्र घरे अधिष्ठान  ॥ १.३ ॥
निज भक्त वृन्द लये          निजे कल्प तरु हये
कृष्ण प्रेम देन सर्व जने  ।
नाना मते भक्त मुखे          भक्त कथ शुनि सुखे
जीव शिक्षा देन सुयतने  ॥ १.४ ॥
एक दिन भगवान्         समुद्रे करिया स्नान
श्री सिद्ध बकुले हरि दासे  ।
मिलि आनन्दित मने         जिज्ञासिला सयतने
किसे जीव तरे अनायासे  ॥ १.५ ॥
प्रभुर चरण धरिऽ      अनेक विनय करिऽ
गलद्अश्रु पुलक शरीर  ।
हरिदास महाशय      काङ्दिते काङ्दिते कय
प्रभु तव लीला सुगभीर  ॥ १.६ ॥
आमि अति अकिञ्चन       नाहि मोर विद्या धन
तव पद आमार सम्बल  ।
ए हेन अयोग्य जने       प्रश्न करिऽ अकारणे
बल प्रभु हबे किबा फल  ॥ १.७ ॥
तुमि कृष्ण स्वयं प्रभो        जीव उद्धारिते विभो
नवद्वीप धामे अवतार  ।
कृपा करिऽ राङ्गा पाय       राख मोरे गौर राय
तबे चित्त प्रफुल्ल आमार  ॥ १.८ ॥
तोमार अनन्त नाम       तवानन्त गुण ग्राम
तव रूप सुखेर सागर  ।
अनन्त तोमार लीला       कृपा करिऽ प्रकाशिला
ताइ आस्वादये ए पामर  ॥ १.९ ॥
चिन्मय भास्कर तुमि       किरणेर कण आमि
तुमि प्रभु, आमि नित्य दास  ।
चरण पीयूष तव       मम सुख सुवैभव
तव नामामृते मोर आश  ॥ १.१० ॥
ए मत अधम आमि       कि बलिते जानि स्वामी
तबु आज्ञा करिब पालन  ।
या बलाबे मोर मुखे       तोमारे बलिब सुखे
दोष गुण ना करि गणन  ॥ १.११ ॥
कृष्णतत्त्व

एकमात्र इच्छामय कृष्ण सर्वेश्वर  ।
नित्य शक्तियोगे कृष्ण विभु परात्पर  ॥ १.१२ ॥

कृष्ण कृष्णशक्ति

कृष्णशक्ति कृष्ण हैते ना हय स्वतन्त्र  ।
येइ शक्ति सेइ कृष्ण कहे वेदमन्त्र  ॥ १.१३ ॥
कृष्ण विभु, शक्ति ताङ्र वैभव स्वरूप  ।
अनन्त वैभवे कृष्ण हय एक रूप  ॥ १.१४ ॥

त्रिविध वैभव

शक्तिर प्रकाश येइ सेइ त वैभव  ।
विभुर वैभव मात्र हय अनुभव  ॥ १.१५ ॥
वैभव त्रिविध तव गौराङ्ग सुन्दर
चिदचित्जीव तिन शास्त्रेर गोचर  ॥ १.१६ ॥

चिद्वैभव

अनन्त वैकुण्ठ आदि यत कृष्ण धाम  ।
गोविन्द श्रीकृष्ण हरि आदि यत नाम  ॥ १.१७ ॥
द्विभुज मुरलीधर आदि यत रूप  ।
भक्तानन्दप्रद आदि गुण अपरूप  ॥ १.१८ ॥
व्रज रसलीला नवद्वीपे सङ्कीर्तन  ।
एइ रूप कृष्ण लीला विचित्र गणन  ॥ १.१९ ॥
ए समस्त चिद्वैभव अप्राकृत हय  ।
आसियौ ए प्रपञ्चे प्रापञ्चिक नय   ॥ १.२० ॥
चिद्व्यापार समुदय विष्णुतत्त्वसार  ।
विष्णुपद बलि वेदे गाय बार बार  ॥ १.२१ ॥

कृष्णेर चिद्विभुते विष्णुतत्त्व शुद्धतत्त्व

नाहि ताहे जडधर्म मायार विकार  ।
जडातीत विष्णुतत्त्व शुद्धसत्त्वसार  ॥ १.२२ ॥
शुद्धसत्त्व रजस्तमोगन्धविरहित  ।
रजस्तमोमिश्र मिश्रसत्त्व सुविदित  ॥ १.२३ ॥
गोविन्द वैकुण्ठनाथ कारणोदशायी  ।
गर्भोदशायी आर क्षीरसिन्धुशायी  ॥ १.२४ ॥
आर यत स्वांश परिचित अवतार  ।
सेइ सब शुद्धसत्त्व विष्णुतत्त्वसार  ॥ १.२५ ॥
गोलोके वैकुण्ठे आर कारणसागरे  ।
अथवा ए जडे थाके, विष्णुनाम धरे  ॥ १.२६ ॥
प्रवेशि ए जड विश्व मायार अधीश  ।
विष्णुनाम प्राप्त विभु सर्वदेव ईश  ॥ १.२७ ॥
मायार ईश्वर मायी शुद्धसत्त्वमय  ।

मिश्रसत्त्व

मिश्रसत्त्व ब्रह्मा शिव आदि सब हय  ॥ १.२८ ॥

चिद्वैभवेर विस्तृति

ए समस्त विष्णुतत्त्व आर विष्णुधाम  ।
तव चिद्वैभव नाथ तव लीलाग्राम  ॥ १.२९ ॥

अचिद्वैभव मायतत्त्व

विरजार एइ पारे यत वस्तु हय  ।
अचित्वैभव तव चौद्दलोकमय  ॥ १.३० ॥
मायार वैभव बलि बले देवीधाम  ।
पञ्चभूत मनो बुद्धि अहङ्कार नाम  ॥ १.३१ ॥
ए भूर्लोक, भुवर्लोक आर स्वर्गलोक  ।
महर्लोक, जनतपसत्यब्रह्मलोक  ॥ १.३२ ॥
अतलसुतलादि निम्न लोक सात  ।
मायिक वैभव तव शुन जगन्नाथ  ॥ १.३३ ॥
चिद्वैभव पूर्णतत्त्व माया छाया तार  ।

जीववैभव

चिद्अणुस्वरूप जीव वैभव प्रकार  ॥ १.३४ ॥
चिद्धर्मवशतः जीव स्वतन्त्र गठन  ।
सङ्ख्याय अनन्त सुख तार प्रयोजन  ॥ १.३५ ॥

मुक्त जीव

सेइ सुख हेतु यारा कृष्णेरे बरिल  ।
कृष्णपारिषद मुक्तरूपेते रहिल  ॥ १.३६ ॥

बद्ध वा बहिर्मुख जीव

यारा पुनः निजसुख करिया भावना   ।
पार्श्वस्थिता माया प्रति करिल कामना  ॥ १.३७ ॥
सेइ सब नित्यकृष्णबहिर्मुख हैल  ।
देवीधामे मायाकृत शरीर पाइल  ॥ १.३८ ॥
पुण्य पाप कर्म चक्रे पडिया एखन  ।
स्थूल लिङ्ग देहे सदा करेन भ्रमण  ॥ १.३९ ॥
कभु स्वर्गे उठे, कभु निरये पडिया  ।
चौराशि लक्ष योनि भोगे भ्रमिया भ्रमिया  ॥ १.४० ॥

तथापि कृष्णदया

तुमि विभु, तोमार वैभव जीव हय  ।
दासेर मङ्गल चिन्ता तोमार निश्चय  ॥ १.४१ ॥
दास याहा सुख मानि करे अन्वेषण  ।
तुमि ताहा कृपा करि कर वितरण  ॥ १.४२ ॥

प्राकृत शुभकर्म कर्मकाण्ड

मायार वैभवे ये अनित्य सुख चाय
तोमार कृपाय से अनायासे पाय  ॥ १.४३ ॥
सेइ सुख प्राप्त्य्उपाय शुभकर्म यत  ।
निरमिले धर्मयज्ञयोगहोमव्रत  ॥ १.४४ ॥
सेइ सब शुभकर्म सदा जडमय  ।
चिन्मयी प्रवृत्ति ताहे कभु ना मिलय  ॥ १.४५ ॥
ताहार साधने साध्य जडमय फल  ।
उच्चलोक भोग सुख ताहाते प्रबल  ॥ १.४६ ॥
सेइ सब कर्मभोग नाहि आत्मशान्ति  ।
ताहाते प्रयास करा अतिशय भ्रान्ति  ॥ १.४७ ॥
सेइ सब शुभ कर्म उपाय हैया   ।
अनित्य उपेय साधे लोक सुख दिया  ॥ १.४८ ॥

सेइ अवस्था हैते उद्धारेर उपाय

कभु यदि साधु सङ्गे जानिते से पारे  ।
आमि जीव कृष्णदास, याय माया पारे  ॥ १.४९ ॥
से विरल फल मात्र सुकृतिजनित  ।
तुच्छ कर्मकाण्ड नाहि करिले विहित  ॥ १.५० ॥

ज्ञानकाण्ड, ब्रह्मलय सुख

आर यिनि मायार यन्त्रणा मात्र जानि  ।
मुक्ति लाभे यत्नवान् तिनि हन ज्ञानी  ॥ १.५१ ॥
से सब लोकेर जन्य तुमि दयामय  ।
ज्ञानकाण्ड ब्रह्मविद्या दियाछ निश्चय  ॥ १.५२ ॥
सेइ विद्या मायावाद करिया आश्रय  ।
जड मुक्त हये ब्रह्मे जीव हय लय  ॥ १.५३ ॥

ब्रह्मवस्तु कि?

सेइ ब्रह्म तव अङ्गकान्ति ज्योतिर्मय  ।
विरजार पारे स्थित ताते हय लय  ॥ १.५४ ॥
ये सब असुरे विष्णु करेन संहार  ।
ताहारौ सेइ ब्रह्मे याय मायापार  ॥ १.५५ ॥
कृष्णबहिर्मुख

कर्मी ज्ञानी उभये इ कृष्णबहिर्मुख  ।
कभु नाहि आस्वादय कृष्णदास्यसुख  ॥ १.५६ ॥
भक्त्य्उन्मुखी सुकृति

भक्तिर उन्मुखी सेइ सुकृति प्रधान  ।
तार फले जीव भक्तसाधुसङ्ग पान  ॥ १.५७ ॥
श्रद्धावान् हये कृष्णभक्तसङ्ग करे  ।
नामे रुचि, जीवे दया, भक्तिपथ धरे  ॥ १.५८ ॥

कर्मी ओ ज्ञानीर प्रति कृपाय गौणपथ विधान

दयार सागर तुमि जीवेर ईश्वर  ।
कर्मी ज्ञानी बहिर्मुख उद्धारे तत्पर  ॥ १.५९ ॥
कर्मपथे ज्ञानपथे पथिक ये जन  ।
ताहार उद्धार लागि तोमार यतन  ॥ १.६० ॥
सेइ सेइ पथिकेर मङ्गल चिन्तिया  ।
गौणभक्ति पथ एक राखिल करिया  ॥ १.६१ ॥

कर्मीर पक्षे कर्मेर गौणभक्ति पथ

कर्मी वर्णाश्रमे थाकि साधुसङ्ग करि  ।
कर्म माझे भक्ति करे गौणपथ धरि  ॥ १.६२ ॥
तार कृत कर्म सब हृदय शोधिया  ।
तिरोहित हय श्रद्धा बीजे स्थान दिया  ॥ १.६३ ॥

ज्ञानीर गौणपथ

ज्ञानी सुकृतिर बले भक्तेर कृपाय  ।
अनन्य भक्तिते श्रद्धा बीजे स्थान दिया  ॥ १.६४ ॥
तुमि बल मोर दास मायार विपाके  ।
चाहे अन्य तुच्छ फल छाडिया आमाके  ॥ १.६५ ॥
आमि जानि तार याते हय सुमङ्गल  ।
भुक्ति मुक्ति छाडाइया दी भक्ति फल  ॥ १.६६ ॥

गौणपथेर प्रक्रिया

तार काम अनुसारे चालाञा ताहारे
गौणपथ भक्तिमार्गे श्रद्धा दी तारे  ॥ १.६७ ॥
ए तोमार कृपा प्रभु तुमि कृपामय  ।
कृपा ना करिले किसे जीव शुद्ध हय  ॥ १.६८ ॥
कलिते गौणपथेर दुर्दशा

सत्ययुगे ध्यानयोगे कत ऋषिगणे  ।
शुद्ध करिऽ दिले प्रभु निजभक्तिधने  ॥ १.६९ ॥
त्रेतायुगे यज्ञकर्मे अनेक शोधिले  ।
द्वापरे अर्चनमार्गे भक्ति बिलाइले  ॥ १.७० ॥
कलि आगमने नाथ जीवेर दुर्दशा  ।
देखि ज्ञान कर्म योग छाडिल भरसा  ॥ १.७१ ॥
अल्प आयु, बहु पीडा, बलबुद्धिह्रास  ।
एइ सब उपद्रव जीवे कैल ग्रास  ॥ १.७२ ॥
वर्णाश्रम धर्म आर साङ्ख्य योग ज्ञान  ।
कलिजीवे उद्धारिते नहे बलवान्  ॥ १.७३ ॥
ज्ञानकर्मगत ये भक्तिर गौणपथ  ।
कण्टके सङ्कीर्ण हञा हैल विपथ  ॥ १.७४ ॥
पृथकुपाय धरि उपेय साधने  ।
विघ्न बहुतर हैल जीवेर जीवने  ॥ १.७५ ॥

नामालोचनार मुख्यपथ

प्रभु तुमि जीवेर मङ्गल चिन्ता करि  ।
कलि युगे नाम सङ्गे स्वयमवतरि  ॥ १.७६ ॥
युग धर्म प्रचारिले नाम सङ्कीर्तन  ।
मुख्य पथे जीव पाय कृष्ण प्रेम धन  ॥ १.७७ ॥
नामेर स्मरणे आर नामसङ्कीर्तन  ।
एइ मात्र धर्म जीव करिबे पालन  ॥ १.७८ ॥

साध्यसाधन ओ उपाय उपेयेर अभेदताक्रमे नामेर मुख्यता

येइ त साधन सेइ साध्य यबे हैल  ।
उपाय उपेय मध्ये भेद ना रहिल  ॥ १.७९ ॥
साध्येर साधने आर नाहि अन्तराय  ।
अनायासे तरे जीव तोमार कृपाय  ॥ १.८० ॥
आमि त अधम अति मजिया विषये  ।
ना भजिनु नाम तव अति मूढ हये  ॥ १.८१ ॥
दर दर धारा चक्षे ब्रह्महरिदास  ।
पडिल प्रभुर पदे छाडिया निःश्वास  ॥ १.८२ ॥
हरि भक्त भक्ति मात्रे विनोद याहार  ।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार  ॥ १.८३ ॥

इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ नाममाहात्मसूचनं नाम प्रथमः परिच्छेदः  ।

(२)
द्वितीय परिच्छेद
नामग्रहणविचार

गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन  ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण  ॥ २.१ ॥
महाप्रेमे हरिदास करेन रोदन  ।
प्रेमे तारे गौरचन्द्र दिला आलिङ्गन  ॥ २.२ ॥
बलेन तोमार सम भक्त कोथा आर  ।
सर्वतत्त्वज्ञाता तुमि सदा मायापार  ॥ २.३ ॥
अनन्य भजनेर श्रेष्ठता

निचकुले अवतरि देखाले सकले  ।
धने माने कुले शीले कृष्ण नाहि मिले  ॥ २.४ ॥
अनन्य भजने याङ्र श्रद्धा अतिशय  ।
देवता अपेक्षा श्रेष्ठ सेइ महाशय  ॥ २.५ ॥

श्रीहरिदासेर नामाचार्य्यता

नामतत्त्व सर्वसार तोमार विदित  ।
आचारे आचार्य्य तुमि प्रचारे पण्डित  ॥ २.६ ॥
बल हरिदास नाममहिमा अपार  ।
शुनिया तोमार मुखे आनन्द आमार  ॥ २.७ ॥
वैष्णवलक्षण

एक नाम यार मुखे वैष्णव से हय  ।
तारे गृही यत्न करि मानिबे निश्चय  ॥ २.८ ॥
वैष्णवतरलक्षण

निरन्तर यार मुखे शुनि कृष्णनाम  ।
सेइ से वैष्णवतर सर्वगुणधाम  ॥ २.९ ॥
वैष्णवतमलक्षण

वैष्णव उत्तम सेइ याहारे देखिले  ।
कृष्णनाम आसे मुखे कृष्णभक्ति मिले  ॥ २.१० ॥
हेन कृष्णनाम जीव कि रूपे करिबे  ।
ताहार विधान तुमि आमारे बलिबे  ॥ २.११ ॥
कर युडि हरिदास बलेन वचन  ।
प्रेम गदगद स्वर सजल नयन  ॥ २.१२ ॥
नामेर स्वरूप

कृष्णनाम चिन्तामणि अनादि चिन्मय  ।
येइ कृष्ण सेइ नाम एकतत्त्व हय  ॥ २.१३ ॥
चैतन्य विग्रह नाम नित्य मुक्त तत्त्व  ।
नाम नामी भिन्न नय नित्य शुद्ध सत्त्व  ॥ २.१४ ॥
ए जड जगते ताङ्र अक्षर आकार  ।
रसरूपे रसिकेते सत्त्व अवतार  ॥ २.१५ ॥
कृष्ण वस्तु हय चारि धर्मे परिचित  ।
नाम रूप गुण कर्म अनादि विहित  ॥ २.१६ ॥
नाम नित्यसिद्ध

नित्य वस्तु रसरूप कृष्ण से अद्वय  ।
सेइ चारि परिचये वस्तु सिद्ध हय  ॥ २.१७ ॥
सन्धिनी शक्तिते ताङ्र चारि परिचय  ।
नित्यसिद्ध रूपे ख्यात सर्वदा चिन्मय  ॥ २.१८ ॥
कृष्ण आकर्षये सर्व विश्वगत जन  ।
सेइ नित्य धर्म गत कृष्ण नाम धन  ॥ २.१९ ॥
कृष्णरूप नित्य

कृष्णरूप कृष्ण हैते सर्वदा अभेद  ।
नाम रूप एक वस्तु नाहिक प्रभेद  ॥ २.२० ॥
श्रीनाम स्मरिले रूप आइसे सङ्गे सङ्गे  ।
रूप नाम भिन्न नय नाचे नाना रङ्गे  ॥ २.२१ ॥


कृष्णगुण नित्य

कृष्णगुण चतुःषष्ठि अनन्त अपार  ।
याङ्र निज अंशरूपे सब अवतार  ॥ २.२२ ॥
याङ्र गुण अंशे ब्रह्मा शिवादि ईश्वर  ।
याङ्र गुणे नारायण षष्ठि गुणेश्वर  ॥ २.२३ ॥
सेइ सब नित्यगुणे नित्य नाम ताङ्र  ।
अनन्त सङ्ख्याय व्याप्त वैकुण्ठ व्यापार  ॥ २.२४ ॥
कृष्णलीलार नित्यत्व

सेइ गुण तरङ्गेते लीलार विस्तार  ।
गोलोके वैकुण्ठ व्रज सब चिद्आकारे  ॥ २.२५ ॥
चिद्वस्तुते नाम, रूप, गुण, लीला वस्तु हैते पृथक्नय

नाम रूप गुण लीला अभिन्न उदय  ।
अचित्सम्पर्के बद्ध जीवे भिन्न हय  ॥ २.२६ ॥
शुद्ध जीवे नाम रूप गुण क्रिया एक  ।
जडाश्रित देहे भेद एइ से विवेक  ॥ २.२७ ॥
कृष्णे नाहि जडगन्ध अतएव ताङ्य  ।
नाम रूप गुण लीला एकतत्त्व भाय  ॥ २.२८ ॥
नामेर सर्वमूलत्व
एइ चारि परिचय मध्ये नाम ताङ्र  ।
सकलेर आदि से प्रतीति सबाकार  ॥ २.२९ ॥
अतएव नाम मात्र वैष्णवेर धर्म  ।
नामे प्रस्फुटित हय रूप गुण कर्म  ॥ २.३० ॥
कृष्णेर समग्र लीला नामे विद्यमान  ।
नामे से परम तत्त्व तोमार विधान  ॥ २.३१ ॥
वैष्णव ओ वैष्णवप्राये भेद आछे

सेइ नाम बद्ध जीव श्रद्धा सहकारे  ।
शुद्ध रूपे लैले वैष्णव बलि तारे  ॥ २.३२ ॥
नामाभास यार हय से वैष्णवप्राय  ।
कृष्णकृपा बले क्रमे शुद्ध भाव पाय  ॥ २.३३ ॥
एइ मायिक जगते कृष्णनाम ओ जीव एइ दुइटि मात्र चिद्व्यापार

नाम सम वस्तु नाइ ए भव संसारे  ।
नामे से परम धन कृष्णेर भाण्डारे  ॥ २.३४ ॥
जीव निजे चिद्व्यापारे कृष्णनाम आर  ।
आर सब प्रापञ्चिक जगत्संसार  ॥ २.३५ ॥

मुख्य गौण भेदे नाम दुइ प्रकार

मुख्य ओ गौण भेदे कृष्णनाम द्विप्रकार  ।
मुख्यनामाश्रये जीव पाय सर्व सार  ॥ २.३६ ॥
चिल्लीला आश्रय करि यत कृष्ण नाम  ।
सेइ सेइ मुख्य नाम सर्व गुण धाम  ॥ २.३७ ॥

मुख्य नाम

गोविन्द गोपाल राम श्रीनन्दनन्दन  ।
राधानाथ हरि यशोमती प्राणधन  ॥ २.३८ ॥
मदनमोहन श्यामसुन्दर माधव  ।
गोपीनाथ व्रजगोप राखाल यादव  ॥ २.३९ ॥
एइ रूप नित्य लीला प्रकाशक नाम  ।
ए सब कीर्तने जीव पाय कृष्ण धाम  ॥ २.४० ॥

गौण नाम ओ ताहार लक्षण

जडा प्रकृतिर परिचये नाम यत   ।
प्रकृतिर गुणे गौण वेदेर सम्मत  ॥ २.४१ ॥
सृष्टिकर्ता परमात्मा ब्रह्म स्थितिकर  ।
जगत्संहर्ता पाता  यज्ञेश्वर हर  ॥ २.४२ ॥

मुख्य ओ गौण नामेर फलभेद

एइरूप नाम कर्मज्ञानकाण्डगत  ।
पुण्य मोक्ष दान करे शास्त्रेर सम्मत  ॥ २.४३ ॥
नामेर ये मुख्य फल कृष्ण प्रेम धन  ।
तार मुख्य नामे मात्र लभे साधु गण   ॥ २.४४ ॥

