श्रीहरिनामचिन्तामणि
श्रीगोद्रुमचन्द्राय नमः
(१)
प्रथमपरिच्छेद
श्रीनाममाहात्म्यसूचना
गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण ॥ १.१ ॥
लवण जलधि तीरे नीलाचले श्री मन्दिरे
दारु ब्रह्म पुरुष प्रधान ।
जीवे निस्तारिते हरि अर्चा रूपे अवतरि
भोग मोक्ष करेन प्रदान ॥ १.२ ॥
सेइ धामे श्री चैतन्य मानवे करिते धन्य
सन्न्यासी रूपेते भगवान् ।
कलिते ये युग धर्म बुझाइते तार मर्म
काशी मिश्र घरे अधिष्ठान ॥ १.३ ॥
निज भक्त वृन्द लये निजे कल्प तरु हये
कृष्ण प्रेम देन सर्व जने ।
नाना मते भक्त मुखे भक्त कथ शुनि सुखे
जीव शिक्षा देन सुयतने ॥ १.४ ॥
एक दिन भगवान् समुद्रे करिया स्नान
श्री सिद्ध बकुले हरि दासे ।
मिलि आनन्दित मने जिज्ञासिला सयतने
किसे जीव तरे अनायासे ॥ १.५ ॥
प्रभुर चरण धरिऽ अनेक विनय करिऽ
गलद्अश्रु पुलक शरीर ।
हरिदास महाशय काङ्दिते काङ्दिते कय
प्रभु तव लीला सुगभीर ॥ १.६ ॥
आमि अति अकिञ्चन नाहि मोर विद्या धन
तव पद आमार सम्बल ।
ए हेन अयोग्य जने प्रश्न करिऽ अकारणे
बल प्रभु हबे किबा फल ॥ १.७ ॥
तुमि कृष्ण स्वयं प्रभो जीव उद्धारिते विभो
नवद्वीप धामे अवतार ।
कृपा करिऽ राङ्गा पाय राख मोरे गौर राय
तबे चित्त प्रफुल्ल आमार ॥ १.८ ॥
तोमार अनन्त नाम तवानन्त गुण ग्राम
तव रूप सुखेर सागर ।
अनन्त तोमार लीला कृपा करिऽ प्रकाशिला
ताइ आस्वादये ए पामर ॥ १.९ ॥
चिन्मय भास्कर तुमि किरणेर कण आमि
तुमि प्रभु, आमि नित्य दास ।
चरण पीयूष तव मम सुख सुवैभव
तव नामामृते मोर आश ॥ १.१० ॥
ए मत अधम आमि कि बलिते जानि स्वामी
तबु आज्ञा करिब पालन ।
या बलाबे मोर मुखे तोमारे बलिब सुखे
दोष गुण ना करि गणन ॥ १.११ ॥
कृष्णतत्त्व
एकमात्र इच्छामय कृष्ण सर्वेश्वर ।
नित्य शक्तियोगे कृष्ण विभु परात्पर ॥ १.१२ ॥
कृष्ण कृष्णशक्ति
कृष्णशक्ति कृष्ण हैते ना हय स्वतन्त्र ।
येइ शक्ति सेइ कृष्ण कहे वेदमन्त्र ॥ १.१३ ॥
कृष्ण विभु, शक्ति ताङ्र वैभव स्वरूप ।
अनन्त वैभवे कृष्ण हय एक रूप ॥ १.१४ ॥
त्रिविध वैभव
शक्तिर प्रकाश येइ सेइ त वैभव ।
विभुर वैभव मात्र हय अनुभव ॥ १.१५ ॥
वैभव त्रिविध तव गौराङ्ग सुन्दर
चिदचित्जीव तिन शास्त्रेर गोचर ॥ १.१६ ॥
चिद्वैभव
अनन्त वैकुण्ठ आदि यत कृष्ण धाम ।
गोविन्द श्रीकृष्ण हरि आदि यत नाम ॥ १.१७ ॥
द्विभुज मुरलीधर आदि यत रूप ।
भक्तानन्दप्रद आदि गुण अपरूप ॥ १.१८ ॥