नाम ओ नामाभासमात्र फलभेद

एक कृष्णनाम यदि मुखे बाहिराय  ।
अथवा श्रवणपथे अन्तरेते याय  ॥ २.४५ ॥
शुद्ध वर्ण हय वा अशुद्ध वर्ण हय  ।
ताते जीव तरे एइ शास्त्रेर निर्णय  ॥ २.४६ ॥
किन्तु एक कथा इथे आछे सुनिश्चित  ।
नामाभास हैले विलम्बे हय हित  ॥ २.४७ ॥
नामाभास हैले ओ अन्य शुभ हय  ।
प्रेमधन केवल विलम्बे उपजय  ॥ २.४८ ॥
नामाभासे पापक्षये शुद्ध नाम हय  ।
तखने श्रीकृष्णप्रेम लभये निश्चय  ॥ २.४९ ॥

व्यवहित वा व्यवधाने दोषे जन्मे

किन्तु व्यवहित हले हय अपराध  ।
सेइ अपराधे हय प्रेमलाभ बाध  ॥ २.५० ॥
नामनामी भेदबुद्धि व्यवधान हय  ।
व्यवहित थाकिले कदापि प्रेम नय  ॥ २.५१ ॥

व्यवधान दुइ प्रकार

वर्णव्यवधान आर तत्त्वव्यवधान  ।
व्यवधान द्विप्रकार वेदेर विधान  ॥ २.५२ ॥
मायावादे नामे तत्त्वव्यवधान करे

तत्त्वव्यवधान मायावाद दुष्ट मत  ।
कलिर जञ्जाल एइ शास्त्र असम्मत  ॥ २.५३ ॥
व्यवधानाबिद्ध नामे शुद्ध नाम

अतएव शुद्ध कृष्ण नाम याङ्र मुखे  ।
ताङ्हाके वैष्णव जानि सदा सेवि सुखे  ॥ २.५४ ॥

अनर्थ यत नष्ट हय तते नामाभासत्व दूर हय ओ चिन्मय नाम प्रकाश पाय

नामाभास भेदि शुद्धनाम लभिबारे  ।
सद्गुरु सेविबे जीव यत्न सहकारे  ॥ २.५५ ॥
भजने अनर्थ नाश येइ क्षणे पाय  ।
चित्स्वरूप नामे नाचे भक्तेर जीह्वाय  ॥ २.५६ ॥
नाम से अमृत धारा नाहि छाडे आर  ।
नाम रसे मत्त जीव नाचे अनिवार  ॥ २.५७ ॥
नाम नाचे जीव नाचे नाचे प्रेम धन  ।
जगत्नाचाय माया करे पलायन  ॥ २.५८ ॥

याहार नामे श्रद्धा हय ताहारे नामे अधिकार हैया थाके नामे सर्वशक्ति आछे

नामे  अधिकार नरमात्रे कैले दान  ।
सर्वशक्ति नामे प्रभु करिले विधान  ॥ २.५९ ॥
यार श्रद्धा हय नामे सेइ अधिकारी   ।
यार मुखे कृष्णनाम सेइ से आचारी   ॥ २.६० ॥

देशकाल अशौचादिर बाधा नामे नाइ

देश काल अशौचादि नियम सकाल  ।
श्रीनामग्रहणे नाइ नाम से प्रबल  ॥ २.६१ ॥

कलिजीवेर नामे निष्कपट विश्वास हैले इ नामे अधिकार हैल

दाने यज्ञे स्नाने जपे आछे त विचार  ।
कृष्णसङ्कीर्तने मात्र श्रद्धा अधिकार  ॥ २.६२ ॥
युगधर्म हरिनाम अनन्य श्रद्धाय  ।
ये करे आश्रय तार सर्वलाभ हय  ॥ २.६३ ॥
कलि जीव निष्कपटे कृष्णेर संसारे  ।
अवस्थित हये कृष्णनाम सदा करे   ॥ २.६४ ॥
नामेर अनुकूल विषय ग्रहण ओ प्रतिकूल विसय वर्जन

भजनेर अनुकूल सर्व कार्य्य करिऽ  ।
भजनेर प्रतिकूल सब परिहरिऽ  ॥ २.६५ ॥
कृष्णेर संसारे थाकिऽ काटाये जीवन  ।
निरन्तर हरिनाम करेन स्मरण  ॥ २.६६ ॥
अनन्य बुद्धिते नाम ग्रहण करिबे

आर कोन धर्म कर्म कभु ना करिबे  ।
स्वतन्त्र ईश्वरज्ञाने अन्ये ना पूजिबे  ॥ २.६७ ॥
कृष्णनाम भक्तसेवा सतत करिबे  ।
कृष्णप्रेम लाभ तार अवश्य हेबे  ॥ २.६८ ॥
हरिदास काङ्दि प्रभु चरणे पडिया  ।
नामे अनुराग मागे चरण धरिया  ॥ २.६९ ॥
हरिदास पदे भक्तिविनोद याहार  ।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार  ॥ २.७० ॥


इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ
नामग्रहणविचारो नाम प्रथमः परिच्छेदः  ।

(३)
तृतीय परिच्छेद
नामाभास विचार

गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन  ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तजन  ॥ ३.१ ॥
हरिदासे महाप्रभु सदय हैया  ।
उठाय तखन पद्महस्त प्रसारिया  ॥ ३.२ ॥
बले शुन हरिदास आमार वचन  ।
नामाभास स्पष्टरूपे बुझाओ एखन  ॥ ३.३ ॥
नामाभास बुझाइले नाम शुद्ध हबे  ।
अनायासे जीव नामगुणे तरे याबे  ॥ ३.४ ॥
नामाभासमेघ कुज्झटिकारूप अज्ञान ओ अनर्थ

नाम सूर्यसम नाशे माया अन्धकार  ।
मेघ कुज्झटिका नामे ढाके बार बार  ॥ ३.५ ॥
जीवेर अज्ञान आर अनर्थ सकल  ।
कुज्झटिकामेघरूपे हय त प्रबल  ॥ ३.६ ॥
कृष्णनाम सूर्य चित्तगगणे उठिल  ।
कुज्झटिकामेघ पुनः ताहारे ढाकिल  ॥ ३.७ ॥
अज्ञान कुज्झटिका स्वरूप भ्रम

नामेर ये चित्स्वरूप ताहा नाहि जाने  ।
से अज्ञान कुज्झटिका अन्धकार आने  ॥ ३.८ ॥
कृष्ण सर्वेश्वर बलि नाहि जाने येइ  ।
नाना देवे पूजि कर्ममार्गे भ्रमे सेइ  ॥ ३.९ ॥
जीवे चित्स्वरूप बलि नाहि यार ज्ञान  ।
माया जडाश्रये तार सतत अज्ञान  ॥ ३.१० ॥
तबे हरिदास बले आज आमि धन्य  ।
मम मुखे नाम कथा शुनिबे चैतन्य  ॥ ३.११ ॥
कृष्ण जीव प्रभु दास जडात्मिका माया   ।
ये ना जाने तार शिरे अज्ञानेर छाया  ॥ ३.१२ ॥
मेघ अनर्थासत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध

असत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध  ।
अनर्थ ए सब मेघरूपे करे बाध  ॥ ३.१३ ॥
नामसूर्य रश्मि ढाके नामाभास हय  ।
स्वतः सिद्ध कृष्णनामे सदा आच्छादय  ॥ ३.१४ ॥
नामाभासेर अवधि

सम्बन्धतत्त्वेर ज्ञान यावत्ना हय  ।
तावत्से नामाभास जीवेर आश्रय  ॥ ३.१५ ॥
साधक यद्यपि पाय सद्गुरु आश्रय  ।
भजननैपुण्ये मेघ आदि दूर हय  ॥ ३.१६ ॥
सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन

मेघ कुज्झटिका गेले नामदिवाकर  ।
प्रकाश हैया भक्ते देन प्रेमवर  ॥ ३.१७ ॥
सद्गुरु सम्बन्ध ज्ञान करिया अर्पण  ।
अभिधेय रूपे करान नामानुशीलन  ॥ ३.१८ ॥
नामसूर्य स्वल्पकाले प्रबल हैया  ।
अनर्थकुज्झटिका देन ताडाइया  ॥ ३.१९ ॥
प्रयोजनतत्त्व तबे देन प्रेमधन  ।
प्राप्तप्रेम जीव करे नामसङ्कीर्तन  ॥ ३.२० ॥
सम्बन्धज्ञान

सद्गुरुचरणे जीव श्रद्धा सहकारे  ।
प्रथमे सम्बन्धज्ञान पाय सुविचारे  ॥ ३.२१ ॥
कृष्ण नित्य प्रभु आर जीव नित्य दास  ।
कृष्ण प्रेम नित्य जीवस्वभाव प्रकाश  ॥ ३.२२ ॥
कृष्ण नित्य दास जीव ताहा विस्मरिया  ।
मायिक जगते फिरे सुख अन्वेषिया  ॥ ३.२३ ॥
मायिक जगथय जीव कारागार  ।
जीवेर वैमुख्य दोषे दण्ड प्रतिकार  ॥ ३.२४ ॥
तबे यदि जीव साधु वैष्णव कृपाय  ।
सम्बन्ध ज्ञानेते पुनः कृष्णनाम पाय  ॥ ३.२५ ॥
तबे पाय प्रेमधन सर्वधर्मसार  ।
याहार निकटे सायुज्यादिर धिक्कार  ॥ ३.२६ ॥
यावत्सम्बन्ध ज्ञान स्थिर नाहि हय  ।
तावतनर्थे नामाभासेर आश्रय  ॥ ३.२७ ॥
नामाभासेर फल

नामाभास दशाते ओ अनेक मङ्गल  ।
जीवेर अवश्य हय सुकृति प्रबल  ॥ ३.२८ ॥
नामाभासे नष्ट हय आछे पाप यत  ।
नामाभासे मुक्ति हय कलि हय हत  ॥ ३.२९ ॥
नामाभासे नर हय सुपङ्क्ति पावन  ।
नामाभासे सर्वरोग हय निवारण  ॥ ३.३० ॥
सकल आशङ्का नामाभासे दूर हय  ।
नामाभासी सर्वारिष्ट हैते शान्ति पाय  ॥ ३.३१ ॥
यक्ष रक्ष भूत प्रेत ग्रह समुदय  ।
नामाभासे सकल अनर्थ दूरे याय  ॥ ३.३२ ॥
नरके पतित लोक सुखे मुक्ति पाय  ।
समस्त प्रारब्ध कर्म नामाभासे याय  ॥ ३.३३ ॥
सर्ववेदाधिक सर्व तीर्थ हैते बड  ।
नामाभास सर्वशुभकर्म श्रेष्ठतर  ॥ ३.३४ ॥

नामाभासेर वैकुण्ठादिप्रापकत्व

धर्म अर्थ काम मोक्ष चतुर्वर्गदाता  ।
सर्वशक्ति धरे नामाभासे जीवत्राता  ॥ ३.३५ ॥
जगतानन्दकर श्रेष्ठपदप्रद  ।
अगतिर एक गति सर्वश्रेष्ठपद  ॥ ३.३६ ॥
वैकुण्ठादि लोक प्राप्ति नामाभासे हय  ।
विशेषतः कलियुगे सर्वशास्त्र कय  ॥ ३.३७ ॥
सङ्केत, परिहास, स्तोभ ओ हेला एइ चारिप्रकार नामाभास

चतुर्विध नामाभास एइ मात्र जानि  ।
सङ्केत ओ परिहास, स्तोभ, हेला मानि  ॥ ३.३८ ॥
सङ्केतरूप नामाभासेर प्रकारद्वय

विष्णु लक्ष्य करि जड बुद्ध्ये नाम लय  ।
अन्य लक्ष्य करि विष्णु नाम उच्चारय  ॥ ३.३९ ॥
सङ्गेते द्विविध एइ हय नामाभास  ।
अजामिल साक्षी तार शास्त्रेते प्रकाश  ॥ ३.४० ॥
यवन सकल मुक्त हबे अनायासे  ।
हाराम हाराम बलि कहे नामाभासे  ॥ ३.४१ ॥
अन्यत्र सङ्केते यदि हय नामाभास  ।
तथापि नामेर तेज ना हय विनाश  ॥ ३.४२ ॥
परिहासनामाभास

परिहासे कृष्णनाम येइ जन करे  ।
जरासन्ध सम सेइ ए संसारे तरे  ॥ ३.४३ ॥
स्तोभ नामाभास

अङ्गभङ्गी चैद्य सम करे नामाभास  ।
स्तोभ मात्र हय तबु नाशे भवपाश  ॥ ३.४४ ॥
हेला नामाभास

मन नाहि देय आर अवज्ञा भावेते  ।
कृष्ण राम बले हेला नामाभास ताते  ॥ ३.४५ ॥
एइ सब नामाभासे म्लेच्छगण तरे  ।
विषयी अलस जन एइ पथ धरे  ॥ ३.४६ ॥
श्रद्धा ओ हेला नामाभासेर भेद

श्रद्धा करि करे नाम अनर्थ सहित  ।
श्रद्धा नाम हय सेइ तोमार विहित  ॥ ३.४७ ॥
सङ्केतादि अवज्ञा पर्यन्त भाव धरि  ।
नाम करे हेलाय ये श्रद्धा परिहरि  ॥ ३.४८ ॥
नामाभास अवधि से हेला नाम हय  ।
ताहाते ओ मुक्ति लभे पाप हय क्षय  ॥ ३.४९ ॥
अनर्थनाशे नामाभास नाम हैया प्रेम देय

कृष्ण प्रेम छाडि सब नामाभासे पाय  ।
नामाभासे पुनः शुद्ध नाम हये याय  ॥ ३.५० ॥
अनर्थ विगते यबे शुद्ध नाम हय  ।
कृष्णप्रेम तबे तार हेबे निश्चय  ॥ ३.५१ ॥
नामाभासे साक्षात्से प्रेम दिते नारे  ।
नाम हये प्रेम देय विधि अनुसारे  ॥ ३.५२ ॥
नामाभास ओ नामापराधेर भेद

अतएव नाम अपराध परिहरि  ।
नामाभास करे येइ तारे नति करि  ॥ ३.५३ ॥
कर्म ज्ञान हैते अनन्त श्रेष्ठतर  ।
बलि नामाभासे जानि ओहे सर्वेश्वर  ॥ ३.५४ ॥
रति मूला श्रद्धा यदि शुद्धभावे हय  ।
तबे त विशुद्ध नाम हेबे उदय  ॥ ३.५५ ॥
छाया ओ प्रतिबिम्ब भेदे आभास दुइ प्रकार
छाया नामाभास

आभास द्विविध हय प्रतिबिम्ब छाया  ।
श्रद्धाभास द्विप्रकार सब तव माया  ॥ ३.५६ ॥
छाया श्रद्धाभासे छायानामाभास हय  ।
सेइ नामाभासे जीवेर शुभ प्रसवय  ॥ ३.५७ ॥
प्रतिबिम्ब नामाभास

अन्य जीवे शुद्धा श्रद्धा करिया दर्शन  ।
निज मने श्रद्धाभास आने येइ जन  ॥ ३.५८ ॥
भोग मोक्ष वाञ्छा ताहे थाके नित्य मिशि  ।
अश्रमे अभीष्ट लाभे यते दिवानिशि  ॥ ३.५९ ॥
श्रद्धार लक्षण मात्र श्रद्धा ताहे नय  ।
ताके प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास शास्त्रे कय  ॥ ३.६० ॥
प्रतिबिम्ब श्रद्धाभासे नामाभास यत  ।
प्रतिबिम्बनामाभास हय अविरत  ॥ ३.६१ ॥

प्रतिबिम्ब नामाभासे मायावाद कपटता उत्पन्न करे

एइ नामाभासे मायावाद दुष्टमत  ।
प्रवेशिया शठताय हय परिणत  ॥ ३.६२ ॥

कपट प्रतिबिम्बनामाभास नामापराध

नित्य साध्य नामे साधन बुद्धि करि  ।
नामेर महिमा नाशि अपराधे मरि  ॥ ३.६३ ॥

छाया नामाभास ओ प्रतिबिम्बनामाभासेर भेद

छाया नामाभासे मात्र हयत अज्ञान  ।
हृदयदौर्बल्य हैते अनर्थ विधान  ॥ ३.६४ ॥
सेइ सब दोषे नाम करेन मार्जन  ।
प्रतिबिम्ब नामाभासे दोषेर वर्धन  ॥ ३.६५ ॥
मायावाद ओ भक्ति  इङ्हारा परस्पर विपरीत धर्म
मायावादे अपराध

कृष्णनाम रूप गुण लीलादि सकल  ।
मायावादिमते मिथ्या नश्वर सकल  ॥ ३.६६ ॥
सेइ मते प्रेमतत्त्व नित्य नाहि हय  ।
भक्तिविपरीत मायावाद सुनिश्चय  ॥ ३.६७ ॥
भक्तिवैरी मध्ये मायावादेर गणन  ।
अतएव मायावादी अपराधी हन  ॥ ३.६८ ॥
मायावादि मुखे नाम नाहि बाहिराय  ।
नाम बाहिराय तबु नामत्व ना पाय  ॥ ३.६९ ॥
मायावादी यदि करे नाम उच्चारण  ।
नामके अनित्य बलि लभये पतन  ॥ ३.७० ॥
नामेर निकटे भोगमोक्षेर प्रार्थना  ।
नामेर निकटे शाठ्य फलेते यातना   ॥ ३.७१ ॥
मायावादीर अपराध कखन छाडे

तबे यदि मायावादी भुक्ति मुक्ति आश  ।
छाडिया करये नाम हये कृष्णदास  ॥ ३.७२ ॥
तबे तारे छाडे मायावाद दुष्टमत  ।
अनुताप सह हय नाम अनुगत  ॥ ३.७३ ॥
साधु सङ्गे करे पुनः श्रवण कीर्तन  ।
सुसम्बन्ध ज्ञान तार उदे तत क्षण  ॥ ३.७४ ॥
अविश्रान्त नाम करे पडे चक्षु जल  ।
नाम कृपा पाय चित्त हय त सबल  ॥ ३.७५ ॥
भक्तिके अनित्य बलिया मायावाद अपराध हेयाछे

कृष्णरूप कृष्णदास्य जीवेर स्वभाव  ।
मायावाद अनित्य कल्पित बले सब  ॥ ३.७६ ॥
हेन मायावाद नाम अपरादे गणि   ।
मायावाद हय सर्व विपदेर खनि  ॥ ३.७७ ॥
मायावादी नामाभासे युक्त्य्आभासरूपे सायुज्य लाभ करे

नामाभास कल्पतरु मायावादिजने   ।
अभीष्ट अर्पण करे सायुज्य निर्वाणे  ॥ ३.७८ ॥
सर्वशक्ति नामे आछे ताइ नामाभासे  ।
प्रतिबिम्ब हेले ओ देन मुक्त्य्आभासे  ॥ ३.७९ ॥
पञ्चविध मुक्ति मध्ये सायुज्य आभास  ।
भव क्लेश नाशे मात्र फले सर्वनाश  ॥ ३.८० ॥

मायावादी नित्यसुख पाय ना

मायाय मोहित जन ताहे सुख माने  ।
सुखाभास मात्र पाय सायुज्य निर्वाणे  ॥ ३.८१ ॥
सच्चित्आनन्द सेवा परम निर्वृति  ।
सायुज्य ना पाय कभु हतकृष्णस्मृति  ॥ ३.८२ ॥
याङ्हा नाहि भक्ति प्रेम नित्यता विश्वास  ।
नित्य सुख कैछे ताहे हेबे प्रकाश  ॥ ३.८३ ॥
छाया नामाभासी दुष्टमते ना प्रवेश करिले क्रमे शुद्ध नाम पाइया थाकेन

छाया नामाभासी नाहि जाने दुष्टमत  ।
मतवादे चित्तबले नहे तार हत  ॥ ३.८४ ॥
से केवल नाहि जाने यथार्थ प्रभाव  ।
से प्रभाव ज्ञानदान नामेर स्वभाव  ॥ ३.८५ ॥
मेघाच्छन्ने सूर्यप्रभा प्रतीत ना हय  ।
किन्तु मेघे नाशि सूर्य करेन उदय  ॥ ३.८६ ॥
छाया नामाभासी धन्य सद्गुरु प्रभावे  ।
अल्पदिने नाम प्रेम अनायासे पाबे  ॥ ३.८७ ॥
भक्तेर मायावादीर सङ्ग अवश्य परित्याज्य

मायावादी सङ्ग तेङ्ह सतर्के छाडिया  ।
शुद्ध नाम परायण तुषिबे सेविया  ॥ ३.८८ ॥
एइ त तोमार आज्ञा श्रीकृष्णचैतन्य  ।
सेइ आज्ञा येइ पाले सेइ जीव धन्य  ॥ ३.८९ ॥
ये ना पाले तव आज्ञा सेइ जीव छार  ।
कोटी जन्मे किछुते इ ना हबे उद्धार  ॥ ३.९० ॥
कुसङ्ग छाडिये प्रभु राख तव पाय  ।
तव पादपद्म विना ना देखि उपाय  ॥ ३.९१ ॥
हरिदास पदद्वन्द्वे विनोद याहार  ।
हरिनामचिन्तामणि सदा गान तार  ॥ ३.९२ ॥

इति श्री हरिनामचिन्तामणौ नामाभासवर्णनं नाम
तृतीयः परिच्छेदः  ।

(४)
चतुर्थ परिच्छेद
नाम अपराधसाधु निन्दा

सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते
यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हाम्  ।

गदाधरप्राण जय जाह्नवाजीवन  ।
जय सीतानाथ श्रीवासादि भक्तजन  ॥ ४.१ ॥
प्रभु बले हरिदास एबे सविस्तारे  ।
नाम अपराध व्याख्या कर अतःपर  ॥ ४.२ ॥
हरिदास बले प्रभु मोरे या बलाबे  ।
ताहाइ बलिब आमि तोमार प्रभावे  ॥ ४.३ ॥
दशविध नामापराध

नाम अपराध दशविध शास्त्रे कय  ।
सेइ अपराधे मोर बड हय भय  ॥ ४.४ ॥
एक एक करि आमि बलिब सकल  ।
अपराधे वाङ्चि याते देह मोरे बल  ॥ ४.५ ॥
साधुनिन्दा अन्यदेव स्वातन्त्र्य मनन  ।
नाम तत्त्व गुरु आर शास्त्र विनिन्दन  ॥ ४.६ ॥
हरिनामे अर्थ वाद कल्पित मनन  ।
नामबले पाप श्रद्धाहीने नामार्पण  ॥ ४.७ ॥
अन्य शुभकर्मेर समान कृष्णनाम  ।
ए कथा बलिले अपराध अविश्राम  ॥ ४.८ ॥
नामेते अनवधान हय अपराध  ।
ताहाके पुराण कर्ता बलेन प्रमाद  ॥ ४.९ ॥
नामेर माहात्म्य जाने तबु नाहि भजे  ।
अहं मम आसक्तिते संसारेते मजे  ॥ ४.१० ॥

साधुनिन्दाइ प्रथम अपराध

साधुनिन्दा प्रथमापराध बलिऽ जानि  ।
एइ अपराधे जीवेर हय सर्व हानि  ॥ ४.११ ॥
स्वरूप ओ तटस्थ लक्षण भेदे साधु लक्षण द्वय विचार

साधुर लक्षण तुमि बलियाछ प्रभो  ।
एकादशे उद्धवेरे कृष्णरूपे विभो  ॥ ४.१२ ॥
दयालु सहिष्णु सम द्रोहशून्यव्रत  ।
सत्यसार विशुद्धात्मा परहिते रत  ॥ ४.१३ ॥
कामे अक्षुभित बुद्धि दान्त अकिञ्चन  ।
मृदु शुचि परिमितभोजी शान्तमन  ॥ ४.१४ ॥
अनीह धृतिमान् स्थिर कृष्णैकशरण  ।
अप्रमत्त सुगम्भीर विजित षड्गुण  ॥ ४.१५ ॥
अमानी मानद दक्ष अवञ्चक ज्ञानी  ।
एइ सब लक्षणेते साधु बलि जानि   ॥ ४.१६ ॥
एइ सब लक्षण प्रभो हय द्विप्रकार  ।
स्वरूप तटस्थ भेदे करिब विचार  ॥ ४.१७ ॥

स्वरूपलक्षणे प्रधान लक्षण, तद्आश्रये तटस्थ लक्षण उदय हय

कृष्णैकशरण हय स्वरूपलक्षण  ।
तटस्थ लक्षणे अन्य गुणेर गणन  ॥ ४.१८ ॥
कोन भाग्ये साधुसङ्गे नामे रुचि हय  ।
कृष्णनाम गाय करे कृष्णपादाश्रय  ॥ ४.१९ ॥
स्वरूप लक्षण सेइ हेत हेल  ।
गाइते गाइते नाम अन्य गुण आइल  ॥ ४.२० ॥
अन्य गुणगण ताइ तटस्थ गणन  ।
अवश्य वैष्णव देहे हबे सङ्घटन  ॥ ४.२१ ॥

वर्णाश्रम लिङ्ग, नानाप्रकार वेषद्वारा साधुत्व हय ना,
कृष्णैकशरणताइ साधुर लक्षण

वर्णाश्रम चिह्न नानावेषेर रचना  ।
साधुर लक्षणे कभु ना हय गणना  ॥ ४.२२ ॥
श्रीकृष्णशरणागति साधुर लक्षण  ।
तार मुखे हय कृष्णनामसङ्कीर्तन  ॥ ४.२३ ॥
गृही  ब्रह्मचारी वानप्रस्थ न्यासिभेदे  ।
शूद्र वैश्य क्षत्र विप्रगणेर प्रभेदे  ॥ ४.२४ ॥
साधुत्व कखन नाहि हेबे निर्णीत  ।
कृष्णैकशरण साधु शास्त्रेर विहित  ॥ ४.२५ ॥

गृहिसाधुलक्षण

रघुनाथदासे लक्ष्ये करिया सेवार  ।
गृहिसाधुजने शिखायेछ एइ सार  ॥ ४.२६ ॥
स्थिर हये घरे याओ ना हओ बातुल  ।
क्रमे क्रमे पाय लोक भवसिन्धुकुल  ॥ ४.२७ ॥
मर्कट वैराग्य छाड लोक देखाइया  ।
यथायोग्य विषय भुञ्ज अनासक्त हञा  ॥ ४.२८ ॥
अन्तरे निष्ठा कर बाह्ये लोक व्यवहार  ।
अचिरे श्रीकृष्ण तोमाय करिबे उद्धार  ॥ ४.२९ ॥
गृहत्यागी साधुलक्षण

पुनः तुमि तार देखि वैराग्य ग्रहण  ।
एइ मत शिक्षा दिले अपूर्व श्रवण  ॥ ४.३० ॥
ग्राम्यकथा ना शुनिबे ग्राम्यवार्ता ना कहिबे  ।
भाल ना खाइबे आर भाल ना परिबे  ॥ ४.३१ ॥
अमानी मानद हञा कृष्णनाम सदा लबे  ।
व्रजे राधाकृष्णसेवा मानसे करिबे  ॥ ४.३२ ॥
गृही ओ गृहत्यागी  उभयेरे स्वरूप लक्षण

स्वरूप लक्षण एक सर्वत्र समान  ।
आश्रमादि भेदे पृथक्तटस्थ विधान  ॥ ४.३३ ॥
अनन्यशरणे यदि देखि दुराचार  ।
तथापि से साधु बलि सेव्य सबाकार  ॥ ४.३४ ॥
एइ त श्रीकृष्णवाक्य गीताभागवते  ।
इहाके पूजिब यत्ने सदा सर्व मते  ॥ ४.३५ ॥
इहाते आछे त एक निगूढ सिद्धान्त  ।
कृपा करि जानायेछ ताइ पाइ अन्त  ॥ ४.३६ ॥

पूर्वपापेर गन्धावशेष ओ पूर्वपाप लक्ष्य करिया यिनि कृष्णैकशरण साधुर निन्दा करेन, तिनि नामापराधी

कृष्णनामे रुचि यबे हेबे उदय  ।
एक नामे पूर्व पाप हेबेक क्षय  ॥ ४.३७ ॥
पूर्वपाप गन्ध तबु थाके किछु दिन  ।
नामेर प्रभावे क्रम हञा पडे क्षीण  ॥ ४.३८ ॥
शीघ्र सेइ पापगन्ध विदूरित हय  ।
परम धर्मात्मा बलि हय परिचय  ॥ ४.३९ ॥
ये कयेक दिन सेइ गन्ध नाहि याय  ।
साधारण जन चक्षे पाप बलि भाय  ॥ ४.४० ॥
से पाप देखिया येइ साधुनिन्दा करे  ।
पूर्वपाप लक्षि पुनः अवज्ञा आचरे  ॥ ४.४१ ॥
सेइ त पाषण्डी वैष्णवेर निन्दा दोषे  ।
नाम अपराध मजि पडे कृष्णरोषे  ॥ ४.४२ ॥

कृष्णैकशरणताइ साधु लक्षण आपनाके साधु बलिया परिचय देओया दाम्भिकता

कृष्णैकशरण मात्र कृष्णनाम गाय  ।
साधुनामे परिचित कृष्णेर कृपाय  ॥ ४.४३ ॥
कृष्णभक्त व्यतीत नाहिक साधु आर  ।
आमि साधु बलि हय दम्भ अवतार  ॥ ४.४४ ॥
स्वल्पाक्षरे साधुनिर्णय

से बलिबे आमि दीन कृष्णैकशरण  ।
कृष्णनाम यार मुखे साधु सेइ जन  ॥ ४.४५ ॥
तृण हैते हीन बलि आपनाके जाने  ।
सहिष्णु तरुर न्याय आपनाके माने  ॥ ४.४६ ॥
निजे त अमानी आर सकले मानद  ।
तार मुखे कृष्णनाम कृष्णरतिप्रद  ॥ ४.४७ ॥

नामापराध वैष्णवे साधु, तद्देहे कृष्णशक्ति

हेन साधुमुखे यबे शुनि एक नाम  ।
वैष्णव बलिया तारे करिब प्रणाम  ॥ ४.४८ ॥
वैष्णव से जगद्गुरु जगतेर बन्धु  ।
वैष्णव सकल जीवे सदा कृपा सिन्धु  ॥ ४.४९ ॥
ए हेन वैष्णवनिन्दा येइ जन करे  ।
नरके पडिबे से जन्मजन्मान्तरे  ॥ ४.५० ॥
भक्ति लभिबारे आर नाहिक उपाय  ।
भक्ति लभे सर्वजीव वैष्णव कृपाय  ॥ ४.५१ ॥
वैष्णव देहेते थाके श्रीकृष्णेर शक्ति  ।
सेइ देह स्पर्शे अन्ये हय कृष्णभक्ति  ॥ ४.५२ ॥
वैष्णव अधरामृत आर पद जल  ।
वैष्णवेर पदरजः तिन महाबल  ॥ ४.५३ ॥
वैष्णवेर शक्ति सञ्चार

वैष्णवनिकटे यदि बैसे कतलक्षण  ।
देह हैते हय कृष्णशक्ति निःसरण  ॥ ४.५४ ॥
सेइ शक्ति श्रद्धावान् हृदये पशिया  ।
भक्तिर उदय करे देह काङ्पाइया   ॥ ४.५५ ॥
ये बसिल वैष्णवेर निकटे श्रद्धाय  ।
ताहार हृदये भक्ति हेबे उदय  ॥ ४.५६ ॥
प्रथमे आसिबे तार मुखे कृष्णनाम  ।
नामेर प्रभावे पाबे सर्वगुणग्राम  ॥ ४.५७ ॥
वैष्णवेर कि कि दोष धरिले वैष्णवनिन्दा हयजातिदोष पूर्वदोष नष्टप्राय अवशिष्ट दोष कादाचित्क दोष

वैष्णवेर जाति आर पूर्व दोष धरे  ।
कादाचित्क दोष देखि येइ निन्दा करे  ॥ ४.५८ ॥
नष्टप्राय दोष लये करे अपमान  ।
यमदण्डे कष्ट पाय से सब अज्ञान  ॥ ४.५९ ॥
वैष्णवेर मुखे नाममाहात्म्यप्रचार  ।
से वैष्णवनिन्दा कृष्ण नाहि सहे आर  ॥ ४.६० ॥
धर्म योग याग ज्ञानकाण्ड परिहरि  ।
ये भजिल कृष्णनाम सेइ सर्वोपरि  ॥ ४.६१ ॥
अन्य देव शास्त्र निन्दादिशून्य नामाश्रयी साधु

अन्यदेर अन्यशास्त्र ना करि निन्दन  ।
नामेर आश्रय लय शुद्ध साधुजन  ॥ ४.६२ ॥
से साधु गृहस्थ हो अथवा सन्न्यासी  ।
ताहार चरणरेणु पाइते प्रयासी  ॥ ४.६३ ॥
याब यत नामे रति से तत वैष्णव  ।
वैष्णवेर क्रम एइ मते अनुभव  ॥ ४.६४ ॥
इथे वर्णाश्रम धन पाण्डित्य यौवन  ।
कोन कार्य नाहि करे रूप बल जन  ॥ ४.६५ ॥
अतएव यिनि करिलेन नामाश्रय  ।
साधुनिन्दा छाडिबेन ए धर्म निश्चय  ॥ ४.६६ ॥
नामाश्रया शुद्धा भक्ति भक्त भक्तिरूपा  ।
भक्त भक्तिविवर्जिता हेले विरूपा  ॥ ४.६७ ॥
याङ्हा साधुनिन्दा ताङ्हा नाहि भक्ति स्थिति  ।
अतएव अपराधे तथा परिणति  ॥ ४.६८ ॥
साधुनिन्दा छाडि भक्त साधुभक्ति करे  ।
साधुसङ्ग साधुसेवा एइ धर्माचरे  ॥ ४.६९ ॥
असत्सङ्ग दुइ प्रकार, तन्मध्ये स्त्रीसङ्गी

असत्सङ्गत्यागे हय वैष्णवाचार  ।
असत्सङ्गे हय साध्ववज्ञा अपार  ॥ ४.७० ॥
असत्ये द्विप्रकार सर्वशास्त्रे कय  ।
सेइ दुइयेर मध्ये योषित्सङ्गी एक हय  ॥ ४.७१ ॥
योषित्सङ्गिसङ्गी पुनः तार मध्ये गण्य  ।
तार सङ्गत्यागे जीव हेबेक धन्य  ॥ ४.७२ ॥

योषित्सङ्गी काहाके बले

कृष्णेरे संसारे ये दाम्पत्य धर्म थाके  ।
असत्बलिया शास्त्र ना बले ताहाके  ॥ ४.७३ ॥
अधर्म संयोगे आर स्त्रैण भावे रत  ।
योषित्सङ्गी जन दुष्ट शास्त्रेर सम्मत  ॥ ४.७४ ॥
द्वितीय प्रकार असत्(कृष्णेते अभक्त) तिन प्रकार

कृष्णेते अभक्त  असत्द्वितीय प्रकार  ।
मायावादी धर्मध्वजी निरीश्वर आर  ॥ ४.७५ ॥

यिनि बलेन, एइ सब लोकेर निन्दाके ओ साधुनिन्दा बले तिन्यो वर्ज्य

वर्जिले ए सब सङ्ग साधुनिन्दा नय  ।
इहाके ये निन्दा बले सेइ वर्ज्य हय  ॥ ४.७६ ॥
एइ सब सङ्ग छाडि अनन्यशरण  ।
कृष्णनाम करि पाय कृष्णप्रेमधन  ॥ ४.७७ ॥
वैष्णवाभास, प्राकृतवैष्णव, वैष्णवप्राय ओ कनिष्ठवैष्णवैइ सकल एके कथा

साधुसेवाहीन अर्चे लौकिक श्रद्धाय  ।
प्राकृत वैष्णव हय वैष्णवेर प्राय  ॥ ४.७८ ॥
वैष्णवाभास सेइ नहे तऽ वैष्णव  ।
केमने पाइबे साधुसङ्गेर वैष्णव  ॥ ४.७९ ॥
अतएव कनिष्ठ मध्येते तारे गणि  ।
तारे कृपा करिबेन वैष्णव आपनि   ॥ ४.८० ॥
मध्यम वैष्णव

कृष्णप्रेम कृष्णभक्ते मैत्री आचरण  ।
बालिशेते कृपा आर द्वेषी उपेक्षण  ॥ ४.८१ ॥
करिले मध्यम भक्त शुद्ध भक्त हन  ।
कृष्णनाम्ने अधिकार करेन अर्जन  ॥ ४.८२ ॥
उत्तम वैष्णव

सर्वत्र याङ्हार हय कृष्णदरशन  ।
कृष्णे सकलेर स्थिति कृष्ण प्राण धन  ॥ ४.८३ ॥
वैष्णवावैष्णवभेद नाहि थाके ताङ्र  ।
वैष्णव उत्तम तिनि कृष्णनामसार  ॥ ४.८४ ॥
मध्यम वैष्णवे साधु सेवा करेन

अतएव मध्यम वैष्णव महाशय  ।
साधु सेवा रत सदा थाकेन निश्चय  ॥ ४.८५ ॥
प्राकृत वैष्णव नामाभासेर अधिकारी

प्राकृत वैष्णव येइ वैष्णवेर प्राय  ।
नामाभासे अधिकारी सर्वशास्त्र पाय  ॥ ४.८६ ॥
मध्यम वैष्णव नामाधिकारी ओ नामापराध विचार करिबेन

मध्यम वैष्णव मात्र नामे अधिकारी  ।
श्रीनामभजने अपराधेर विचारी  ॥ ४.८७ ॥
उत्तम वैष्णवे अपराध असम्भव  ।
सर्वत्र देखेन तिनि कृष्णेर वैभव  ॥ ४.८८ ॥
निज निज अधिकार करिया विचार  ।
साधुनिन्दा अपराध करि परिहार  ॥ ४.८९ ॥
साधु सङ्ग साधु सेवा नाम सङ्कीर्तन  ।
सर्व जीवे दया एइ भक्त आचरण  ॥ ४.९० ॥
साधु निन्दा घटिले कि करा कर्तव्य ?

प्रमादे यद्यपि घटे साधुविगर्हण  ।
तबे अनुतापे धरि से साधुचरण  ॥ ४.९१ ॥
काङ्दिया बलिब प्रभो क्षमि अपराध  ।
ए दुष्टनिन्दके कर वैष्णवप्रसाद  ॥ ४.९२ ॥
साधु बड दयामय तबे आर्द्रमने  ।
क्षमिबेन अपराध कृपा आलिङ्गने  ॥ ४.९३ ॥
एइ त प्रथम अपराधेर विचार  ।
श्रीचरणे निवेदिनु आज्ञा अनुसार  ॥ ४.९४ ॥
हरिदास पादपद्मे भ्रर ये जन  ।
हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन  ॥ ४.९५ ॥

इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ साधुनिन्दापराधविचारो
नाम चतुर्थः परिच्छेदः  ।

(५)
पञ्चम परिच्छेद

देवान्तरे स्वातन्त्र्यज्ञानापराध

शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुणनामादिसकलं
धिया भिन्नं पश्येत्स खलु हरिनामाहितकरः

जय गदाधरप्राण जाह्नवाजीवन  ।
जय सीतानाथ जय गौर भक्तजन  ॥ ५.१ ॥
हरिदास बले तबे करि योडहात  ।
द्वितीयापराध एबे शुन जगन्नाथ  ॥ ५.२ ॥
विष्णुतत्त्व

परम अद्वय ज्ञान विष्णु परतत्त्व  ।
चित्स्वरूप जगदीश सदा शुद्धसत्त्व  ॥ ५.३ ॥
गोलोकविहारी कृष्ण से तत्त्वेर सार  ।
चतुःषष्ठि गुणे अलङ्कृत रसाधार  ॥ ५.४ ॥
षष्ठिगुण नारायण स्वरूपे प्रकाश  ।
सेइ षष्ठिगुण विष्णुसामान्यविलास  ॥ ५.५ ॥
पुरुषावतारे आर स्वांश अवतारे  ।
सेइ षष्ठिगुण स्पष्ट कार्य अनुसारे  ॥ ५.६ ॥
विष्णुर विभिन्नांशेर प्रकार भेद जीवेर पञ्चाशद्गुण

विष्णुर ये विभिन्नांश दुइ त प्रकार  ।
पञ्चाशत्गुण जीवे बिन्दु बिन्दु आर  ॥ ५.७ ॥

गिरिशादि देवता विभिन्नांश हैयौ सामान्य जीव नन् ताङ्हारा पञ्चाशत्गुणविशिष्ट

गिरिशादि देवे एइ गुण पञ्चाशत् ।
तद्अधिक परिमाणे सर्वदा संयुत  ॥ ५.८ ॥
तद्व्यतीत आर पञ्च गुण अंश माने  ।
प्रकाशित आछे तबे विचित्रविधाने  ॥ ५.९ ॥

षष्ठिगुणे विष्णुत्व

सेइ पञ्च पञ्चाशत्गुणपूर्ण ताय  ।
विष्णुते विराजमान सर्व शास्त्रे गाय  ॥ ५.१० ॥
तद्व्यतीत आर पञ्चगुण नारायणे  ।
आछे तार सत्ता कभु नाहि अन्य जने  ॥ ५.११ ॥
षष्ठिगुणे विष्णुतत्त्व परम ईश्वर  ।
गिरिश आदि अन्यदेव ताङ्हार किङ्कर  ॥ ५.१२ ॥
विभिन्नांश गिरिशादि जीव श्रेष्ठतर  ।
विष्णु सर्वजीवेश्वर सर्वदेवेश्वर  ॥ ५.१३ ॥

अज्ञानव्यक्ति अन्य देवतार सहित विष्णुके समान मने करे

अन्यदेव सह सम विष्णुके ये माने  ।
से बड अज्ञान ईशतत्त्व नाहि जाने  ॥ ५.१४ ॥
ए जड जगते विष्णु परम ईश्वर  ।
गिरिशादि यत देव ताङ्र विधिकर  ॥ ५.१५ ॥
केह बले मायार त्रिगुणे त्रिदिवेश  ।
सर्वदा समान ब्रह्म तत्त्व सविशेष  ॥ ५.१६ ॥

नानाविध वादानुवादेर सिद्धान्त

शास्त्रेर सिद्धान्ते तबु पूज्य नारायण  ।
ब्रह्मा शिव सृष्टिलय कार्येर कारण  ॥ ५.१७ ॥
वासुदेव छाडि येइ अन्यदेवे भजे  ।
ईश्वर छाडिया सेइ संसारेते मजे  ॥ ५.१८ ॥
केह बले, ष्विष्णु परतत्त्व बटे जानि  ।
सर्वविष्णुमय विश्व वेदवाक्य मानि  ॥ ५.१९ ॥
अतएव सर्वदेवे विष्णु अधिष्ठान  ।
सर्व देवार्चने हय विष्णुर समान  ॥ ५.२० ॥
एइ त निषेधपर वाक्य विधि नय  ।
अन्य देव पूजार निषेध एइ हय  ॥ ५.२१ ॥
सर्व विष्णुमय विश्व ए कथा बलिले  ।
विष्णुपूजा कैले सब देवे पूजा मिले  ॥ ५.२२ ॥
तरुमूले जल दिले शाखार उल्लास  ।
पल्लवे ढालिले जल वृक्षेर विनाश  ॥ ५.२३ ॥
अतएव पूजि विष्णु अन्यदेव त्यजि  ।
ताहातेइ अन्यदेव काजे काजे पूजि  ॥ ५.२४ ॥
एइ विधि  देवेर सम्मत चिरदिन  ।
दुर्विपाके एइ विधि छाडे अर्वाचीन  ॥ ५.२५ ॥
मायावाददोषे जीव कलि आगमने  ।
बहुदेव पूजे विष्णुसामान्यदर्शने  ॥ ५.२६ ॥
एक एक देव एक एक फल दाता  ।
सर्व फल दाता विष्णु सकलेर पाता  ॥ ५.२७ ॥
कामि जन यदि तत्त्व जानिबारे पारे  ।
विष्णु पूजि फल पाय छाडे देवान्तरे  ॥ ५.२८ ॥

गृहस्थ वैष्णवेर कर्तव्य विधान

गृहस्थ हेया येइ विष्णुभक्त हय  ।
सर्वकार्ये कृष्ण पूजे छाडिया संशय  ॥ ५.२९ ॥
निषेकादि श्मशानान्त संस्कार यत  ।
ताहाते पूजये कृष्ण वेद मन्त्र मत  ॥ ५.३० ॥
विष्णु वैष्णवेर पूजा वेदेते विधान  ।
देवपितृगणे कृष्ण निर्माल्य प्रदान  ॥ ५.३१ ॥
मायावादिमते पितृश्राद्ध येइ करे  ।
येवा अन्यदेव पूजे अपराधे मरे  ॥ ५.३२ ॥
विष्णुतत्त्वे द्वैतबुद्धि नाम अपराध  ।
सेइ अपराधे तार हय भक्ति बाध  ॥ ५.३३ ॥
शिवादि देवता गणे पृथकीश्वर  ।
मानिले नामापराध हय भयङ्कर  ॥ ५.३४ ॥
विष्णुशक्ति परा शक्ति हैते देव यत  ।
भिन्न शक्ति सिद्ध नय वेदेर सम्मत  ॥ ५.३५ ॥
शिवब्रह्मागणपतिसूर्यदिक्पाल  ।
कृष्णशक्तिबलेते ईश्वर चिरकाल  ॥ ५.३६ ॥
अतएव परेश्वर एकमात्र जानि  ।
आर सब देवे ताङ्र शक्तिमध्ये गणि  ॥ ५.३७ ॥
अतएव सर्वकार्ये कर्म जड भाव  ।
छाडिया गृहस्थ पाय भक्तिर सद्भाव  ॥ ५.३८ ॥