व्रज रसलीला नवद्वीपे सङ्कीर्तन ।
एइ रूप कृष्ण लीला विचित्र गणन ॥ १.१९ ॥
ए समस्त चिद्वैभव अप्राकृत हय ।
आसियौ ए प्रपञ्चे प्रापञ्चिक नय ॥ १.२० ॥
चिद्व्यापार समुदय विष्णुतत्त्वसार ।
विष्णुपद बलि वेदे गाय बार बार ॥ १.२१ ॥
कृष्णेर चिद्विभुते विष्णुतत्त्व शुद्धतत्त्व
नाहि ताहे जडधर्म मायार विकार ।
जडातीत विष्णुतत्त्व शुद्धसत्त्वसार ॥ १.२२ ॥
शुद्धसत्त्व रजस्तमोगन्धविरहित ।
रजस्तमोमिश्र मिश्रसत्त्व सुविदित ॥ १.२३ ॥
गोविन्द वैकुण्ठनाथ कारणोदशायी ।
गर्भोदशायी आर क्षीरसिन्धुशायी ॥ १.२४ ॥
आर यत स्वांश परिचित अवतार ।
सेइ सब शुद्धसत्त्व विष्णुतत्त्वसार ॥ १.२५ ॥
गोलोके वैकुण्ठे आर कारणसागरे ।
अथवा ए जडे थाके, विष्णुनाम धरे ॥ १.२६ ॥
प्रवेशि ए जड विश्व मायार अधीश ।
विष्णुनाम प्राप्त विभु सर्वदेव ईश ॥ १.२७ ॥
मायार ईश्वर मायी शुद्धसत्त्वमय ।
मिश्रसत्त्व
मिश्रसत्त्व ब्रह्मा शिव आदि सब हय ॥ १.२८ ॥
चिद्वैभवेर विस्तृति
ए समस्त विष्णुतत्त्व आर विष्णुधाम ।
तव चिद्वैभव नाथ तव लीलाग्राम ॥ १.२९ ॥
अचिद्वैभव मायतत्त्व
विरजार एइ पारे यत वस्तु हय ।
अचित्वैभव तव चौद्दलोकमय ॥ १.३० ॥
मायार वैभव बलि बले देवीधाम ।
पञ्चभूत मनो बुद्धि अहङ्कार नाम ॥ १.३१ ॥
ए भूर्लोक, भुवर्लोक आर स्वर्गलोक ।
महर्लोक, जनतपसत्यब्रह्मलोक ॥ १.३२ ॥
अतलसुतलादि निम्न लोक सात ।
मायिक वैभव तव शुन जगन्नाथ ॥ १.३३ ॥
चिद्वैभव पूर्णतत्त्व माया छाया तार ।
जीववैभव
चिद्अणुस्वरूप जीव वैभव प्रकार ॥ १.३४ ॥
चिद्धर्मवशतः जीव स्वतन्त्र गठन ।
सङ्ख्याय अनन्त सुख तार प्रयोजन ॥ १.३५ ॥
मुक्त जीव
सेइ सुख हेतु यारा कृष्णेरे बरिल ।
कृष्णपारिषद मुक्तरूपेते रहिल ॥ १.३६ ॥
बद्ध वा बहिर्मुख जीव
यारा पुनः निजसुख करिया भावना ।
पार्श्वस्थिता माया प्रति करिल कामना ॥ १.३७ ॥
सेइ सब नित्यकृष्णबहिर्मुख हैल ।
देवीधामे मायाकृत शरीर पाइल ॥ १.३८ ॥
पुण्य पाप कर्म चक्रे पडिया एखन ।
स्थूल लिङ्ग देहे सदा करेन भ्रमण ॥ १.३९ ॥
कभु स्वर्गे उठे, कभु निरये पडिया ।
चौराशि लक्ष योनि भोगे भ्रमिया भ्रमिया ॥ १.४० ॥
तथापि कृष्णदया
तुमि विभु, तोमार वैभव जीव हय ।
दासेर मङ्गल चिन्ता तोमार निश्चय ॥ १.४१ ॥
दास याहा सुख मानि करे अन्वेषण ।
तुमि ताहा कृपा करि कर वितरण ॥ १.४२ ॥
प्राकृत शुभकर्म कर्मकाण्ड
मायार वैभवे ये अनित्य सुख चाय
तोमार कृपाय से अनायासे पाय ॥ १.४३ ॥