कि रूप वैष्णव गार्हस्थ्य धर्म करिबेन्

भक्तिर सद्भावे थाकि सत्क्रिया करणे  ।
देवपितृगणे तुषे निर्माल्य अर्पणे  ॥ ५.३९ ॥
बहु देवदेवी पूजा करिबे वर्जन  ।
कृष्णभक्त बलि सबे करिबे तर्पण  ॥ ५.४० ॥
श्रीकृष्ण वैष्णवार्चने सर्व फल पाय  ।
नामे अपराध नहे सदा नाम गाय  ॥ ५.४१ ॥

वर्णचतुष्टयेर जीवन यात्रा विधि

जगते मानवगण वर्णधर्माचरि  ।
करिबेक जीवनयात्रा धर्म पथ धरि  ॥ ५.४२ ॥
अन्त्यजेर विधि

सङ्कर अन्त्यज सबे त्यजि नीचधर्म  ।
शूद्राचार करे सदा संसारेर कर्म  ॥ ५.४३ ॥
सङ्कर अन्त्यज थाकिबेक शूद्राचारे  ।
चातुर्वर्ण विना धर्म नाहिक संसारे  ॥ ५.४४ ॥

वर्णधर्मेर द्वारा जीवनयात्रा करिया संसारि व्यक्ति भक्तिपथे भावार्जन करिबेन्

चातुर्वर्ण वर्णधर्मे करिबे संसार  ।
शुद्ध कृष्णभक्ति बले हबे सदाचार  ॥ ५.४५ ॥
चातुर्वर्ण यद्यपि श्रीकृष्ण नाहि भजे  ।
वर्णधर्माचारे थाकि रौरवेते मजे  ॥ ५.४६ ॥
वर्ण विना गृहस्थेर नाहि आर धर्म  ।
वर्ण धर्माचारे गृहस्थेर सब कर्म  ॥ ५.४७ ॥
वर्णधर्मे ए संसार निर्वाह करिबे  ।
यावदर्थ परिग्रहे श्रीकृष्ण भजिबे  ॥ ५.४८ ॥
निसर्गतः विधिवाक्य ये पर्यन्त नर  ।
वर्णधर्म स्वनिर्वाहे करिबे आदर  ॥ ५.४९ ॥
भक्तियोगनामे एइ तत्त्वनिरूपण  ।
भक्तियोगे भावोदय सिद्धान्तवचन  ॥ ५.५० ॥
भावोदये विधिर प्रवृत्ति नाहि रय  ।
भावोदित कार्ये देहयात्रा सिद्ध हय  ॥ ५.५१ ॥
गृहिवैष्णवेर एइ अद्वयसाधन  ।
श्रीविष्णु अद्वयतत्त्वे द्वैतनिवर्तन  ॥ ५.५२ ॥

नामनामी ओ गुणगुणीर अभेदे विष्णुज्ञान शुद्ध हय

आर एक कथा आछे द्वैतनिवर्तने  ।
विष्णुनाम विष्णुरूप विष्णुगुणगणे  ॥ ५.५३ ॥
विष्णु हैते पृथग्रूपे ना मानिबे कभु  ।
अद्वय अखण्ड विष्णु चिन्मयत्वे विभु  ॥ ५.५४ ॥
अज्ञानेते यदि हय द्वैत उपद्रव  ।
नामाभास हय तार प्रेम असम्भव  ॥ ५.५५ ॥
सद्गुरुकृपाय सेइ अनर्थ विनाश   ।
भजिते भजिते शुद्धनामेर प्रकाश  ॥ ५.५६ ॥
मायावादीर कुतर्क ओ अपराध

मतवादज्ञाने द्वैत हैल प्रवर्तन  ।
अपराध हय आर नहे निवर्तन  ॥ ५.५७ ॥
मायावादी बले ब्रह्म हय परतत्त्व  ।
निर्विशेष निर्विकार निराकार सत्त्व  ॥ ५.५८ ॥
विष्णुरूप विष्णुनाम मायाय कल्पित  ।
माया अन्तर्धाने विष्णु हन ब्रह्मगत  ॥ ५.५९ ॥
ए सब कुतर्क मात्र सत्य शून्यवाद  ।
परतत्त्वे सर्वशक्ति अभावप्रमाद  ॥ ५.६० ॥
शक्तिमान् ब्रह्म येइ सेइ विष्णु हय  ।
नामेर विवादमात्र वेदेर निर्णय  ॥ ५.६१ ॥
विष्णु ओ ब्रह्मतत्त्वेर सम्बन्ध

विष्णु परतत्त्व ताङ्र निर्विशेष धर्म  ।
सविशेष धर्म सह हय एक मर्म  ॥ ५.६२ ॥
विष्णुर अचिन्त्यशक्ति विरोधभञ्जन  ।
अनायासे करि करे सौन्दर्य स्थापन  ॥ ५.६३ ॥
जीवबुद्धि सहजेते अति अल्पतर  ।
अचिन्त्यशक्तिर भाव ना करे गोचर  ॥ ५.६४ ॥
निजबुद्ध्ये चाहे एक स्थापिते ईश्वर  ।
खण्डज्ञाने पाय ब्रह्मतत्त्वेते अवर  ॥ ५.६५ ॥
विष्णुर परम पद छाडि देवार्चित  ।
ब्रह्मे बद्ध हय नाहि बुझे हिताहित  ॥ ५.६६ ॥
चिन्मयस्वरूपज्ञान ये बुझिते जाने  ।
विष्णु  विष्णुनामगुण एक करि माने  ॥ ५.६७ ॥
एइ त विशुद्ध ज्ञान श्रीकृष्णस्वरूप  ।
सम्बन्ध बुद्धिते लभि भजे नामरूप  ॥ ५.६८ ॥
शिव ओ विष्णुर कि रूपे अभेदबुद्धि करिबे

जडनाम जडरूपगुणे येइ भेद  ।
से भेद चित्तत्त्वे नाइ एइ त प्रभेद  ॥ ५.६९ ॥
विष्णुतत्त्वे भेदज्ञान अनर्थ विकार  ।
शिवेते विष्णुते भेद अति अविचार  ॥ ५.७० ॥
भक्त ओ मायावादीर आचार ओ प्रवृत्ति भेद

नामैकशरण येइ भक्ति महाजन  ।
एकेश्वर कृष्णे भजि छाडे अन्य जन  ॥ ५.७१ ॥
अन्यदेव अन्यशास्त्र निन्दा नाहि करे   ।
कृष्णदास बलि अन्ये पूजे समादरे  ॥ ५.७२ ॥
प्रतिदिन गृहिभक्त निर्माल्य अर्पणे  ।
देव पितृ सर्व जीवे करेन तर्पणे  ॥ ५.७३ ॥
यथा यथा अन्य देवे करेन दर्शन  ।
कृष्णदास बलि ताङ्रे करेन वन्दन  ॥ ५.७४ ॥
मायावादिगण यदि विष्णुपूजा करे  ।
प्रसाद निर्माल्य भक्त नाहि लय डरे  ॥ ५.७५ ॥
मायावादी हरिनामे अपराधी हय  ।
ताहार प्रदत्त पूजा हरि नाहि लय  ॥ ५.७६ ॥
अन्यदेवनिर्माल्य ग्रहणे अपराध  ।
शुद्ध भक्ति साधने सर्वदा साधे बाध  ॥ ५.७७ ॥
तबे यदि शुद्ध भक्त श्रीकृष्ण पूजिया  ।
अन्य देवे पूजा करे तत्प्रसाद दिया  ॥ ५.७८ ॥
से प्रसाद ग्रहणेते नाहि अपराध  ।
सेइ रूप देवार्चने नाहि भक्तिबाध  ॥ ५.७९ ॥
शुद्धभक्त नाम अपराधी नाहि हय  ।
नाम करिऽ प्रेम पाय नामे देय जय  ॥ ५.८० ॥
एइ अपराधेर प्रतिकार

प्रमादे यद्यपि हय अन्ये विष्णुज्ञान  ।
तबे अनुतापे करि विष्णुतत्त्वध्यान  ॥ ५.८१ ॥
श्रीविष्णु स्मरिया करि अपराध क्षय  ।
यत्ने देखि आर ना से अपराध हय  ॥ ५.८२ ॥
पूर्व दोष क्षमा शील भक्तेर बान्धव  ।
दयार सागर कृष्ण क्षमार अर्णव  ॥ ५.८३ ॥
बहु देव सेवि सङ्ग करिब वर्जन  ।
एकेश्वर वैष्णवेर करिब पूजन  ॥ ५.८४ ॥
हरिदास पदे भक्तिविनोद ये जन  ।
हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन  ॥ ५.८५ ॥

इति श्री हरिनामचिन्तामणौ देवान्तरे स्वातन्त्र्यज्ञानआपराध
नाम पञ्चमः परिच्छेदः  ।

 

(६)
षष्ठ परिच्छेद
गुर्व्अवज्ञा

गुरोरवज्ञा

पञ्चतत्त्व जय जय श्रीराधामाधव  ।
जय नवद्वीप व्रज यमुना वैष्णव  ॥ ६.१ ॥
हरिदास बले प्रभु करि निवेदन  ।
तृतीयापराध नामे ये रूपे घटन  ॥ ६.२ ॥
विस्तारि बलिब आमि तोमारि आज्ञाय  ।
येइ सब अपराध गुरु अवज्ञाय  ॥ ६.३ ॥

बहु योनि भ्रमि     मानवशरीर
दुर्लभ शुभद अति  ।
तथापि अनित्य    पाइलेक येइ
यावत्जीवने स्थिति  ॥ ६.४ ॥
परम मङ्गल     लभिबारे तरे
यदि ना यतन करे  ।
पुनराय भवे      अनित्य शरीर
लभिया आबार मरे  ॥ ६.५ ॥
सुबोध ये हय     दुर्लभ नृदेह
लभिया भव संसारे  ।

संसारी जीव अवश्य सद्गुरु आश्रय करिबे

गुरु कर्णधार     समाश्रय करि
कृष्ण आनुकूल्ये तरे  ॥ ६.६ ॥
शान्त कृष्णभक्त     लक्षण ये गुरु
सदैन्य वचने ताङ्रे  ।
सन्तोष करिया     कृष्णदीक्सा लय
याय संसारेर पारे  ॥ ६.७ ॥
सहजे जीवेर    आछे कृष्णे मति
वृथा तर्के ताहा याय  ।
वितर्क छाडिया    सुमति आश्रये
गुरु हते मन्त्र पाय  ॥ ६.८ ॥
गृही जीवगण    वर्णाश्रमे थाकि
सद्गुरु आश्रय करे  ।
ब्राह्मणादि उच्चवर्णे सत्पात्र थाकिले तिनि हैबार योग्य

ब्राह्मण आचार्य    सर्ववर्णे हय
यदि कृष्ण भक्ति धरे  ॥ ६.९ ॥
ब्राह्मण कुलेते     सुपात्र अभावे
अन्य कुले दीक्षा पाय  ।
उच्च वर्ण गुरु    गृहीर उचित
गुरु शिष्य परीक्षाय  ॥ ६.१० ॥
वर्णविचार अपेक्षा सुपात्रेर विचार अधिक श्रेयः

कृष्ण तत्त्व वेत्ता      प्रकृत ये हय
से हेते पारे गुरु  ।
किबा विप्र शूद्र     कि गृही सन्न्यासी
गुरु हन कल्पतरु  ॥ ६.११ ॥
वर्णेर मर्यादा     पात्रेर विचारे
परमार्थे लघु अति  ।
सुपात्र मिलन     प्रयोजन सदा
यदि चाइ शुद्धा रति  ॥ ६.१२ ॥
सुपात्रेर प्राप्ति     मूल प्रयोजन
पवित्र सुवर्ण हेन  ।
ताहे उच्च वर्ण     लभिले संयोग
सोहागा सुवर्णे येन  ॥ ६.१३ ॥
गृहत्यागी अगृहिगुर्वाश्रय करिते पारेन्

ये कोन कारणे     सेइ गृहि धर्म
छाडि अन्याश्रम लय  ।
ताहे परमार्थ    ना पाइया शेषे
साधु गुरु अन्वेषय  ॥ ६.१४ ॥
ताहार पक्षेते    अगृही आचार्य
प्रशस्त सकल मते  ।
ताङ्र दीक्षा शिक्षा     पाइया से जन
भासे नामरसामृते  ॥ ६.१५ ॥
गृहिभक्ति गृहत्याग करिले ओ पूर्वगुरु त्याग करिते हय ना

गृही भक्तजने     विराग लभिले
छाडये संसार विधि  ।
तबु पूर्वगुरु     चरण आश्रय
करिबे जीवनावधि  ॥ ६.१६ ॥
गृहि जन मध्ये     गृहि गुरु शस्त
यदि शुद्ध भक्त हन  ।
नतुवा अगृही    सुयोग्य हेले
गुरुयोग्य सर्वक्षण  ॥ ६.१७ ॥
सद्गुरु पाइया     भजिए भजिते
भावेर उदय यबे  ।
संसार विरक्ति     संसार छाडिया
वैरागी हेबे तबे  ॥ ६.१८ ॥
यिनि वैराग्य आश्रये लेबेन तिनि वैरागी गुरु करिबेन्

वैराग्य आश्रम     ग्रहणेते त्यागी
पुरुष हेबे गुरु  ।
ताङ्हार चरणे    शिखिबे विराग
गुरु शिक्षा कल्प तरु  ॥ ६.१९ ॥
दीक्षा ओ शिक्षा गुरु उभयके इ समान सम्मान करा आवश्यक

दीक्षा शिक्षा भेदे     गुरु दुऽ प्रकार
उभये समान मान  ।
अर्पिबे सुजन    परमार्थ धन
अनायासे यदि चान्  ॥ ६.२० ॥
कृष्णनाम मन्त्र      देन दीक्षा गुरु
शिक्षा गुरु तत्त्व दाता  ।
वैष्णव सकल     शिक्षा गुरु हन
सर्व शुभ जनयिता  ॥ ६.२१ ॥
सम्प्रदायेर आदिगुरुर शिक्षा अवलम्बन करिया आचरण करिबे

साधु सम्प्रदाये     आचार्य सकल
शिक्षा गुरु प्रतिष्ठित  ।
आद्याचार्य यिनि     गुरु शिरोमणि
पूजि ताङ्रे यथोचित  ॥ ६.२२ ॥
ताङ्र सुसिद्धान्त    अनुगत हये
ना मानिब अन्य शिक्षा  ।
ताङ्हार आदेश     पालिब यतने
ना लेब अन्य दीक्षा  ॥ ६.२३ ॥
सम्प्रदाय गुरु वरण करा कर्तव्य

सम्प्रदाय गुरुगणे शिक्षा गुरु जानि  ।
अन्यमत पण्डितेर शिक्षा नाहि मानि  ॥ ६.२४ ॥
सेइ मते सुशिक्षित साधु सुचरित  ।
दीक्षा गुरु योग्य सदा जाने सुपण्डित  ॥ ६.२५ ॥
मायावादीर निकट कृष्णमन्त्र लेले परमार्थ हय ना

मायावादिमते थाके कृष्ण मन्त्र लय  ।
तार परमार्थ लाभ कभु नाहि हय  ॥ ६.२६ ॥
शुद्धभक्त व्यतीत अन्यके गुरु करिबे ना

ये अन्याय शिखे येइ शिक्षा देय आर  ।
उभये नरके याय ना पाय उद्धार  ॥ ६.२७ ॥
शुद्ध भक्ति छाडि यिनि शिखिलेन बाद  ।
ताङ्हार जीवन मात्र वाद विसंवाद  ॥ ६.२८ ॥
से केमने गुरु हबे उद्धारिबे जीवे  ।
आपनि असिद्ध अन्ये किबा शुभ दिबे  ॥ ६.२९ ॥
अतएव शुद्ध भक्त ये से केने नय  ।
उपयुक्त गुरु हय सर्वशास्ते कय  ॥ ६.३० ॥
गुरु तत्त्व
दीक्षा गुरु शिक्षा गुरु दुङ्हे कृष्ण दास  ।
दुङ्हे व्रज जन कृष्ण शक्तिर प्रकाश  ॥ ६.३१ ॥
गुरुके सामान्य जीव ना जानिबे कभु  ।
गुरु कृष्ण शक्ति कृष्णप्रेष्ठ नित्य प्रभु  ॥ ६.३२ ॥
एइ बुद्धि सह सदा गुरु भक्ति करे  ।
सेइ गुरुभक्ति बले संसारेते तरे  ॥ ६.३३ ॥
गुरु पूजा

अग्रे गुरु पूजा परे श्री कृष्ण पूजन  ।
गुरुदेवे श्रीकृष्ण प्रसाद समर्पण  ॥ ६.३४ ॥
गुरु आज्ञा लये कृष्ण पूजिबे यतने  ।
श्री गुरु स्मरिया कृष्ण बलिबे वदने  ॥ ६.३५ ॥
गुरुते कि रूपे श्रद्धा करा उचित

गुरुते अवज्ञा यार तार अपराध  ।
सेइ अपराधे तार हय भक्ति बाध  ॥ ६.३६ ॥
गुरु कृष्ण वैष्णवेते सम भक्ति करि  ।
नामाश्रये शुद्ध भक्त शीघ्र याय तरि  ॥ ६.३७ ॥
गुरुते अचला श्रद्धा करे येइ जन  ।
शुद्ध नाम बले सेइ पाय प्रेम धन  ॥ ६.३८ ॥
कोन् स्थाने गुरु त्याग करिते हेबे

तबे यदि ए रूप घटना कभु हय  ।
असत्सङ्गे गुरुर योग्यता हय क्षय  ॥ ६.३९ ॥
प्रथमे छिलेन तिनि सद्गुरु प्रधान  ।
परे नाम अपराधे हञा हत ज्ञान  ॥ ६.४० ॥
वैष्णवे विद्वेष करि छाडे नाम रस  ।
क्रमे क्रमे हन अर्थ कामिनीर वश  ॥ ६.४१ ॥
सेइ गुरु छाडि शिष्य श्रीकृष्णकृपाय  ।
सद्गुरु लभिया पुनः शुद्ध नाम गाय  ॥ ६.४२ ॥
गुरु शिष्य सम्बन्धेर पूर्वेई परस्परेर परीक्षा

अयोग्य शिष्येरे गुरु करिबेन् दण्ड  ।
भजिया अयोग्य गुरु शिष्य हय पण्ड  ॥ ६.४३ ॥
दुङ्हेर योग्यता यत दिन स्थिर रय  ।
परस्पर सम्बन्ध कखन त्यज्य नय  ॥ ६.४४ ॥
शुद्ध गुरु परीक्षा करिया वरण करिबे

सद्गुरुर प्रति येइ अवज्ञा आचरे  ।
से पापिष्ठ अपराधी सर्वत्र संसारे  ॥ ६.४५ ॥
अतएव प्रथमे विशेष यत्न करि  ।
शुद्ध भक्ते लेबेन गुरुरूपे वरि  ॥ ६.४६ ॥
गुरु त्याग क्लेश येन कभु नाहि घटे  ।
ए रूप चिन्तिले कभु ना पडे सङ्कटे  ॥ ६.४७ ॥
गुरु यथा भक्तिहीन शिष्य तार प्राय  ।
अतएव शुद्ध गुरु लबे परीक्षाय  ॥ ६.४८ ॥
सद्गुरु अवज्ञा अपराध भयङ्कर  ।
एइ अपराधे नष्ट हय देव नर  ॥ ६.४९ ॥
गुरु सेवार प्रक्रिया

गुरु शय्यासन आर पादुकादि यान  ।
पाद पीठ स्नानोदक छायार लङ्घन  ॥ ६.५० ॥
गुरुर अग्रेते अन्य पूजा द्वैत ज्ञान  ।
दीक्षा व्याख्या प्रभुत्वादि करिबे वन्दन  ॥ ६.५१ ॥
यथा यथा गुरुर पाइबे दरशन  ।
दण्डवत्पडि भूमे करिबे वन्दन  ॥ ६.५२ ॥
गुरु नाम भक्तिते करिबे उच्चारण  ।
गुरु आज्ञा हेला ना करिबे कदाचन  ॥ ६.५३ ॥
गुरुर प्रसाद सेवा अवश्य करिबे  ।
गुरुर अप्रिय वाक्य कभु ना कहिबे  ॥ ६.५४ ॥
गुरुर चरणे दैन्ये लेबे शरण  ।
करिबे गुरुर सदा प्रिय आचरण  ॥ ६.५५ ॥
ए रूप आचारे कृष्ण नाम सङ्कीर्तने  ।
सर्व सिद्धि हय प्रभो बले श्रुति गणे  ॥ ६.५६ ॥
नाम गुरु प्रति यदि अवज्ञा घटये  ।
दुष्ट सङ्गे दुष्ट शास्त्र मत समाश्रये  ॥ ६.५७ ॥
तबे सेइ सङ्ग सेइ शास्त्र दूर करि  ।
विलाप करिब सेइ गुरु पदे धरि  ॥ ६.५८ ॥
कृपा करि गुरुदेव हेबे सदय  ।
नामे प्रेम दिबे से वैष्णव दयामय  ॥ ६.५९ ॥
हरिदास पद रेणु भरसा याहार  ।
नाम चिन्तामणि गाय तृणाधिक छार  ॥ ६.६० ॥

इति श्री हरिनामचिन्तामणौ गुर्व्अवज्ञाविचारो
नाम षष्ठः परिच्छेदः  ।

 

(७)
सप्तम परिच्छेद

श्रुतिशास्त्रनिन्दनम्

जय जय गदाइ गौराङ्ग नित्यानन्द  ।
जय सीतापति जय गौरभक्तवृन्द  ॥ ७.१ ॥
हरिदास बले प्रभु चतुर्थापराध  ।
श्रुतिशास्त्रविनिन्दन भक्तिरसबाध  ॥ ७.२ ॥
आम्नाये एकमात्र प्रमाण

श्रुतिशास्त्र वेद उपनिषत्पुराण  ।
कृष्णनिश्वसित हय सर्वत्र प्रमाण  ॥ ७.३ ॥
विशेषतः अप्राकृततत्त्वे ज्ञान यत  ।
सकलि आम्नाय सिद्ध ताहे हे रत  ॥ ७.४ ॥
जडातीत वस्तु इन्द्रियेर अगोचर  ।
कृष्णकृपा विना ताहा ना हय गोचर  ॥ ७.५ ॥
करणापटव भ्रम विप्रलिप्सा आर  ।
प्रमाद सर्वत्र नर ज्ञाने दोष एइ चार  ॥ ७.६ ॥
सेइ सब दोष शून्य वेद चतुष्टय  ।
वेद विना परमार्थे गति नाहि हय  ॥ ७.७ ॥
माया बद्ध जीवे कृष्ण बहु कृपा करि  ।
वेद पुराणादि दिल आर्ष ज्ञान धरि  ॥ ७.८ ॥
आम्नाय हैते दश मूल शिक्षा प्रमेय नयटा

सेइ श्रुति शास्त्रे जानि कर्म ज्ञान छार  ।
निर्मल भक्तिते मात्र पाइ सर्व सार  ॥ ७.९ ॥
माया मूढ जीवे कर्म ज्ञाने शुद्ध करि  ।
शुद्ध भक्ति अधिकार शिखाइला हरि  ॥ ७.१० ॥
प्रमाण से वेद वाक्य नयटी प्रमेय  ।
शिखाय सम्बन्ध प्रयोजन अभिधेय  ॥ ७.११ ॥
एइ दश मूल सार अविद्या विनाश  ।
करिया जीवेर करे सुविद्या प्रकाश  ॥ ७.१२ ॥
१. हरि एक पर तत्त्व, २. तिनि सर्व शक्तिमान्, ३. तिनि रस मूर्ति

प्रथमे शिखाय पर तत्त्व एक हरि  ।
श्याम सर्वशक्तिमान् रसमूर्तिधारी  ॥ ७.१३ ॥
जीवेर परमानन्द करेन विधान  ।
संव्योम धामेते तार नित्य अधिष्ठान  ॥ ७.१४ ॥
ए तिन प्रमेय हय श्रीकृष्णविसये  ।
वेदशास्त्र शिक्षा देन जीवेर हृदये  ॥ ७.१५ ॥
४. जीवतत्त्व

द्वितीये शिखाय विभिन्नांश जीव तत्त्व  ।
अनन्त सङ्ख्यक चित्परमाणु सत्त्व  ॥ ७.१६ ॥
५. नित्यबद्ध ओ  ६. नित्य मुक्त भेदे जीव दुइ प्रकार

नित्य बद्ध नित्य मुक्त भेदे जीव द्विप्रकार  ।
संव्योम ब्रह्माण्ड भरि संस्थिति ताहार  ॥ ७.१७ ॥
बद्ध जीव

बद्ध जीव माया भजि कृष्ण बहिर्मुख  ।
अनन्त ब्रह्माण्डे भोग करे दुःख सुख  ॥ ७.१८ ॥
मुक्त जीव

नित्य मुक्त कृष्ण भजि कृष्ण पारिषद  ।
पर व्योमे भोग करे प्रेमेर सम्पद  ॥ ७.१९ ॥
तिनटी प्रमेय एइ जीवेर विषये  ।
श्रुति शास्त्र शिक्षा देन कृष्ण दासी हये  ॥ ७.२० ॥
७. अचिन्त्य भेदाभेद सम्बन्ध

चिद्व्यापार आर यत जडेर व्यापार  ।
सकलि अचिन्त्य भेदाभेद प्रकार  ॥ ७.२१ ॥
जीव जड सर्व वस्तु कृष्ण शक्ति मय  ।
अविचिन्त्य भेदाभेद श्रुति शास्त्रे कय  ॥ ७.२२ ॥
एइ ज्ञाने जीव जाने आमि कृष्ण दास  ।
कृष्ण मोर नित्य प्रभु चित्सूर्य प्रकाश  ॥ ७.२३ ॥
शक्ति परिणाम मात्र वेद शास्त्र बले  ।
विवर्तादि दुष्टमते वेद निन्दे छले  ॥ ७.२४ ॥
सातटी प्रमेय सम्बन्ध ज्ञान

एइ त सम्बन्ध ज्ञान सातटी प्रमेय  ।
श्रुतिशास्त्र शिक्षा देन अति उपादेय  ॥ ७.२५ ॥
वेद पुनः शिक्षा देन अभिधेय सार  ।
नव विध कृष्ण भक्ति विधि राग आर  ॥ ७.२६ ॥
८. अभिधेय  नव विध भक्ति

श्रवण कीर्तन स्मृति पूजन वन्दन  ।
परिचर्या दास्य सख्य आत्मनिवेदन  ॥ ७.२७ ॥
भक्तिर प्रकार मध्ये नाम सर्वसार  ।
प्रणवमाहात्म्य वेद करेन प्रचार  ॥ ७.२८ ॥
९. प्रयोजन कृष्ण प्रेम

शुद्ध भक्ति समाश्रय करिया मानव  ।
कृष्ण कृपा बले पाय प्रेमेर वैभव  ॥ ७.२९ ॥
एइ श्रुति शिक्षा निन्दा अपराध

ए नव प्रमेय श्रुति करेन प्रमाण  ।
श्रुति तत्त्वाभिज्ञ गुरु करेन सन्धान  ॥ ७.३० ॥
ए हेन श्रुतिर येइ करे विनिन्दन  ।
नाम अपराधी सेइ नराधम जन  ॥ ७.३१ ॥
वेद विरुद्ध वाद समूह

जैमिनि कपिल नग्न नास्तिक सुगत  ।
गौतम  ए छय जन हेतु वादे रत  ॥ ७.३२ ॥
वेद माने मुखे तबु ईश नाहि माने  ।
कर्म काण्ड श्रेष्ठ बलि जैमिन् बाखाने  ॥ ७.३३ ॥
ईश्वर असिद्ध कपिलेर कल्पनाय  ।
तबु योग माने अर्थ बुझा नाहि याय  ॥ ७.३४ ॥
नग्न से तामस तत्त्व करय विस्तार  ।
वेदेर विरुद्ध धर्म करये प्रचार  ॥ ७.३५ ॥
नास्तिक चार्वाक कभु वेद नाहि माने  ।
सुगत बौद्धेरा एक प्रकार बाखाने  ॥ ७.३६ ॥
गौतम न्यायेर कर्ता ईश्वर ना भजे  ।
तार हेतु वाद मते नर मात्र मजे  ॥ ७.३७ ॥
एइ सब मतवाद द्वारा श्रुतिनिन्दा हय

एइ सब दुष्ट मते श्रुतिर निन्दन  ।
कभु स्पष्ट कभु गुप्त बुझे विज्ञ जन  ॥ ७.३८ ॥
एइ सब मते थाकि अपराधी हय  ।
अतएव एइ सबे त्यजिबे निश्चय  ॥ ७.३९ ॥
मायावादी अति दुष्ट मत  वेद विरुद्ध

एइ सब कुमत छाडि आर मायावाद  ।
शुद्ध भक्ति अनुभवि हय निर्विवाद  ॥ ७.४० ॥
मायावाद असत्शास्त्र गुप्त बौद्ध मत  ।
वेदार्थ विकृति कलि कालेते सम्मत  ॥ ७.४१ ॥
उमापति ब्राह्मण रूपेते प्रकाशिल  ।
तोमार आज्ञाय तेङ्ह आचार्य हेल  ॥ ७.४२ ॥
जैमिनि ये रूप मुखे वेद मात्र माने  ।
श्रुतिर विकृत अर्थ जगते बाखाने  ॥ ७.४३ ॥
मायावादी गुरु सेइ रूप बौद्ध धर्म  ।
वेद वाक्ये स्थापि आच्छादिल भक्ति मर्म  ॥ ७.४४ ॥
एइ सब मतवादे भक्ति दूरे याय  ।
श्रीकृष्णनामेते जीव अपराध पाय  ॥ ७.४५ ॥
श्रुतिविचारे शुद्ध प्रक्रिया

श्रुतिर अभिधा वृत्ति करि संयोजन  ।
शुद्ध भक्ति जीव पाय प्रेम धन  ॥ ७.४६ ॥
श्रुतिते लक्षणा करे अयथा प्रकारे  ।
नित्य सत्य दूरे याय अपराधे मरे  ॥ ७.४७ ॥
सर्व वेद सम्मत प्रणव कृष्ण नाम  ।
सेइ नामे जीव सब पाय नित्य धाम  ॥ ७.४८ ॥
प्रणव से महावाक्य हय कृष्ण नाम  ।
ताहाते इ श्रीभक्तेर सतत विश्राम  ॥ ७.४९ ॥
वेद बले नाम चित्स्वरूप जगते  ।
नामेर आभासे सिद्ध हय सर्व मते  ॥ ७.५० ॥

वेद केवल शुद्ध नाम भजन शिक्षा देन

एइ सब वेद शिक्षा अभागा ना माने  ।
नामे अपराध करे वेदेर निन्दने  ॥ ७.५१ ॥
शुद्ध नाम परायण येइ महाजन  ।
वेदाश्रये पाय नाम रस प्रेम धन  ॥ ७.५२ ॥
सर्व वेद बले गाओ हरिनाम सार  ।
पाइबे परमा प्रीति आनन्द अपार  ॥ ७.५३ ॥
वेद पुनः बले यत मुक्त महाजन  ।
परव्योमे सदा करे नाम सङ्कीर्तन  ॥ ७.५४ ॥
तामसतन्त्र शिक्षा वेद विरुद्ध

कलि युगे महा जन माया शक्ति भजे  ।
चिदात्मा पुरुष कृष्ण नाम रस त्याजे  ॥ ७.५५ ॥
तामसिक तन्त्र धरि श्रुति निन्दा करे  ।
मद्यमांसे प्रीति करि अधर्मेते मरे  ॥ ७.५६ ॥
से सब निन्दुक नाहि पाय कृष्ण नाम  ।
कभु नाहि पाय कृष्णेर वृन्दावन धाम  ॥ ७.५७ ॥
माया देवीर निष्कपट कृपे प्रयोजन

माया देवी से सब पाषण्डे अधोगति  ।
दिया नामामृत आर नाहि देन मति  ॥ ७.५८ ॥
तबे यदि साधु सेवाय तुष्ट हन माया  ।
अकपटे देन तबे कृष्ण पद छाया  ॥ ७.५९ ॥
माया कृष्ण दासी बहिर्मुख जीवे दण्डे  ।
माया पूजिले ओ शुभ नाहि पाय भण्डे  ॥ ७.६० ॥
कृष्ण नाम करे येइ माया देवी तारे  ।
निष्कपटे कृपा करि लय भव पारे  ॥ ७.६१ ॥
अतएव श्रुतिनिन्दा अपराध त्यजि  ।
अहरहः नाम सङ्कीर्तन रसे मजि  ॥ ७.६२ ॥
तद्अपराधेर प्रतिकार

प्रमादे यद्यपि हय से श्रुतिनिन्दन  ।
अनुतापे करि पुनः से श्रुति वन्दन  ॥ ७.६३ ॥
कुसम तुलसी दिया सेइ श्रुति गणे  ।
भागवत सह सदा पूजिब यतने  ॥ ७.६४ ॥
भागवत श्रुति सार कृष्ण अवतार  ।
अवश्य करिबे मोरे करुणा अपार  ॥ ७.६५ ॥
हरिदास पद रजः भरसा याहार  ।
नामचिन्तामणि हार गलाय ताहार  ॥ ७.६६ ॥

इति श्री हरिनामचिन्तामणौ श्रुतिनिन्दा अपराध विचारो
नाम सप्तमः परिच्छेदः  ।

 

(८)
अष्टम परिच्छेद

तथार्थवादो हरिनाम्नि कल्पनम्

जय गौर गदाधर श्रीराधामाधव  ।
जय गौरलीलास्थली जाह्नवी वैष्णव  ॥ ८.१ ॥
हरि नामे अर्थ वाद कल्पना चिन्तन  ।
पञ्चमापराध प्रभो श्री शचीनन्दन  ॥ ८.२ ॥
नाम महिमा

स्मृति कहे हेलाय श्रद्धाय नाम लय  ।
कृष्ण तारे कृपा करि हयेन सदय  ॥ ८.३ ॥
नामेर सदृश ज्ञान नाहिक निर्मल  ।
नामेर सदृश व्रत नाहिक प्रबल  ॥ ८.४ ॥
नामेर सदृश ध्यान नाहि ए जगते  ।
नामेर सदृश फल नाहि कोन मते  ॥ ८.५ ॥
नामेर सदृश त्याग कोन रूपे नय  ।
नामेर सदृश सम कभु नाहि हय  ॥ ८.६ ॥
नामेर सदृश पुण्य नाहि ए संसारे  ।
नामेर सदृश गति ना देखि विचारे  ॥ ८.७ ॥
नामे परम मुक्ति नाम उच्च गति  ।
नामे परम शान्ति नाम उच्च स्थिति  ॥ ८.८ ॥
नामे परम भक्ति नाम शुद्धा मति  ।
नामे परम प्रीति नाम परा स्मृति  ॥ ८.९ ॥
नामे कारण तत्त्व नाम सर्व प्रभु  ।
परम आराध्य नाम गुरुरूपे विभु  ॥ ८.१० ॥

कृष्णनामेर सर्वोत्तमता

सहस्र विष्णु नामेर तुल्य हय एक राम नाम  ।
तिन राम नाम तुल्य एक कृष्ण नाम  ॥ ८.११ ॥
नामेर अर्थ वाद नरक गमन अवश्य घटे

श्रुति गण नामेर माहात्म्य सदा गाय  ।
नामेर चित्तत्त्व बलि जगते जानाय  ॥ ८.१२ ॥
श्रुति स्मृति प्रदर्शित नामेर ये फल  ।
ताहे अर्थ वाद करे पाषण्ड प्रबल  ॥ ८.१३ ॥
हरिनामे अर्थ वाद ये अधम करे  ।
से पापिष्ठ नरकेते पचिऽ पचिऽ मरे  ॥ ८.१४ ॥
ये बले नामेर फलश्रुति सत्य नय  ।
नामे रुचि दिते मात्र तत फल कय  ॥ ८.१५ ॥
शास्त्रेर तात्पर्य आर जीव हिताहित  ।
से अधम नाहि जाने बुझे विपरीत  ॥ ८.१६ ॥
नामेर फल सत्य । ताहाते अर्थ वादेर प्रयोजन नाइ

कर्म काण्ड आछे त कैतव स्वार्थ ज्ञान  ।
भक्ति तत्त्वे नामे ताहा नहे विद्यमान  ॥ ८.१७ ॥
कर्म काण्ड फल श्रुति रोचनार्थ जानि  ।
भक्ति तत्त्वे फल श्रुति नित्य सत्य मानि  ॥ ८.१८ ॥
नाम तत्त्वे शाठ्य नाहि पाय कभु स्थान  ।
निजेर नाहिक स्वार्थ नाम करि दान  ॥ ८.१९ ॥
कर्मफलेर अर्थवाद अपरित्याज्य

नाम दान श्रद्दावाने येइ जन करे  ।
कृष्ण दास्य करे सेइ स्वार्थ परिहारे  ॥ ८.२० ॥
कर्म कराइले याजकेर अर्थ लाभ  ।
अतएव ताहे कैतवेर त प्रभाव  ॥ ८.२१ ॥
वेद स्मृति नाम फल अनन्त बाखाने  ।
स्वार्थ बुद्धि शून्य से ये ताहा नाहि माने  ॥ ८.२२ ॥
कर्म सब शुभाशुभ जडेर आश्रये  ।
जडमयफल याचे यजमान चये  ॥ ८.२३ ॥
कर्म फल दूरे फेलिऽ येबा करे कर्म  ।
हृदय विशुद्ध तार हय एइ मर्म  ॥ ८.२४ ॥
विशुद्ध हृदये आत्म रति सुनिर्मल  ।
उदय हेया हय क्रमशः प्रबल  ॥ ८.२५ ॥
नाम चिन्मय, ताहाते अर्थवाद हेते पारे ना

नाम सेइ आत्मरति निजे उपस्थित  ।
साधन कालेते साध्य वस्तुर विहित  ॥ ८.२६ ॥
कर्मेर चरम फल नामरस हय  ।
साधुरूपे अनुष्ठित कर्मेते निश्चय  ॥ ८.२७ ॥
अतएव चौद्द लोक भ्रमिया ब्राह्मण  ।
येइ फल नाहि पान नाम ताहा हन  ॥ ८.२८ ॥
नाम फल सर्वोपरि अवश्य हेबे  ।
कर्मी ज्ञानी हिंसा करिऽ नामे कि करिबे  ॥ ८.२९ ॥
नामाभासे सर्व कर्म ओ ब्रह्मज्ञानेर फल हेया थाके

सर्वकर्मफल नामाभासे लब्ध हय  ।
सर्वज्ञानफल नामाभासेते मिलय  ॥ ८.३० ॥
आभासे मिलिल यदि एत उच्च फल  ।
नाम वस्तु ततोऽधिक प्रदाने प्रबल  ॥ ८.३१ ॥
अतएव शास्त्रे यत नाम फल गाय  ।
शुद्ध नामाश्रित जन निश्चय ता पाय  ॥ ८.३२ ॥
नाम फले याहार सन्देह, ताहार मङ्गल नाइ

इहाते सन्देह यार से अधम जन  ।
नाम अपराधे तार अवश्य पतन  ॥ ८.३३ ॥
वेदे रामायणे आर भारते पुराणे  ।
आदि अन्त्ये मध्ये हरिनामेरे बाखाने  ॥ ८.३४ ॥
नाम फल श्रुति वाक्य अनादि निश्चल  ।
ताहे अर्थ वाद कल्पनार किबा फल  ॥ ८.३५ ॥
कर्मज्ञानेर शक्ति अपेक्षा नामे अनन्तगुण शक्ति आछे

नाम नामी एक नामे दिया सर्व शक्ति  ।
सर्वोपरि करियाछ तव नाम शक्ति  ॥ ८.३६ ॥
तुमि त स्वतन्त्र तत्त्व सर्व शक्तिमान्  ।
तोमार इच्छाय यत विधिर विधान  ॥ ८.३७ ॥
कर्मके करेछ जड आर ब्रह्म ज्ञाने  ।
दियाछ निर्वाण शक्ति स्वतन्त्र विधाने  ॥ ८.३८ ॥
इच्छामय तुमि प्रभु स्वीय नामाक्षरे  ।
अर्पियाछ सब शक्ति आर के कि करे  ॥ ८.३९ ॥
अतएव तव नाम सर्व शक्तिमान्  ।
नामे अर्थवाद नाहि करिबे विद्वान्  ॥ ८.४० ॥

तद्अपराधेर प्रतिकार

नामे अर्थवाद अपराध घटे यदि  ।
दन्ते तृण धरि याइ वैष्णवसंसदि  ॥ ८.४१ ॥
अपराध जानाइया वैष्णवचरणे  ।
क्षमा मागि काकुति करिया ऋजुमने  ॥ ८.४२ ॥
नामेर महिमा ज्ञाता भागवत जन  ।
क्षमा करि कृपा करि दिबे आलिङ्गन  ॥ ८.४३ ॥
नामे अर्थ वाद आर कल्पनमनन  ।
कभु नाहि हबे चित्ते माया विडम्बन  ॥ ८.४४ ॥
अर्थवादकारी सह हैले सम्भाषण  ।
सचेले जाह्नवीजले करिब मज्जन  ॥ ८.४५ ॥
कृष्ण प्रिया वंशी कृपा भरसा याहार  ।
हरिनाम चिन्तामणि तार अलङ्कार  ॥ ८.४६ ॥

इति श्री हरिनामचिन्तामणौ अर्थवादापराधविचारो
नाम अष्टमः परिच्छेदः  ।

 

(९)
नवम परिच्छेद
नामबले पापबुद्धि

नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर्
न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः

गौर गदाधर जय जाह्नवाजीवन  ।
जय जय सीताद्वैत जय भक्तगण  ॥ ९.१ ॥
नामग्रहणे समस्त अनर्थ दूर हय

हरिदास बले नाम शुद्ध सत्त्व मय  ।
भाग्यवान् जीव करे नामेर आश्रय  ॥ ९.२ ॥
अति शीघ्र ताहार अनर्थ दूरे याय  ।
हृदयदौर्बल्य आर स्थान नाहि पाय  ॥ ९.३ ॥
नामे दृढ हैले नाहि हय पापे मति  ।
पूर्व पाप दग्ध हय चित्त शुद्ध अति  ॥ ९.४ ॥
पाप आर पापबीज पापेर वासना  ।
अविद्या ताहार मूल ए तिन यन्त्रना  ॥ ९.५ ॥
सर्व जीवे दया आसि हेबे उदय  ।
जीवेर मङ्गल चेष्टा सतत करय  ॥ ९.६ ॥
जीवेर सन्ताप कभु सहिते ना पारे  ।
याहे परताप याय तार चेष्टा करे  ॥ ९.७ ॥
विषयपिपासा अति तुच्छ मने हय  ।
इन्द्रियलालसा तार चित्ते नाहि रय  ॥ ९.८ ॥
कनककामिनी चेष्टा प्रति घृणा करे  ।
यथा धर्म लाभे तुष्ट थाकि प्राण धरे  ॥ ९.९ ॥
भक्ति अनुकूल सब करये स्वीकार  ।
भक्ति प्रतिकूल नाहि करे अङ्गीकार  ॥ ९.१० ॥
कृष्ण रक्षा कर्ता एक मात्र बलि जाने  ।
जीवने पालनकर्ता कृष्ण इहा माने  ॥ ९.११ ॥
अहं मम बुद्ध्य्आसक्ति ना राखे हृदये  ।
दीनभावे नाम लय सकल समये  ॥ ९.१२ ॥
स्वभावतः यार एइ रूप नामाश्रय   ।
पापे मति पापाचार ताहार कि हय  ॥ ९.१३ ॥
पूर्वपाप ओ पापगन्ध शीघ्र दूर हय

पूर्व दृष्टभाव तार क्रमे हय क्षीण  ।
पवित्र स्वभाव शीघ्र हेबे प्रवीण  ॥ ९.१४ ॥
एइ सन्धि काले पूर्व पापेर सम्बन्ध  ।
थाकिते ओ पारे किछु दिन पाप गन्ध  ॥ ९.१५ ॥
नामेर संसर्गे यत सुमति उदय  ।
हये सेइ पाप गन्ध शीघ्र करे क्षय  ॥ ९.१६ ॥
प्रतिज्ञा करेछ नाथ अर्जुन निकटे  ।
मोर भक्त कभु नाहि पडिबे सङ्कटे  ॥ ९.१७ ॥
सङ्कट समये आमि हेब सहाय  ।
अतएव पाप याय तोमार कृपाय  ॥ ९.१८ ॥
ज्ञान मार्गी कष्टे पाप करिया दमन  ।
तवाश्रय छाडि शीघ्र हय त पतन  ॥ ९.१९ ॥
तव पदाश्रय यार सेइ महाजन  ।
विघ्न ना पाइबे कभु सिद्धान्त वचन  ॥ ९.२० ॥
प्रमादे पाप उपस्थित हेले ताहार प्रायश्चित्तेर प्रयोजन नाइ