सेइ सुख प्राप्त्य्उपाय शुभकर्म यत ।
निरमिले धर्मयज्ञयोगहोमव्रत ॥ १.४४ ॥
सेइ सब शुभकर्म सदा जडमय ।
चिन्मयी प्रवृत्ति ताहे कभु ना मिलय ॥ १.४५ ॥
ताहार साधने साध्य जडमय फल ।
उच्चलोक भोग सुख ताहाते प्रबल ॥ १.४६ ॥
सेइ सब कर्मभोग नाहि आत्मशान्ति ।
ताहाते प्रयास करा अतिशय भ्रान्ति ॥ १.४७ ॥
सेइ सब शुभ कर्म उपाय हैया ।
अनित्य उपेय साधे लोक सुख दिया ॥ १.४८ ॥
सेइ अवस्था हैते उद्धारेर उपाय
कभु यदि साधु सङ्गे जानिते से पारे ।
आमि जीव कृष्णदास, याय माया पारे ॥ १.४९ ॥
से विरल फल मात्र सुकृतिजनित ।
तुच्छ कर्मकाण्ड नाहि करिले विहित ॥ १.५० ॥
ज्ञानकाण्ड, ब्रह्मलय सुख
आर यिनि मायार यन्त्रणा मात्र जानि ।
मुक्ति लाभे यत्नवान् तिनि हन ज्ञानी ॥ १.५१ ॥
से सब लोकेर जन्य तुमि दयामय ।
ज्ञानकाण्ड ब्रह्मविद्या दियाछ निश्चय ॥ १.५२ ॥
सेइ विद्या मायावाद करिया आश्रय ।
जड मुक्त हये ब्रह्मे जीव हय लय ॥ १.५३ ॥
ब्रह्मवस्तु कि?
सेइ ब्रह्म तव अङ्गकान्ति ज्योतिर्मय ।
विरजार पारे स्थित ताते हय लय ॥ १.५४ ॥
ये सब असुरे विष्णु करेन संहार ।
ताहारौ सेइ ब्रह्मे याय मायापार ॥ १.५५ ॥
कृष्णबहिर्मुख
कर्मी ज्ञानी उभये इ कृष्णबहिर्मुख ।
कभु नाहि आस्वादय कृष्णदास्यसुख ॥ १.५६ ॥
भक्त्य्उन्मुखी सुकृति
भक्तिर उन्मुखी सेइ सुकृति प्रधान ।
तार फले जीव भक्तसाधुसङ्ग पान ॥ १.५७ ॥
श्रद्धावान् हये कृष्णभक्तसङ्ग करे ।
नामे रुचि, जीवे दया, भक्तिपथ धरे ॥ १.५८ ॥
कर्मी ओ ज्ञानीर प्रति कृपाय गौणपथ विधान
दयार सागर तुमि जीवेर ईश्वर ।
कर्मी ज्ञानी बहिर्मुख उद्धारे तत्पर ॥ १.५९ ॥
कर्मपथे ज्ञानपथे पथिक ये जन ।
ताहार उद्धार लागि तोमार यतन ॥ १.६० ॥
सेइ सेइ पथिकेर मङ्गल चिन्तिया ।
गौणभक्ति पथ एक राखिल करिया ॥ १.६१ ॥
कर्मीर पक्षे कर्मेर गौणभक्ति पथ
कर्मी वर्णाश्रमे थाकि साधुसङ्ग करि ।
कर्म माझे भक्ति करे गौणपथ धरि ॥ १.६२ ॥
तार कृत कर्म सब हृदय शोधिया ।
तिरोहित हय श्रद्धा बीजे स्थान दिया ॥ १.६३ ॥
ज्ञानीर गौणपथ
ज्ञानी सुकृतिर बले भक्तेर कृपाय ।
अनन्य भक्तिते श्रद्धा बीजे स्थान दिया ॥ १.६४ ॥
तुमि बल मोर दास मायार विपाके ।
चाहे अन्य तुच्छ फल छाडिया आमाके ॥ १.६५ ॥
आमि जानि तार याते हय सुमङ्गल ।
भुक्ति मुक्ति छाडाइया दी भक्ति फल ॥ १.६६ ॥
गौणपथेर प्रक्रिया
तार काम अनुसारे चालाञा ताहारे