यदि कभु प्रमादे घटय कोन पाप  ।
भक्त तबु नाहि सहे प्रायश्चित्त ताप  ॥ ९.२१ ॥
से पाप क्षणिक नाहि पाय अवस्थिति  ।
नाम रसे भेसे याय ना देय दुर्गति  ॥ ९.२२ ॥
नामबले पापाचरणकारीर परिणाम

किन्तु यदि कोन जन नामे करि बल  ।
आचरे नूतन पाप, से जन चञ्चल  ॥ ९.२३ ॥
से केवल कपटता करिया आश्रय  ।
नामापराध पाय शोकमृतिभय  ॥ ९.२४ ॥
प्रमाद ओ विचारित कर्मेर भेद

प्रमाद घटना आर विचारित कर्मे  ।
सम्पूर्ण प्रभेद आछे भक्तिशास्त्र मर्मे  ॥ ९.२५ ॥
नामाश्रयीर पाप करा दूरे थाकुक, पापे मति हेले इ नामापराध हय

संसारी मानव येबा आचरये पाप  ।
प्रायश्चित्त आछे तार आर अनुताप  ॥ ९.२६ ॥
किन्तु नामबले यदि पापे करे मति  ।
प्रायश्चित्त नाहि तार बडे दुर्गति  ॥ ९.२७ ॥
बहु यम यातनादि पाइले ओ तार  ।
सेइ अपराध हेते ना हय उद्धार  ॥ ९.२८ ॥
पाप मतिमात्रे हय एरूप यन्त्रना  ।
पापाचारे यत दोषे तार कि गणना   ॥ ९.२९ ॥
प्रवञ्चक शठेर नामभरसाय पापक्रिया मर्कटवैराग्य मात्र

शास्त्रे शुनियाछे नाम यत पाप हरे  ।
कोटि जन्मे महा पापी करिते ना पारे   ॥ ९.३० ॥
पञ्च विध पाप महा पातक अवधि  ।
नामाभासे याय शास्त्र गाय निरवधि  ॥ ९.३१ ॥
सेइ त भरसा करि प्रवञ्चक जन  ।
शठता करिया नाम करये ग्रहण  ॥ ९.३२ ॥
कष्टेर संसार छाडि वैरागीर वेशे  ।
कनक कामिनी आशे फिरे देशे देशे  ॥ ९.३३ ॥
तुमि त बलेछ प्रभु मर्कट वैरागी  ।
कामिनी सम्भाषि फिरे धर्म गृह त्यागी  ॥ ९.३४ ॥
निष्कपट नामाश्रय ना करिले एइ अपराध अनिर्वार्य

वैराग्येर छले केह गृहे काटे काल  ।
सम्भाष्य ना हय सब विश्वेर जञ्जाल  ॥ ९.३५ ॥
गृहे थाकु वने याउ ताते नाहि दोष  ।
निष्पापे करुक्नाम पाइया सन्तोष  ॥ ९.३६ ॥
नाम बले पाप मति महा अपराध  ।
ताहाते मजिले हय भक्ति तत्त्वे बाध  ॥ ९.३७ ॥
नामाभासिव्यक्तिगण एइ कपट लोकेर सङ्गे अपराधी हन

नामाभासी जनेर कुसङ्ग यदि हय  ।
तबे एइ अपराध घटिबे निश्चय  ॥ ९.३८ ॥
शुद्ध नामोदय यार हृदये हेबे  ।
एइ नाम अपराध तार ना घटिबे  ॥ ९.३९ ॥
शुद्ध नामाश्रित व्यक्तिर दश विध अपराध स्पर्श करे ना

शुद्धनामाश्रित जने अपराध दश  ।
कोन रूपे कोन काले ना करे परश  ॥ ९.४० ॥
नामाश्रित जने नाम सदा रक्षा करे  ।
अपराध कभु तार ना हेते पारे  ॥ ९.४१ ॥
यत दिन शुद्ध नाम ना हय उदय  ।
तत दिन अपराध आक्रमणे भय  ॥ ९.४२ ॥
अतएव नामाभासी यदि भाल चाय  ।
नाम बले पाप बुद्धि हेते पलाय  ॥ ९.४३ ॥
कत दिन सावधाने अपराध परित्याग करा चाइ ?

शुद्धनामाश्रितजनसङ्गबल धरिऽ  ।
अपराध सतर्कता सर्वदा आचरिऽ  ॥ ९.४४ ॥
शुद्धनाम यार मुखे तार दृढ मन  ।
कृष्ण हैते विचलित नहे एक क्षण  ॥ ९.४५ ॥
अतएव नाम बल यत दिन नय  ।
तत दिन अपराधे करिबेक भय  ॥ ९.४६ ॥
विशेष यतने पाप बुद्धि दूर करिऽ  ।
अहर्निशि मुखे बलिबेक हरि हरि  ॥ ९.४७ ॥
श्रीगुरुकृपाय हबे सुसम्बन्धज्ञान  ।
कृष्णभक्ति कृष्णनाम ताहाते विधान  ॥ ९.४८ ॥
एइ अपराध हेले ताहार प्रतिकार

यद्यपि प्रमादे नामबले पापबुद्धि  ।
शुद्ध वैष्णवेर सङ्गे करि तार शुद्धि  ॥ ९.४९ ॥
पापस्पृहा बाटपाड पथे आसिऽ धरे  ।
विशुद्ध वैष्णव गण पथ रक्षा करे  ॥ ९.५० ॥
उच्चैःस्वरे डाकि रक्षकेर नाम धरिऽ  ।
पलाइबे बाटपाड आसिबे प्रहरी  ॥ ९.५१ ॥
आदरे बलिबे भाइ नाहि कर भय  ।
आमि त रक्षक तव शुन महाशय  ॥ ९.५२ ॥
केवल वैष्णवपददास्यव्रत यार  ।
हरिनामचिन्तामणि पाय सेइ छार  ॥ ९.५३ ॥

इति श्री हरिनामचिन्तामणौ नामबले पापबुद्धिर्
नाम नवमः परिच्छेदः  ।

 

(१०)
दशम परिच्छेद

अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति
यश्चोपदेशः शिवनामापराधः


गौर गदाधर जय जाह्नवाजीवन  ।
जय जय सीताद्वैत जय भक्तगण  ॥ १०.१ ॥
कर युडिऽ हरिदास बलेन वचन  ।
आर नाम अपराध करह श्रवण  ॥ १०.२ ॥
नामे दृढ विश्वासके श्रद्धा बलि, ताहा हेले इ नामे अधिकार हय

याहार हृदये श्रद्धा ना हेल उदय  ।
नाम नाहि शुने बहिर्मुख दुराशय  ॥ १०.३ ॥
ना जन्मे से जनार नामे अधिकार  ।
श्रद्धा मात्र अधिकार एइ तत्त्वसार  ॥ १०.४ ॥
सज्जाति, सत्कुल, ज्ञान, बल, विद्या धन  ।
नामे अधिकार दिते ना हय कारण  ॥ १०.५ ॥
नामेर माहात्म्य येइ सुदृढ विश्वास  ।
शास्त्रमते श्रद्धा सेइ सर्वत्र प्रकाश  ॥ १०.६ ॥
श्रद्धाहीन जनके नाम दिले नामापराधी हय

श्रद्धा नाहि जन्मे यार हरि नाम तारे  ।
साधु जन नाहि देन वैष्णव आचारे  ॥ १०.७ ॥
श्रद्धा हीन जन यदि हरि नाम पाय  ।
अवज्ञा करिबे मात्र सर्व शास्त्रे गाय  ॥ १०.८ ॥
शूकरके दिले रत्न से चूर्ण करिबे  ।
बानरके दिले वस्त्र छिङ्डिया फेलिबे  ॥ १०.९ ॥
श्रद्धा हीन पेये नाम अपराध मरे  ।
सङ्गे सङ्गे गुरुके अभक्त शीघ्र करे  ॥ १०.१० ॥

श्रद्धा हीन व्यक्ति नाम पाइते प्रार्थना करिले ताहार सहित कि रूपे व्यवहार करा उचित

श्रद्धा विरहित जन शठता करिया  ।
हरि नाम मागे वैष्णवेर काछे गिया  ॥ १०.११ ॥
ताहार वञ्चना वाक्य बुझि साधु जन  ।
हरि नाम नाहि देन तारे कदाचन  ॥ १०.१२ ॥
साधु बले ओहे भाइ शाठ्य परिहर  ।
प्रतिष्ठाशा दूरे राखि नामे श्रद्धा कर  ॥ १०.१३ ॥
नामे श्रद्धा हैले नाम अनायासे पाबे  ।
नामेर प्रभावे ए संसारे तरे याबे  ॥ १०.१४ ॥
यत दिन नाहि तव नामे श्रद्धा भाइ  ।
नाम लैते तोमार त अधिकार नाइ  ॥ १०.१५ ॥
श्री नाम माहात्म्य साधु शास्त्र मुखे शुन  ।
प्रतिष्ठाशा छाडि दैन्य करह ग्रहण  ॥ १०.१६ ॥
नामे श्रद्धा हले तबे गुरु महाजन  ।
नाम अर्पिबेन भाइ नाम महा धन  ॥ १०.१७ ॥
श्रद्धा हीन जने अर्थ लोभे नाम दिया  ।
नरकेते याय नामापराध मजिया  ॥ १०.१८ ॥
एइ अपराधेर प्रतिकार
प्रमादे यद्यपि नाम उपदेश हय  ।
श्रद्धा हीने तबे गुरु पाय महा भय  ॥ १०.१९ ॥
वैष्णव समाजे ताहा करि विज्ञापन  ।
सेइ दुष्ट शिष्य त्याग करे महा जन  ॥ १०.२० ॥
ताहा ना करिले गुरु अपराध क्रमे  ।
भक्ति हीन दुराचार हय माया भ्रमे  ॥ १०.२१ ॥
अतएव प्रभु यारे आदेश करिले  ।
नाम प्रचारिते तारे एइ आज्ञा दिले  ॥ १०.२२ ॥
ए विषये प्रभुर आज्ञा

श्रद्धावान् जने कर नाम उपदेश  ।
नाम महिमाय पूर्ण कर सर्वदेश  ॥ १०.२३ ॥
उच्च सङ्कीर्तने कर श्रद्धार प्रचार  ।
श्रद्धा लभि जीव करे सद्गुरु विचार  ॥ १०.२४ ॥
सद्गुरु निकटे करे श्री नाम ग्रहण  ।
अनायासे पाय तबे कृष्ण प्रेम धन  ॥ १०.२५ ॥
चोर वेश्या शठ आदि पापासक्त जने  ।
छाडाइया पाप मति दिबे श्रद्धा धने  ॥ १०.२६ ॥
सुश्रद्ध हैले दिबे नाम उपदेश  ।
एइ रूपे नाम दिया तार सर्व देश  ॥ १०.२७ ॥
एइ रूप अपराधेर फल

इहा ना करिया यिनि देन नाम धन  ।
सेइ अपराधे ताङ्र नरके पतन  ॥ १०.२८ ॥
नाम पेये शिष्य करे नाम अपराध  ।
ताहाते गुरुर हय भक्ति रस बाध  ॥ १०.२९ ॥
एइ नाम अपराधे दुङ्हे शिष्य गुरु  ।
नरकेते याय एइ अपराध उरु  ॥ १०.३० ॥

अग्रे श्रद्धा दिया नाम उपदेश दिबे

जगा माधा प्रति तुमि महा कृपा करि  ।
नामे श्रद्धा दिया नाम दिले गौर हरि  ॥ १०.३१ ॥
अद्भुत चरित्र तव सर्व जन गण  ।
श्रद्धाय करुक अनुकरण चरण  ॥ १०.३२ ॥
भक्त पाद भक्तिते विनोद याहार  ।
हरिनामचिन्तामणि अलङ्कार तार  ॥ १०.३३ ॥

 


(११)
एकादश परिच्छेद
अन्य शुभकर्मेर सहित नामके तुल्यज्ञान

धर्मव्रतत्यागहुतादिसर्व
शुभक्रियासाम्यमपि प्रमादः  ।

जय जय गौरचन्द्र नाम अवतार  ।
जय जय हरिनाम सर्वतत्त्वसार  ॥ ११.१ ॥
नामेर उपायत्व सत्त्वेओ उपेयत्व

कृष्णनाम हय प्रभु पूर्णानन्द तत्त्व  ।
उपेय वा सिद्धि बलि याहार महत्त्व  ॥ ११.२६ ॥
उपाय हेया आविर्भूत धरातले  ।
उपेय उपाय ऐक्य सर्व शास्त्रे बले  ॥ ११.२७ ॥
अधिकारभेदे यिनि उपाय स्वरूप  ।
तिनी उपेय अन्ये बड अपरूप  ॥ ११.२८ ॥
शुभकर्म गौणोपाय नाम मुख्योपाय

अतएव उपाय द्विविध गुण धाम  ।
गौणोपाय शुभ कर्म मुख्योपाय नाम  ॥ ११.२९ ॥
नामेर अतीन्द्रियत्व

अतएव शास्त्रे यत अन्य शुभ कर्म  ।
नाम सह नहे एइ सर्व शास्त्र मर्म  ॥ ११.३० ॥
सरल हृदये यबे कृष्णनाम गाय  ।
अतीन्द्रियसुख आसि चित्तके नाचाय  ॥ ११.३१ ॥
सेइ सुख कृष्णनामस्वभाव तत्पर  ।
आत्मरति आत्मक्रीडा नाहि यार पर  ॥ ११.३२ ॥
सायुज्य कैवल्य सुख आनन्द सुखेर छाया मात्र

ब्रह्म ज्ञाने योगे ये आनन्द वैभव  ।
जडेर विच्छेद सुख छाया अनुभव  ॥ ११.३३ ॥
अभेद्य कैवल्य सुख स्वल्प बलिऽ जानि  ।
कृष्णनामानन्दसुख भूमा बलिऽ मानि  ॥ ११.३४ ॥
अन्य शुभ कर्म हेते नामेर वैलक्षण्य

साधनकालेते नाम उपाय स्वरूप  ।
सिद्धिकाले उपेय से एइ अपरूप  ॥ ११.३५ ॥
उपाय स्वरूप नामे उपेयत्व सिद्ध  ।
अन्य शुभ कर्मे ऐछे नहे त प्रसिद्ध  ॥ ११.३६ ॥
अन्य शुभ कर्म यत सब जडाश्रित  ।
नाम त चिन्मय सदा स्वतः सिद्धोदित  ॥ ११.३७ ॥
साधन कालेओ नाम शुद्ध सुनिर्मल  ।
साधकेर अनर्थेते देखाय समल  ॥ ११.३८ ॥
साधुसङ्गे नाम लैते जडबुद्धि याय  ।
अनर्थ निःशेष हैले शुद्ध नाम भाय  ॥ ११.३९ ॥
अन्य शुभ कर्मी करे त्यजिया उपाय  ।
उपेय परम भाव चरमे आश्रय  ॥ ११.४० ॥
किन्तु नामाश्रयी जन नाम नाहि त्यजे  ।
नामेर शुद्धता मात्र सिद्धिकाले भजे  ॥ ११.४१ ॥
अन्य शुभ कर्म हैते अति विलक्षण  ।
नामेर स्वरूप हय अपूर्व लक्षण  ॥ ११.४२ ॥
साधन दशाय एइ विलक्षण ज्ञान  ।
गुरु कृपा हैते हय वेदेर प्रमाण  ॥ ११.४३ ॥
साधन दशाय यिनि एइ ज्ञान हीन  ।
नाम अपराधी तिंह अति अर्वाचीन  ॥ ११.४४ ॥
नाम सर्वोपरि नामतुल्य किछु नय  ।
ए दृढ विश्वास करि येइ नाम लय  ॥ ११.४५ ॥
अचिरे ताङ्हाते हय शुद्धनामोदय  ।
पूर्णानन्द नामरस करेन आश्रय  ॥ ११.४६ ॥
एइ अपराधेर प्रतिकार

काहारो यद्यपि अन्य शुभ कर्म सने  ।
नामे सम बुद्धि हय दुष्कृति बन्धने  ॥ ११.४७ ॥
से दुष्कृति क्षय लागि करिबे यतन  ।
नामे शुद्ध बुद्धि पाबे प्रेम धन  ॥ ११.४८ ॥
अन्त्यज गृहस्थ शुद्ध नाम परायण  ।
ताङ्र पद धूलि देहे करिबे मृक्षण  ॥ ११.४९ ॥
खाइबे अधरामृत पिबे पदजल  ।
तबे शुद्ध नामे मति हेबे निर्मल  ॥ ११.५० ॥
कालि दासे एइ रूपे दुष्कृति खण्डन  ।
पुनः तव कृपाप्राप्ति गाय जगज्जन  ॥ ११.५१ ॥
आमि जड बुद्धि नाथ एक मात्र गाइ  ।
नामचिन्तामणितत्त्व कभु नाहि पाइ  ॥ ११.५२ ॥
हरिदास ठाकुरेर नामविषये निष्ठा

कृपा करिऽ नामरूपे आमार जिह्वाय  ।
निरन्तर नाच प्रभु धरि तव पाय  ॥ ११.५३ ॥
राख इङ्हा लओ ताङ्हा तव इच्छा मत  ।
याङ्हा राख देह मोरे कृष्णनामामृत  ॥ ११.५४ ॥
जगज्जने नाम दिते तव अवतार  ।
जगज्जनमाझे मोरे कर अङ्गीकार  ॥ ११.५५ ॥
आमि त अधम तुमि अधम तारण  ।
उभये सम्बन्ध एइ पतित पावन  ॥ ११.५६ ॥
अच्छेद्य सम्बन्ध एइ तोमाय आमाय  ।
यार बले नामामृत ए अधम चाय  ॥ ११.५७ ॥
कलियुगे नामे केन युगधर्म हेलेन

कलियुगे सुदुःसाध्य अन्य शुभ कर्म  ।
अतएव नाम आसिऽ हेल युग धर्म  ॥ ११.५८ ॥
हरिदासदास भक्तिविनोद से जन  ।
हरिनामचिन्तामणि गाय अकिञ्चन  ॥ ११.५९ ॥

 


(१२)
द्वादश परिच्छेद

नामापराध प्रमाद

प्रमादः

जय जय महाप्रभु जय भक्तगण  ।
जाङ्देर प्रसादे करि नामसङ्कीर्तन  ॥ १२.१ ॥
प्रमादनामक अपराध

हरिदास बले प्रभु हेथा सनातने  ।
आर त गोपाल भट्ट दक्षिण भ्रमणे  ॥ १२.२ ॥
शिखाइले अप्रमादे श्रीकृष्णभजने  ।
प्रमादके अपराधे करिले गणन  ॥ १२.३ ॥
अन्य अपराध त्ज्यजि सदा नाम लय  ।
तबु नामे प्रेम नाहि हय त उदय  ॥ १२.४ ॥
तबे जानि प्रमाद नामेते अपराध  ।
प्रेम भक्ति साधनेते करितेछे बाध  ॥ १२.५ ॥
अनवधानकेइ प्रमाद बले

प्रमाद अनवधान एइ मूल अर्थ  ।
इहा हैते घटे प्रभु सकल अनर्थ  ॥ १२.६ ॥
तिन प्रकार अनवधान

औदासीन्य जाड्य आर विक्षेप ए तिन  ।
प्रकार अनवधान बुझिबे प्रवीण  ॥ १२.७ ॥
अनुराग ना हओआ पर्यन्त नाम ग्रहणे यत्नेर आवश्यक

कोन भाग्ये कोन जीवेर श्रद्धा यदि हय  ।
तबे तिङ्ह हरिनाम ग्रहण करय  ॥ १२.८ ॥
यत्न करि स्मरे नाम सङ्ख्यार सहित  ।
तबे नामे अनुराग हय त उदित  ॥ १२.९ ॥
ये पर्यन्त अनुराग ना हय उदय  ।
से पर्यन्त यत्न करि नाम सदा लय  ॥ १२.१० ॥
यत्नाभावे साधकेर चित्त स्थिर हय ना

निसर्गतः लोक सब विषये आसक्त  ।
स्मृतिकाले विषय अन्तरे अनुरक्त  ॥ १२.११ ॥
रुचि याय अन्य स्थाने नामे उदासीन  ।
नामे चित्त मग्न नहे जपे प्रतिदिन  ॥ १२.१२ ॥
चित्त एक दिके आर अन्य दिके नाम  ।
ताहार मङ्गल किसे हय गुण धाम  ॥ १२.१३ ॥
लक्ष नाम हैले पूर्ण सङ्ख्या माला गणि  ।
हृदये नहिल रस बिन्दु गुण मणि  ॥ १२.१४ ॥
एइ त अनवधान दोषेर प्रकार  ।
विषयी हृदये प्रभु बड दुर्निवार  ॥ १२.१५ ॥
यत्न करिबार विधि

साधु सङ्गे स्वल्प काल छाडिया विषय  ।
निर्जने लेले नाम एइ दोष क्षय  ॥ १२.१६ ॥
क्रमे क्रमे कृष्ण नामे चित्त हय स्थिर  ।
निरन्तर नाम रसे हय त अधीर  ॥ १२.१७ ॥
तुलसीर सन्निकटे कृष्ण लीला स्थाने  ।
साधु सन्निधाने  बसिऽ सात्वतविधाने  ॥ १२.१८ ॥
क्रमे काल वृद्धि करि सेइ नाम स्मरे  ।
अति शीघ्र विषयेर छन्द हेते तरे  ॥ १२.१९ ॥
अन्य प्रक्रिया । एइ रूप करिले औदासीन्य रूप अनवधान हय ना

अथवा निर्जने बसिऽ स्मरि साधुरीति  ।
इन्द्रिय पिधान करिऽ नामे करे मति  ॥ १२.२० ॥
सत्वरे नामेते निष्ठा रुचि क्रमे हय  ।
औदासीन्य दोषे तार क्रमे हय क्षय  ॥ १२.२१ ॥
जाड्यजनित अनवधान लक्षण

जाड्ये ये अनवधानअ अलसेर मने  ।
ताहे रुचि नाहि हय श्रीनामग्रहणे  ॥ १२.२२ ॥
स्मृतिकाले पुनः शीघ्र विरामे प्रयास  ।
एइ दोषे नामरस ना हय प्रकाश  ॥ १२.२३ ॥
अन्य कार्ये वृथा काल ना हय यापन  ।
साधु गण इहा चिन्तिऽ स्मरे अनुक्षण  ॥ १२.२४ ॥
नाम स्मरे रसे मजे अन्य नाहि चाय  ।
सेइ रूप साधु सङ्गे एइ दोस याय  ॥ १२.२५ ॥
अन्वेषिया सेइ रूप साधुसङ्ग करे  ।
तद्अनुकरणे चित्त जाड्य परिहरे  ॥ १२.२६ ॥
अव्यर्थ कालत्व धर्म साधुर चरित  ।
देखिले ताहाते रुचि हेबे निश्चित  ॥ १२.२७ ॥
मने हबे आहा कबे इहार समान  ।
स्मरिब गाइब नाम हये भाग्यवान्  ॥ १२.२८ ॥
सेइ त उत्साह आसि अलसेर मने  ।
जाड्य दूर करे कृष्णनामेर स्मरणे  ॥ १२.२९ ॥
मने हबे आज लक्ष नाम ये करिब  ।
क्रमे क्रमे तिन लक्ष नाम ये स्मरिब  ॥ १२.३० ॥
महाग्रह हबे चित्ते नामेर सङ्ख्याय  ।
अचिरे याइबे जाड्य साधुर कृपाय  ॥ १२.३१ ॥
विक्षेप जनित अनवधान लक्षण

विक्षेप हेते येइ प्रमाद उदय  ।
बहु यत्ने सेइ अपराध हय क्षय  ॥ १२.३२ ॥
कनक कामिनी आर जय पराजय  ।
प्रतिष्ठाशा शाठ्यवृत्ति ताहार निलय  ॥ १२.३३ ॥
ए सब आकृष्टि हृदे हेले उदय  ।
नामेते अनवधान स्वभावतः हय  ॥ १२.३४ ॥
विक्षेपत्यागेर उपाय

क्रमे क्रमे सेइ सब चिन्ता परिहारे  ।
यतिबे सौभाग्यवान् वैष्णव आचारे  ॥ १२.३५ ॥
प्रथमेते हरिदिने भोगचिन्ता त्यजिऽ  ।
साधु सङ्गे रात्रदिन हरिनाम भजि  ॥ १२.३६ ॥
हरिक्षेत्रे हरि दास हरि शास्त्रे लये  ।
उत्सवे मजिबे सुखे परम निर्भये  ॥ १२.३७ ॥
क्रमे भक्तिकाल मन करिबे वर्धन  ।
हरिकथा महोत्सवे मजाइया मन  ॥ १२.३८ ॥
श्रेष्ठ रस क्रमे चित्ते हेबे उदय  ।
जडेर निकृष्ट रस छाडिबे निश्चय  ॥ १२.३९ ॥
महाजन मुखे हरिसङ्गीत श्रवणे  ।
मुग्ध हबे मनः कर्ण रस आस्वादने  ॥ १२.४० ॥
निकृष्ट विषयस्पृहा हेबे विगत  ।
नाम गाने चित्त स्थिर हबे अविरत  ॥ १२.४१ ॥
अतएव बहु यत्ने ए प्रमाद त्यजे  ।
स्थिर चित्ते नाम रसे चिर दिन मजे  ॥ १२.४२ ॥
आग्रह

सङ्कल्पित नाम सङ्ख्या पूर्ण करिबारे  ।
ना हय अयत्न नामे देखि बारे बारे  ॥ १२.४३ ॥
सतर्क हेया करि नाम सङ्कीर्तन  ।
प्रमाद छाडिया करि नामेर भजन  ॥ १२.४४ ॥
सङ्ख्याधिक स्पृहा एकाग्रमानसे  ।
निरन्तर करिऽ नाम तव कृपाबले  ॥ १२.४५ ॥
एइ कृपा कर प्रभु नामेते प्रमाद  ।
ना बाधे आमार चित्ते नाम रसास्वाद  ॥ १२.४६ ॥
प्रक्रिया

एकाग्र मानसे निर्जनेते स्वल्प क्षण  ।
नाम स्मृति अभ्यास करिबे भक्त जन  ॥ १२.४७ ॥
अतएव स्पष्ट नाम भाव लग्न मने  ।
सदा हय ए प्रार्थना तोमार चरणे  ॥ १२.४८ ॥
आपन यत्नेते केह नाहि पारे  ।
तोमार प्रसाद विना ए भवसंसारे  ॥ १२.४९ ॥
यत्नाग्रहेर आवश्यकता  ।
निष्कपट नाम ग्रहणे ताहा अवश्य थाके, नतुवा अपराध

यत्न करि कृपा मागि व्याकुल अन्तरे  ।
तुमि कृपामय कृपा कर अतःपरे  ॥ १२.५० ॥
तव कृपा लाभे यदि ना करि यतन  ।
तबे आमि भाग्य हीन हे शचीनन्दन  ॥ १२.५१ ॥
हरिनामचिन्तामणि अलङ्कार यार  ।
हरिदासपदयुग भरसा ताहार  ॥ १२.५२ ॥

 

(१३)
त्रयोदश परिच्छेद

श्रुतेऽपि नाममाहात्म्ये
यः प्रीतिरहितो नरः  ।
अहंममादिपरमो
नाम्नि सोऽप्यपराधकृत् ॥ १३.

गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन  ।
सीताद्वैत जय जय गौरभक्तजन  ॥ १३.१ ॥
प्रेमे गद गद हरिदास महाशय  ।
शेष नाम अपराध प्रभु पदे कय  ॥ १३.२ ॥
शुन प्रभु एइ अपराध सर्वाधम  ।
एइ दोषे नाम प्रेम ना हय उद्गम  ॥ १३.३ ॥
नामे शरणापत्तिर प्रयोजनीयता

अन्य नय अपराध करिया वर्ज्जन  ।
नामेते शरणापन्न हेबे सज्जन  ॥ १३.४ ॥
षड्विध शरणागति सर्व शास्त्रे कय  ।
विस्तारित बलिते आमार साध्य नय  ॥ १३.५ ॥
शरणापत्तिर प्रकार

संक्षेपे चरणे तव करि निवेदन  ।
आनुकूल्ये सङ्कल्प प्रातिकूल्य विसर्जन  ॥ १३.६ ॥
कृष्णे रक्षाकारी बुद्धि पालक भावन  ।
निजे दीन बुद्धि आर आत्मनिवेदन  ॥ १३.७ ॥
ए जीवन ना रहिले ना हय भजन  ।
जीवन रक्षाय मात्र विषय ग्रहण  ॥ १३.८ ॥
भक्ति अनुकूल ये विषय अनुक्षण  ।
ताहे रोचमान वृत्त्ये जीवन यापन  ॥ १३.९ ॥
भक्ति प्रतिकूल ये विषये यबे हय  ।
ताहाते अरुचि ताहा वर्जिबे निश्चय  ॥ १३.१० ॥
कृष्ण विना रक्षाकर्ता नाहि केह आर  ।
कृष्ण से पालक मात्र जानिबे आमार  ॥ १३.११ ॥
आमि दीन अकिञ्चन सकलेर छार  ।
अधम दुर्गत किछु नाहिक आमार  ॥ १३.१२ ॥
कृष्णेर संसारे आमि आछि चिर दास  ।
कृष्ण इच्छा मत क्रिया आमार प्रयास  ॥ १३.१३ ॥
आमि कर्ता आमि दाता आमि पालयिता  ।
आमार ए देह गेह सन्तान वनिता  ॥ १३.१४ ॥
आमि विप्र आमि शूद्र आमि पिता पति  ।
आमि राजा आमि प्रजा सन्तानेर गति  ॥ १३.१५ ॥
एइ सब बुद्धि छाडि कृष्णे करि मति  ।
कृष्ण कर्ता कृष्ण इच्छा मात्र बलवती  ॥ १३.१६ ॥
कृष्णेर ये हय इच्छा ताहाइ करिब  ।
निज इच्छा अनुसारे किछु ना चिन्तिब  ॥ १३.१७ ॥
कृष्ण इच्छा मते हय आमार संसार  ।
कृष्ण इच्छा मते आमि हे भवपार  ॥ १३.१८ ॥
दुःखे थाकि सुखे थाकि आमि कृष्ण दास  ।
कृष्णेच्छाय सर्व जीवे दयार प्रकाश  ॥ १३.१९ ॥
मम भोग कर्मभोग कृष्ण इच्छा मत  ।
आमार वैराग्य कृष्ण इच्छा अनुगत  ॥ १३.२० ॥
शरणापत्ति हेले आत्मनिवेदन हय

सरल भावेते यबे एइ भाव हय  ।
आत्म निवेदन तारे बलि महाशय  ॥ १३.२१ ॥
शरणापत्ति व्यतीत नामाश्रये याहा हय

षड्विध शरणागति नाहिक याहार  ।
से अधम अहं मम बुद्धि दोषे छार  ॥ १३.२२ ॥
से बले आमि त कर्ता संसार आमार  ।
निज कर्म फल भोग सुख दुःख आर  ॥ १३.२३ ॥
आमार रक्षक आमि, आमि त पालक  ।
आमार वनिता भ्राता बालिका बालक  ॥ १३.२४ ॥
आमि त अर्जन करि आमार चेष्टाय  ।
सर्व कार्य्य सिद्ध हय सर्व शोभा पाय  ॥ १३.२५ ॥
अहं मम बुद्धि क्रमे बहिर्मुख जन  ।
निज ज्ञान बले बहु करये मानन  ॥ १३.२६ ॥
सेइ ज्ञान बले शिल्प विज्ञान विस्तारे  ।
ईश्वरेर ईशिता ना माने दुष्टाचारे  ॥ १३.२७ ॥
श्रीनाममाहात्म्य शुनि विश्वास ना करे  ।
लोक व्यवहारे कभु कृष्णनामोच्चारे  ॥ १३.२८ ॥
कृष्ण नाम करे तबु नाहि पाय प्रीति  ।
धर्म ध्वजी शठ जन जीवने ए रीति  ॥ १३.२९ ॥
हेलाय उच्चारे नाम किछु पुण्य हय  ।
प्रीति फल नाहि फले सर्व शास्त्रे कय  ॥ १३.३० ॥
इहार मूल कि ?

माया बद्ध हैते एइ अपराध हय  ।
इहाते निष्कृति लाभ कठिन निश्चय  ॥ १३.३१ ॥
शुद्ध भक्ति फले याङ्र विरक्ति हेल  ।
संसार छाडिया सेइ नामाश्रय निल  ॥ १३.३२ ॥
एइ दोष त्यागेर उपाय

निष्किञ्चन भावे भजे श्री कृष्ण चरण  ।
विषय छाडिया करे नाम सङ्कीर्तन  ॥ १३.३३ ॥
सेइ साधु जने अन्वेषिया ताङ्र सङ्ग  ।
करिबे सेविबे छाडि विषय तरङ्ग  ॥ १३.३४ ॥
क्रमे क्रमे नामे मति हेबे सञ्चार  ।
अहंता ममता याबे माया हबे पार  ॥ १३.३५ ॥
नामेर माहात्म्य शुनि अहं मम भाव  ।
छाडिया शरणातै भक्तेर स्वभाव  ॥ १३.३६ ॥
नामेर शरणागत येइ महाजन  ।
कृष्ण नाम करे पाय प्रेम महा धन  ॥ १३.३७ ॥
दशापराध शून्य व्यक्तिर लक्षण

अतएव साधु निन्दा यतने छाडिया  ।
पर तत्त्व विष्णु शुद्ध मनेते जानिया  ॥ १३.३८ ॥
नाम गुरु नाम शास्त्र सर्वोत्तम जानि  ।
विशुद्ध चिन्मय नाम हृदयेते मानि  ॥ १३.३९ ॥
पाप स्पृहा पाप बीज त्यजिया यतने  ।
प्रचारिया शुद्ध नाम श्रद्धान्वित जने  ॥ १३.४० ॥
अन्य शुभ कर्म हैते लेया विराम  ।
स्मरे ये शरणागत अप्रमादे नाम  ॥ १३.४१ ॥
निरपराधे नामे लेले अल्प दिने भावोदय हय

सेइ धन्य त्रिजगते सेइ भाग्यवान्  ।
कृष्ण कृपा योग्य सेइ गुणेर निदान  ॥ १३.४२ ॥
अति अल्प दिने ताङ्र श्रीनामग्रनणे  ।
भावोदय हय आर पाय प्रेम धने  ॥ १३.४३ ॥
उन्नति क्रम

एवम्भूत जनेर साधन दशा प्राय  ।
अति स्वल्प दिने याय कृष्णेर इच्छाय  ॥ १३.४४ ॥
भाव दशा हैते हैते प्रेम दशा हय  ।
प्रेम दशा सर्व सिद्धि सर्व शास्त्र कय  ॥ १३.४५ ॥
तुमि बलियाछ नाम येइ महाजन  ।
लेबे निरपराधे पाबे प्रेम धन  ॥ १३.४६ ॥
व्यतिरेक भावे इहार चिन्ता

अपराध नाहि छाडिऽ नाम यदि लय  ।
सहस्र साधने तार भक्ति नाहि हय  ॥ १३.४७ ॥
ज्ञाने मुक्ति कर्मे भुक्ति ज्ञानी कर्मी जने  ।
सुदुर्लभा कृष्ण भक्ति निर्मल साधने  ॥ १३.४८ ॥
भुक्ति मुक्ति भक्ति सम भक्ति मुक्ता फल  ।
जीवेर महिमा भकि प्राप्ति सुनिर्मल  ॥ १३.४९ ॥
साधने नैपुण्य योगे अत्यल्प साधने  ।
भक्ति लता प्रेम फल देन भक्त जने  ॥ १३.५० ॥
भजन नैपुण्य

दश अपराध छाडि नामेर ग्रहण  ।
इहाइ नैपुण्य हय साधन भजन  ॥ १३.५१ ॥
नामापराधेर गुरुता

अतएव भक्ति लाभे यदि लोभ हय  ।
दश अपराध छाडि करि नामाश्रय  ॥ १३.५२ ॥
एक एक अपराध सतर्क हेया  ।
यतनेते छाडि चित्ते विलाप करिया  ॥ १३.५३ ॥
नामेर चरणे करि दृढ निवेदन  ।
नाम कृपा हले अपराध विध्वंसन  ॥ १३.५४ ॥
अन्य शुभ कर्मे नाम अपराध क्षय  ।
कोन प्रायश्चित्त योगेकभु नाहि हय  ॥ १३.५५ ॥
नामापराध परित्यागेर उपाय

अविश्रान्त नामे नाम अपराध याय  ।
ताहे अपराध कभु स्थान नाहि पाय  ॥ १३.५६ ॥
दिवारात्र नाम लय अनुताप करे  ।
तबे अपराध याय नाम फल धरे  ॥ १३.५७ ॥
अपराध गते शुद्ध नामेर उदय  ।
शुद्ध नाम भावमय आर प्रेम मय  ॥ १३.५८ ॥
दश अपराध येन हृदये ना पशे  ।
कृपा कर महाप्रभु मजि नाम रसे  ॥ १३.५९ ॥
ए भक्तिविनोद हरिदास कृपा बले  ।
हरिनामचिन्तामणि गाय कुतूहले  ॥ १३.६० ॥

 

(१४)
चतुर्दश परिच्छेद
सेवापराध

जय गौरगदाधर जाह्नवा जीवन  ।
जय सीतापति श्रीवासादिभक्तजन  ॥ १४.१ ॥
नामतत्त्वे श्रीहरिदास ठाकुरके आचार्य बलिया उक्ति करियाछेन्

महाप्रभु बले शुन भक्त हरिदास  ।
नाम अपराध तत्त्व करिले प्रकाश  ॥ १४.२ ॥
इहाते कलिर जीव लभिबे मङ्गल  ।
नामतत्त्वे तुमि हओ आचार्य प्रबल  ॥ १४.३ ॥
तव मुखे नामतत्त्व करिते श्रवण  ।
आमार उल्लास बड शुन महाजन  ॥ १४.४ ॥
आचारे आचार्य तुमि प्रचारे पण्डित  ।
तोमार चरित नामरत्ने विभूषित  ॥ १४.५ ॥
रामानन्द शिखाइल मोरे रसतत्त्व  ।
तुमि शिखाइले मोरे नामेर महत्त्व  ॥ १४.६ ॥
एबे बल सेवा अपराध कि प्रकार  ।
शुनिया घुचिबे जीवेर चित्त अन्धकार  ॥ १४.७ ॥
हरिदास बले से सेवक जन जाने  ।
आमि नामाश्रये थाकि जानिब केमने  ॥ १४.८ ॥
तबु तव आज्ञा आमि लङ्घिबारे नारि  ।
याहा बलाइबे ताहा बलिब विस्तारि  ॥ १४.९ ॥
सेवापराध सङ्ख्या

सेवा अपराध हय अनन्त प्रकार  ।
श्रीमूर्ति सम्बन्धे सब शास्त्रेर विचार  ॥ १४.१० ॥
कोन शास्त्रे द्वात्रिंशतपराध गणि  ।
कोन शास्त्रे पञ्चाशत्गञे गुणमणि  ॥ १४.११ ॥
चतुर्विध

सेइ अपराध चतुर्विधादि प्रकारे  ।
विभाग करेन बुध गण शास्त्रे द्वारे  ॥ १४.१२ ॥
श्रीमूर्तिसेवक निष्ठ कतगुलि तार  ।
श्री मूर्ति स्थापक निष्ठ अपराध आर  ॥ १४.१३ ॥
श्रीमूर्ति दर्शक निष्ठ  आर कतिपय  ।
सर्व निष्ठ अपराध कतिविध हय  ॥ १४.१४ ॥
सेवापराध द्वात्रिंश प्रकार

पादुका सहित याय ईश्वर मन्दिरे  ।
याने चडिऽ याय तथा स्वच्छन्द शरीरे  ॥ १४.१५ ॥
उत्सवे ना सेवे आर प्रगति ना करे  ।
उच्छिष्ठ अशौच देहे वन्दन आचरे  ॥ १४.१६ ॥
एक हस्ते प्रणाम सम्मुखे प्रदक्षिण  ।
देवाग्रे प्रसारे पद हय वीरासीन  ॥ १४.१७ ॥
देवाग्रे शयन आर भक्षण करय  ।
मिथ्या कथा उच्च भाषा जल्पना निचय  ॥ १४.१८ ॥
निग्रहानुग्रह युद्ध अभक्ति रोदन  ।
क्रूर भाषा पर निन्दा कम्बलावरण  ॥ १४.१९ ॥
पर स्तुति, अश्लीलता, वायुविमोक्षण  ।
शक्ति सत्त्वे गौण उपचारेर योजन  ॥ १४.२० ॥
देवानिवेदित द्रव्य भक्षणे स्वीकार  ।
कालोदित फलादिर अनर्पण आर  ॥ १४.२१ ॥
अन्य भुक्त अवशिष्ट खाद्य निवेदन  ।
देव प्रति पृष्ठ करि सम्मुखे आसन  ॥ १४.२२ ॥
देवाग्रे अन्येर अभिवादन पूजन  ।
गुरु प्रति मौन निज स्तोत्र आलोचन  ॥ १४.२३ ॥
देवता निन्दन एइ द्वात्रिंश प्रकार  ।
सेवा अपराध महा पुराणे प्रचार  ॥ १४.२४ ॥
अन्य शास्त्र मते प्रकार वर्णन

अन्यत्र आछये अपराध अन्यतम  ।
संक्षेपे बलिब प्रभु तव इच्छा मत  ॥ १४.२५ ॥
राजान्न भोजन आर अन्धकार घरे  ।
प्रवेशिया देव मूर्ति संस्पर्शन करे  ॥ १४.२६ ॥
अविधि पूर्वक हरि मृत्यु समर्पण  ।
विना वाद्ये मन्दिरेर द्वार उद्घाटन  ॥ १४.२७ ॥
सारमेय दृष्ट खाद्य देवे समर्पण  ।
अर्चन समये मौन भङ्ग अकारणे  ॥ १४.२८ ॥
बहिर्देशे गमनादि पूजार समये  ।
गन्ध माल्य नाहि दिया धूपन करये  ॥ १४.२९ ॥
अनर्हपुष्पेते कृष्ण पूजादि करण  ।
अधौत वदने कृष्ण पूजा आरम्भन  ॥ १४.३० ॥
स्त्री सङ्ग करिया किम्बा रजःस्वला नारी  ।
दीप, शब स्पर्शिया, अयोग्य वस्त्र परिऽ  ॥ १४.३१ ॥
शब हेरिऽ, अधोवायु करिया मोक्षण  ।
क्रोध करिऽ श्मशानेते करिया गमन  ॥ १४.३२ ॥
अजीर्ण उदरे आर कुसुम्भ पैनाक  ।
सेवन करिया आर ताम्बुल गुवाक  ॥ १४.३३ ॥
तैल माखि करि हरिश्रीमूर्तिस्पर्शन  ।
एरण्डपत्रस्थ पुष्पे करय अर्चन  ॥ १४.३४ ॥
आसुरिक काले पूजे पीठे भूमे बसि  ।
स्नपन समये मूर्ति वाम हस्ते स्पर्शिऽ  ॥ १४.३५ ॥
वासि वा याचित फुले देवता अर्चन  ।
पूजा काले गर्व उक्ति अयथा ष्ठीवन  ॥ १४.३६ ॥
तिर्यक्पुण्ड्र धरे आर अधौत चरणे  ।
मन्दिरे प्रवेश करे पूजार कारणे  ॥ १४.३७ ॥
अवैष्णव पक्व करे देवे निवेदन  ।
अवैष्णवे देखाइया करये पूजन  ॥ १४.३८ ॥
विश्वक्सेने ना पूजिया कापालि देखिया  ।
हरि पूजे नख जले श्री मूर्ति स्मरिया  ॥ १४.३९ ॥
घर्माम्बुसंस्पृष्ट जले करये अर्चन  ।
कृष्णेर शपथ करे निर्माल्य लङ्घन  ॥ १४.४० ॥
एइ सब कार्य्ये हय सेवा अपराध  ।
सेवाकारी जनेर याहाते भक्ति बाध  ॥ १४.४१ ॥
सेवापराध याहार पक्षे याहा, ताहा तिनि वर्ज्जन करिबेन

श्रीमूर्ति सम्बन्धे यार भजन पूजन  ।
सेवा अपराध तेङ्ह करुन् वर्ज्जन  ॥ १४.४२ ॥
वैष्णव सर्वदा नाम सेवा अपराध  ।
वर्जिया श्रीकृष्णसेवा करुन आस्वाद  ॥ १४.४३ ॥
एइ सब अपराध मध्ये याङ्र याहा  ।
सम्बन्धे पडिबे ताङ्र वर्ज्जनीय ताहा  ॥ १४.४४ ॥
नामापराध सकल वैष्णवमात्रेरे वर्ज्जनीय