गौणपथ भक्तिमार्गे श्रद्धा दी तारे ॥ १.६७ ॥
ए तोमार कृपा प्रभु तुमि कृपामय ।
कृपा ना करिले किसे जीव शुद्ध हय ॥ १.६८ ॥
कलिते गौणपथेर दुर्दशा
सत्ययुगे ध्यानयोगे कत ऋषिगणे ।
शुद्ध करिऽ दिले प्रभु निजभक्तिधने ॥ १.६९ ॥
त्रेतायुगे यज्ञकर्मे अनेक शोधिले ।
द्वापरे अर्चनमार्गे भक्ति बिलाइले ॥ १.७० ॥
कलि आगमने नाथ जीवेर दुर्दशा ।
देखि ज्ञान कर्म योग छाडिल भरसा ॥ १.७१ ॥
अल्प आयु, बहु पीडा, बलबुद्धिह्रास ।
एइ सब उपद्रव जीवे कैल ग्रास ॥ १.७२ ॥
वर्णाश्रम धर्म आर साङ्ख्य योग ज्ञान ।
कलिजीवे उद्धारिते नहे बलवान् ॥ १.७३ ॥
ज्ञानकर्मगत ये भक्तिर गौणपथ ।
कण्टके सङ्कीर्ण हञा हैल विपथ ॥ १.७४ ॥
पृथकुपाय धरि उपेय साधने ।
विघ्न बहुतर हैल जीवेर जीवने ॥ १.७५ ॥
नामालोचनार मुख्यपथ
प्रभु तुमि जीवेर मङ्गल चिन्ता करि ।
कलि युगे नाम सङ्गे स्वयमवतरि ॥ १.७६ ॥
युग धर्म प्रचारिले नाम सङ्कीर्तन ।
मुख्य पथे जीव पाय कृष्ण प्रेम धन ॥ १.७७ ॥
नामेर स्मरणे आर नामसङ्कीर्तन ।
एइ मात्र धर्म जीव करिबे पालन ॥ १.७८ ॥
साध्यसाधन ओ उपाय उपेयेर अभेदताक्रमे नामेर मुख्यता
येइ त साधन सेइ साध्य यबे हैल ।
उपाय उपेय मध्ये भेद ना रहिल ॥ १.७९ ॥
साध्येर साधने आर नाहि अन्तराय ।
अनायासे तरे जीव तोमार कृपाय ॥ १.८० ॥
आमि त अधम अति मजिया विषये ।
ना भजिनु नाम तव अति मूढ हये ॥ १.८१ ॥
दर दर धारा चक्षे ब्रह्महरिदास ।
पडिल प्रभुर पदे छाडिया निःश्वास ॥ १.८२ ॥
हरि भक्त भक्ति मात्रे विनोद याहार ।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार ॥ १.८३ ॥
इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ नाममाहात्मसूचनं नाम प्रथमः परिच्छेदः ।
(२)
द्वितीय परिच्छेद
नामग्रहणविचार
गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण ॥ २.१ ॥
महाप्रेमे हरिदास करेन रोदन ।
प्रेमे तारे गौरचन्द्र दिला आलिङ्गन ॥ २.२ ॥
बलेन तोमार सम भक्त कोथा आर ।
सर्वतत्त्वज्ञाता तुमि सदा मायापार ॥ २.३ ॥
अनन्य भजनेर श्रेष्ठता
निचकुले अवतरि देखाले सकले ।
धने माने कुले शीले कृष्ण नाहि मिले ॥ २.४ ॥
अनन्य भजने याङ्र श्रद्धा अतिशय ।
देवता अपेक्षा श्रेष्ठ सेइ महाशय ॥ २.५ ॥
श्रीहरिदासेर नामाचार्य्यता
नामतत्त्व सर्वसार तोमार विदित ।
आचारे आचार्य्य तुमि प्रचारे पण्डित ॥ २.६ ॥
बल हरिदास नाममहिमा अपार ।
शुनिया तोमार मुखे आनन्द आमार ॥ २.७ ॥