किन्तु नाम अपराध सकल वैष्णव  ।
सर्व काल त्यजिऽ लभे भक्तिर वैभव  ॥ १४.४५ ॥
भावसेवाय सेवापराध विचार स्वल्प

श्रीमूर्ति विरहे यिनि निर्ज्जनेते बसिऽ  ।
भजनकारणे भाव मार्गे अहर्निशि  ॥ १४.४६ ॥
नाम अपराध सदा वर्ज्जनीय ताङ्र  ।
नाम अपराध दश सर्व क्लेशाधार  ॥ १४.४७ ॥
नाम अपराध गते भाव सेवा हय  ।
अतएव अपराध ताहे नाहि रय  ॥ १४.४८ ॥
नाम स्मरण कारीदेर भावसेवाइ कर्तव्य

श्री नाम स्मरणे भाव सेवार उदय  ।
तोमार कृपाय प्रभु जीवे भाग्योदय  ॥ १४.४९ ॥
भक्तिर साधन यत आछय प्रकार  ।
से सब चरमे देय नामे प्रेम सार  ॥ १४.५० ॥
अतएव नाम लय नाम रसे मजे  ।
अन्य ये प्रकार सब ताहा नाहि भजे  ॥ १४.५१ ॥
हरिदास आज्ञा बले अकिञ्चन जन  ।
हरिनामचिन्तामणि करिला कीर्तन  ॥ १४.५२ ॥

(१५)
पञ्चदश परिच्छेद
भजनप्रणाली

गदाइ गौराङ्ग जय जय नित्यानन्द  ।
जय सीतानाथ जय गौरभक्तवृन्द  ॥ १५.१ ॥
सब छाडि हरिनाम जे करे भजन  ।
जय जय भाग्यवान् सेइ महाजन  ॥ १५.२ ॥
प्रभु बले हरिदास तुमि भक्तिबले  ।
पेयेछ सकल ज्ञान ए जगतीतले  ॥ १५.३ ॥
सर्ववेद नाचे देखि तोमार जिह्वाय  ।
सकल सिद्धान्त देखि तोमार कथाय  ॥ १५.४ ॥

नामरसजिज्ञासा

एबे स्पष्ट बल नामरस कि प्रकार  ।
कि रूपे लभिबे जीव ताहे अधिकार  ॥ १५.५ ॥
हरिदास महाप्रेमे करे निवेदन  ।
तोमार प्रेरणाबले करिब वर्णन  ॥ १५.६ ॥

रसतत्त्व

शुद्धतत्त्व परतत्त्व येइ वस्तु सिद्ध  ।
रस नामे सर्ववेदे ताहाइ प्रसिद्ध  ॥ १५.७ ॥
सेइ से अखण्ड रस परब्रह्म तत्त्व  ।
अनन्त आनन्दधाम चरम महत्त्व  ॥ १५.८ ॥
शक्ति शक्तिमान् रूपे विशेष ताहाय  ।
भेद नाइ भेद सम दर्शनेते भाय  ॥ १५.९ ॥
शक्तिमान् सुदुर्लक्ष्य शक्ति प्रकाशिनी  ।
त्रिविध शक्तिर क्रिया विश्वविकाशिनी  ॥ १५.१० ॥

चिच्छक्तिद्वारा वस्तुप्रकाश

चिच्छक्तिस्वरूपे प्रकाशये वस्तु रूप  ।
वस्तु नाम वस्तु धाम तत्क्रिया स्वरूप  ॥ १५.११ ॥
कृष्ण से परम वस्तु श्याम तार रूप  ।
कृष्णधाम गोलोकादि लीलार स्वरूप  ॥ १५.१२ ॥
नाम धाम रूप गुण लीला आदि यत  ।
सकले अखण्डाद्वय ज्ञान अन्तर्गत  ॥ १५.१३ ॥
विचित्रता यत सब परा शक्ति कर्म  ।
कृष्ण धर्मी परा शक्ति कृष्ण नित्य कर्म  ॥ १५.१४ ॥
धर्मधर्मी भेद नाइ अखण्ड अद्वये  ।
विचित्र विशेष मात्र सच्चिन्निलये  ॥ १५.१५ ॥

मायाशक्तिर स्वरूप

सेइ शक्तिछाया एक माया संज्ञा पाय  ।
बहिरङ्ग विश्व सृजे कृष्णेर इच्छाय  ॥ १५.१६ ॥

जीवशक्ति

भेदाभेदमयी जीवशक्ति जीवगणे  ।
ताटस्थ्ये प्रकाशे कृष्ण सेवार कारणे  ॥ १५.१७ ॥

दुइ प्रकार दशा विशिष्ट जीव

नित्यबद्ध नित्यमुक्त जीव द्विप्रकार  ।
नित्य मुक्ते नित्य कृष्ण सेवा अधिकार  ॥ १५.१८ ॥
नित्य बद्ध माया गुणे करये संसार  ।
बहिर्मुख अन्तर्मुख भेदे द्विप्रकार  ॥ १५.१९ ॥
अन्तर्मुख साधुसङ्गे कृष्णनाम पाय  ।
कृष्णनामप्रभावेते कृष्णधामे याय  ॥ १५.२० ॥

रस नामस्वरूप

नाम त अखण्ड रस कलिका ताहार  ।
कृष्ण आदि संज्ञारूपे विश्वेते प्रचार  ॥ १५.२१ ॥

रस रूपस्वरूप
स्वल्प स्फुट कलिका से रूप मनोहर  ।
श्रीगोलोके वृन्दावने श्रीश्यामसुन्दर  ॥ १५.२२ ॥

रस गुणस्वरूप

सौरभित कलिका से चतुःषष्ठिगुण  ।
प्रकाशे नामेर तत्त्व जानेन निपुण  ॥ १५.२३ ॥

रस लीलास्वरूप

पूर्ण प्रस्फुटित नाम कुसुम सुन्दर  ।
अष्टकाल नित्यलीला प्रकृतिर पर   ॥ १५.२४ ॥

भक्तिस्वरूप

जीवे नाम कृपोदये स्वरूप ह्लादिनी  ।
संवितेर सारयुता भक्तिस्वरूपिणी  ॥ १५.२५ ॥

भक्तिक्रिया

आविर्भूत हये नामे प्रस्फुटित करि  ।
रसेर सामग्री प्रकाशये सर्वेश्वरी  ॥ १५.२६ ॥
विशुद्ध चिन्मय जीव लभिया स्वरूप  ।
सेइ रसे प्रवेशे एइ अपरूप  ॥ १५.२७ ॥

रसेर विभाव आलम्बन

रसेर विभाव सेइ तत्त्व आलम्बन  ।
तद्आश्रय भक्त, तद्विषय कृष्णधन  ॥ १५.२८ ॥
नाम करे अविरत भक्त महाशय  ।
कृपा करि रूपगुणलीलार उदय  ॥ १५.२९ ॥

रसेर विभाव उद्दीपन

उद्दीपन कृष्णरूप गुणादिक यत  ।
आलम्बन उद्दीपन विभावे संयुत  ॥ १५.३० ॥

विभाव हैते अनुभाव

विभाव सम्पूर्ण हैले अनुभाव हय  ।
प्रेमेर विकार सब शुद्ध प्रेममय  ॥ १५.३१ ॥

सञ्चारिभाव ओ सात्त्विकमिश्रे विभाव क्रिया करे, स्थायीभावे रस हय

सञ्चारी सात्त्विक क्रमे उदित हेले  ।
स्थायीभाव रस हय सर्वशास्त्र बले  ॥ १५.३२ ॥


ताहा पाइबार क्रम

सेइ रस सर्वसार सिद्धिसार जानि  ।
परम पुरुष अर्थ सर्वशास्त्रे मानि  ॥ १५.३३ ॥
भक्त्य्उन्मुख जीव शुद्धगुरुर कृपाय  ।
श्रीयुगल ब्रह्मनाम सौभाग्येते पाय  ॥ १५.३४ ॥
तुलसीमालाय नाम सङ्ख्या करि स्मरे  ।
अथवा कीर्तन करे परम आदरे  ॥ १५.३५ ॥
एक ग्रन्थ सङ्ख्या करि आरम्भिबे नाम  ।
क्रमे तिन लक्ष स्मरि पूरे मनस्काम  ॥ १५.३६ ॥
सङ्ख्या मध्ये किछु नाम करिबे कीर्तन  ।
ताते सर्वेन्द्रिय स्फूर्ति आनन्दनर्तन  ॥ १५.३७ ॥
नाम नवविध अङ्ग करय आश्रय  ।
तथापि कीर्तन स्मृति सर्वश्रेष्ठ हय  ॥ १५.३८ ॥

अर्चनमार्ग ओ श्रवणकीर्तनेर अधिकारभेदे क्रियाभेद

अर्चनमार्गेते गाढतर रुचि याङ्र  ।
श्रवणकीर्तनसिद्धि ताहाते ताङ्हार  ॥ १५.३९ ॥
नामे ऐकान्तिकी रति हेबे याङ्हार  ।
श्रवणकीर्तनस्मृति केवल ताङ्हार  ॥ १५.४० ॥

नाम श्रवणकीर्तनस्मरणे ये क्रम

सेवा नति दास्य सख्य आत्मनिवेदन  ।
सहजे नामेर सङ्गे हय प्रवर्तन  ॥ १५.४१ ॥
नामनामी एक तत्त्व विश्वास करिया  ।
दश अपराध छाडि निर्जने बसिया  ॥ १५.४२ ॥
अति स्वल्प दिने नाम हेया सदय  ।
श्रीश्यामसुन्दररूपे हयेन उदय  ॥ १५.४३ ॥
यबे नामरूपे ऐक्य हयत साधने  ।
नाम लैते रूप आइसे चित्ते सर्वक्षणे  ॥ १५.४४ ॥
तार किछु दिने रूपे गुण करि योग  ।
श्रीनाम स्मरणे गुण करय सम्भोग  ॥ १५.४५ ॥

नामरूपगुणेर एकता

स्वल्पदिने नाम रूप गुण एक हय  ।
नाम लैते सर्वक्षणे तिनेर उदय  ॥ १५.४६ ॥

उपासना मन्त्र ध्यान मयी

मन्त्र ध्यान मयी एइ नाम उपासना  ।
प्राथमिक धारा जानि करे विभावना  ॥ १५.४७ ॥
स्मृति काले योग पीठे कल्पद्रुमतले  ।
गोपगोपीवृते कृष्णे देखे कुतूहले  ॥ १५.४८ ॥
सात्त्विकविकार सब हय प्रस्फुटित  ।
भजन आनन्दे भक्त हय पुलकित  ॥ १५.४९ ॥
क्रमे यबे नाम स्वसौरभे प्रफुल्लित  ।
अष्टकाल कृष्णलीला हेबे उदित  ॥ १५.५० ॥

स्वारसिकी उपासना

स्वारसिकी उपासना हेबे उदय  ।
लीलोचित पीठे कृष्णे दर्शन करय  ॥ १५.५१ ॥
सङ्गे सङ्गे गुरुकृपा सिद्धस्वरूपेते  ।
लीलाय प्रवेशे भक्त सखीर सङ्गेते  ॥ १५.५२ ॥
महाभाव स्वरूपिणी वृषभानुसुता  ।
ताङ्र अनुगत भक्ति सदा प्रेमयुता  ॥ १५.५३ ॥
सखी आज्ञा मते करे युगलसेवन  ।
महाप्रेमे मग्न हय से रसिक जन  ॥ १५.५४ ॥

लिङ्गभङ्गे वस्तुसिद्धि

साधनभजनसिद्धि लागालागि ताय  ।
लिङ्गभङ्गे वस्तुसिद्धि तोमार कृपाय  ॥ १५.५५ ॥

तद्उत्तरावस्था वर्णन हय ना, केवल अनुभूत हय

इहार अधिक आर वाक्य नाहि चले  ।
तदुत्तर अनुभव लभि कृपाबले  ॥ १५.५६ ॥
एइ त उज्ज्वल रस परम साधन  ।
इहाते निश्चय मिले कृष्ण प्रेम धन  ॥ १५.५७ ॥

साधने एकादश भाव

साधिते उज्ज्वलरस   आछे भाव एकादश
सम्बन्ध वयस नाम रूप  ।
यूथ वेश आज्ञावास    सेवा पराकाष्ठाश्वास
पाल्यदासी एइ अपरूप  ॥ १५.५८ ॥

भाव साधने पञ्चदशा

एइ एकादश भाव सम्पूर्ण साधने  ।
पञ्च दशा लक्ष्य हय साधक जीवने  ॥ १५.५९ ॥
श्रवण वरण आर स्मरण आपन  ।
सम्पत्ति ए पञ्चविध दशाय गणन  ॥ १५.६० ॥

प्रथम श्रवण दशा

निजापेक्षा श्रेष्ठ शुद्धभावुक ये जन  ।
भावमार्गे गुरुदेव सेइ महाजन  ॥ १५.६१ ॥
ताङ्हार श्रीमुखे भावतत्त्वेर श्रवण  ।
हेले श्रवणदशा हय प्रकटन  ॥ १५.६२ ॥

भावतत्त्व

भावतत्त्व द्विप्रकार करह विचार  ।
निज एकादश भाव कृष्णलीला आर  ॥ १५.६३ ॥

क्रमे वरण दशा प्राप्ति

राधाकृष्ण अष्टकाल येइ लीला करे  ।
ताहार श्रवणे लोभ हय अतःपरे  ॥ १५.६४ ॥
लोभ हेले गुरुपदे जिज्ञासा उदय  ।
केमने पाइब लीला कह महाशय  ॥ १५.६५ ॥
गुरुदेव कृपा करि करिबे वर्णन  ।
लीलातत्त्वे एकादश भावसङ्घटन  ॥ १५.६६ ॥
प्रसन्न हेया प्रभु करिबे आदेश  ।
एइ भावे लीलामध्ये करह प्रवेश  ॥ १५.६७ ॥
शुद्ध रूपे सिद्ध भाव करिया श्रवण  ।
सेइ भाव स्वीय चित्ते करिबे वरण  ॥ १५.६८ ॥

निजरुचि श्रीगुरुदेवके बलिबे

वरण कालेते निज रुचि विचारिया  ।
गुरुपदे जानाइबे सरल हेया  ॥ १५.६९ ॥
प्रभु तुमि कृपा करि येइ परिचय  ।
दिले मोरे ताहे मोर पूर्ण प्रीति हय  ॥ १५.७० ॥
स्वभावतः मोर एइ भावे आछे रुचि  ।
अतएव आज्ञा शिरे धरि ह्ये शुचि  ॥ १५.७१ ॥

अन्यरुचि हेले गुरुदेव अन्यभाव दिबेन
रुचि यदि नहे तबे अकपट मने  ।
निवेदिबे निजरुचि श्रीगुरुचरणे  ॥ १५.७२ ॥
विचारिया गुरुदेव दिबे अन्यभाव  ।
ताहे रुचि हेले प्रकाशिबे निजभाव  ॥ १५.७३ ॥

निजसिद्धभाव गुरुदेवके जानाइबे

एइ रूपे गुरु शिष्य संवादे घटने  ।
निजसिद्धभाव स्थिर हेबे ये क्षणे  ॥ १५.७४ ॥
शिष्य गुरुपदे पडि करिबे मिनति  ।
मागिबे भावेर सिद्धि करिया काकुति  ॥ १५.७५ ॥
कृपा करि गुरुदेव करिबे आदेश  ।
शिष्य सेइ भावे तबे करिबे प्रवेश  ॥ १५.७६ ॥

दृढ वरण

श्रीगुरुचरणे पडि बलिबे तखन  ।
तवादिष्ट भाव आमि करिमु वरण  ॥ १५.७७ ॥
ए भाव कखन आमि ना छाडिब आर  ।
जीवने मरणे एइ सङ्गी ये आमार  ॥ १५.७८ ॥

भजने प्रतिबन्धक विचार

निज सिद्ध एकादश भावे व्रती हये  ।
स्मरिबे सुदृढचित्ते निजभावचये  ॥ १५.७९ ॥
स्मरणे विचार एक आछे त सुन्दर  ।
आपनेर योग्यस्मृति कर निरन्तर  ॥ १५.८० ॥
आपनेर अयोग्य स्मरण यदि हय  ।
बहु युग साधिले ओ सिद्धि कभु नय  ॥ १५.८१ ॥

आपनदशा

आपनसाधने स्मृति यबे हये व्रती  ।
अचिरे आपनदशा हय शुद्ध अति  ॥ १५.८२ ॥
निज शुद्धभावेर ये निरन्तर स्मृति  ।
ताहे दूर हय शीघ्र जडबद्धमति  ॥ १५.८३ ॥

बद्धजीव ये क्रमे भाव प्राप्त हन

जडबद्धजीव भुलि निज सिद्धसत्त्व  ।
जड अभिमाने हय जडदेहे मत्त  ॥ १५.८४ ॥
तबे यदि कृष्णलीला करिया श्रवण  ।
लोभ हय पाइबारे निज सिद्धधन  ॥ १५.८५ ॥
तबे भावतत्त्वस्मृति अनुक्षण करे  ।
भाव यत बाडे तार भ्रान्ति तत हरे  ॥ १५.८६ ॥

स्मरण दशा । ताहाते वैध ओ रागानुगता भावेर भेद । शेषटीरे प्रयोजन

स्मरण द्विविध वैध रागानुग आर  ।
रागानुगा स्मृति युक्तिशास्त्र हैते पार  ॥ १५.८७ ॥
माधुर्य आकृष्ट हये करये स्मरण  ।
अचिराते प्राप्त हय दशा भावापन  ॥ १५.८८ ॥

वैधभक्तेर उन्नतिक्रमे

वैधभक्त स्मृतिकाले सदा विचारय  ।
अनुकूल युक्तिशास्त्र यखन ये हय  ॥ १५.८९ ॥
भावापने हय भाव आविर्भावकाल  ।
शास्त्रयुक्ति छाडे तबे जानिया जञ्जाल  ॥ १५.९० ॥
श्रद्धा निष्ठा रुच्य्आसक्तिक्रमे येइ भाव  ।
आपन समये ताहा हय आविर्भाव  ॥ १५.९१ ॥

आपनदशाय रागानुग ओ वैधभक्तेर भेद नाइ

भावापने रागानुगा वैधभक्त भेद  ।
नाहि थाके कोन मते गाय स्मृति वेद  ॥ १५.९२ ॥

पञ्चविध स्मरण

स्मरण धारणा ध्यान अनुस्मृति आर  ।
समाधि ए पञ्चविध स्मरण प्रकार  ॥ १५.९३ ॥

भावापन दशार उदय काल

समाधि स्वरूप स्मृति ये समये हय  ।
भावापन दशा आसि हेबे उदय  ॥ १५.९४ ॥

से समये ये अवस्था हय

सेइ काले निज सिद्धदेह अभिमान  ।
पराजिया जडदेह हबे अधिष्ठान  ॥ १५.९५ ॥
तखन स्वरूपे व्रजवास क्षणे क्षण  ।
भावापने स्वस्वरूपे हेरि व्रजवन  ॥ १५.९६ ॥
आपने स्वरूपसिद्धि, वस्तुसिद्धि लिङ्गभङ्गे

आपने स्वरूपसिद्धि लभे भाग्यवान्  ।
लिङ्गभङ्गे वस्तुसिद्धि सम्पत्ति विधान  ॥ १५.९७ ॥

साधनसिद्धिर फल

हेया साधनसिद्धा नित्यसिद्धा सह  ।
समता लभिया कृष्णसेवे अहरहः  ॥ १५.९८ ॥

नामद्वारा सिद्धिलाभ

सेवाभङ्ग आर तार कभु नाहि हय  ।
परम उज्ज्वल रसे सतत मातय  ॥ १५.९९ ॥
नाम से परम धन नामेर आश्रये  ।
एत सिद्धि पाय जीव शुद्धसत्त्व हये  ॥ १५.१०० ॥

संक्षेपे क्रम परिचय

अतएव भक्त्य्उन्मुखजन साधुसङ्गे  ।
निर्जने करिबे नाम क्रमेर अभङ्गे  ॥ १५.१०१ ॥
क्रमे क्रमे अल्पकाले सर्वसिद्धि हय  ।
कुसङ्ग वर्जिया साधुसङ्गे फलोदय  ॥ १५.१०२ ॥

(१) साधुसङ्ग, (२) सुनिर्जन, (३) दृढभाव

साधुसङ्ग सुनिर्जन निज दृढभाव  ।
एइ तिन बले लभि महिमा स्वभाव  ॥ १५.१०३ ॥
आमि हीन क्षुद्रमति विषये विभोर  ।
साधुसङ्ग विवर्जित सदा आत्मचोर  ॥ १५.१०४ ॥
अहैतुकी कृपा कभु करिया विस्तार  ।
भक्तिरसे गति देह प्रार्थना आमार  ॥ १५.१०५ ॥
एत बलि हरिदास प्रेमे अचेतन  ।
श्रीगौराङ्ग पदे करे देह समर्पण  ॥ १५.१०६ ॥
प्रेमे गद्गद प्रभु ताङ्हारे उठाय  ।
आलिङ्गन दिया चित्तकथा बले ताय  ॥ १५.१०७ ॥

प्रभुर आज्ञा

शुन हरिदास एइ लीला संगोपने  ।
विश्व अन्धकार करिबेक दुष्ट जने  ॥ १५.१०८ ॥
सेइ काले तोमार ए चरमोपदेश  ।
अवशिष्ट साधुजने बुझिबे विशेष  ॥ १५.१०९ ॥
एइ तत्त्व नामाश्रये निष्किञ्चन जन  ।
निर्जने बसिया कृष्ण करिबे भजन  ॥ १५.११० ॥
निज निज भाग्यबले जीव पाय भक्ति  ।
भक्ति लभिबारे सकलेर नाहि शक्ति  ॥ १५.१११ ॥
सुकृति जनेर भक्ति दृढ करिबारे  ।
आइलाम युगधर्म नामेर प्रचारे  ॥ १५.११२ ॥

हरिदास ठाकुर नामप्रचारेर सहाय

तुमि त सहाय मोर ए कार्य साधने  ।
तव मुखे नामतत्त्व शुनि ए कारणे  ॥ १५.११३ ॥

हरिनाम चिन्तामणि    अखिल अमृत खनि
कृष्णकृपा बले ये पाइल  ।
कृतार्थ से महाशय    सदा पूर्णानन्दमय
रागभावे श्रीकृष्ण भजिल  ॥ १५.११४ ॥

ताङ्हार चरण धरि    सदा काकुति करि
काङ्दे एइ अकिञ्चन छार  ।
ए अमृतरसलेश पियाइया अवशेष
कर सार आनन्द विस्तार  ॥ १५.११५ ॥

इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ भजनप्रणालीप्रदर्शनं नाम
पञ्चदशः परिच्छेदः
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