वैष्णवलक्षण
एक नाम यार मुखे वैष्णव से हय ।
तारे गृही यत्न करि मानिबे निश्चय ॥ २.८ ॥
वैष्णवतरलक्षण
निरन्तर यार मुखे शुनि कृष्णनाम ।
सेइ से वैष्णवतर सर्वगुणधाम ॥ २.९ ॥
वैष्णवतमलक्षण
वैष्णव उत्तम सेइ याहारे देखिले ।
कृष्णनाम आसे मुखे कृष्णभक्ति मिले ॥ २.१० ॥
हेन कृष्णनाम जीव कि रूपे करिबे ।
ताहार विधान तुमि आमारे बलिबे ॥ २.११ ॥
कर युडि हरिदास बलेन वचन ।
प्रेम गदगद स्वर सजल नयन ॥ २.१२ ॥
नामेर स्वरूप
कृष्णनाम चिन्तामणि अनादि चिन्मय ।
येइ कृष्ण सेइ नाम एकतत्त्व हय ॥ २.१३ ॥
चैतन्य विग्रह नाम नित्य मुक्त तत्त्व ।
नाम नामी भिन्न नय नित्य शुद्ध सत्त्व ॥ २.१४ ॥
ए जड जगते ताङ्र अक्षर आकार ।
रसरूपे रसिकेते सत्त्व अवतार ॥ २.१५ ॥
कृष्ण वस्तु हय चारि धर्मे परिचित ।
नाम रूप गुण कर्म अनादि विहित ॥ २.१६ ॥
नाम नित्यसिद्ध
नित्य वस्तु रसरूप कृष्ण से अद्वय ।
सेइ चारि परिचये वस्तु सिद्ध हय ॥ २.१७ ॥
सन्धिनी शक्तिते ताङ्र चारि परिचय ।
नित्यसिद्ध रूपे ख्यात सर्वदा चिन्मय ॥ २.१८ ॥
कृष्ण आकर्षये सर्व विश्वगत जन ।
सेइ नित्य धर्म गत कृष्ण नाम धन ॥ २.१९ ॥
कृष्णरूप नित्य
कृष्णरूप कृष्ण हैते सर्वदा अभेद ।
नाम रूप एक वस्तु नाहिक प्रभेद ॥ २.२० ॥
श्रीनाम स्मरिले रूप आइसे सङ्गे सङ्गे ।
रूप नाम भिन्न नय नाचे नाना रङ्गे ॥ २.२१ ॥
कृष्णगुण नित्य
कृष्णगुण चतुःषष्ठि अनन्त अपार ।
याङ्र निज अंशरूपे सब अवतार ॥ २.२२ ॥
याङ्र गुण अंशे ब्रह्मा शिवादि ईश्वर ।
याङ्र गुणे नारायण षष्ठि गुणेश्वर ॥ २.२३ ॥
सेइ सब नित्यगुणे नित्य नाम ताङ्र ।
अनन्त सङ्ख्याय व्याप्त वैकुण्ठ व्यापार ॥ २.२४ ॥
कृष्णलीलार नित्यत्व
सेइ गुण तरङ्गेते लीलार विस्तार ।
गोलोके वैकुण्ठ व्रज सब चिद्आकारे ॥ २.२५ ॥
चिद्वस्तुते नाम, रूप, गुण, लीला वस्तु हैते पृथक्नय
नाम रूप गुण लीला अभिन्न उदय ।
अचित्सम्पर्के बद्ध जीवे भिन्न हय ॥ २.२६ ॥
शुद्ध जीवे नाम रूप गुण क्रिया एक ।
जडाश्रित देहे भेद एइ से विवेक ॥ २.२७ ॥
कृष्णे नाहि जडगन्ध अतएव ताङ्य ।
नाम रूप गुण लीला एकतत्त्व भाय ॥ २.२८ ॥
नामेर सर्वमूलत्व
एइ चारि परिचय मध्ये नाम ताङ्र ।
सकलेर आदि से प्रतीति सबाकार ॥ २.२९ ॥
अतएव नाम मात्र वैष्णवेर धर्म ।
नामे प्रस्फुटित हय रूप गुण कर्म ॥ २.३० ॥
कृष्णेर समग्र लीला नामे विद्यमान ।
नामे से परम तत्त्व तोमार विधान ॥ २.३१ ॥
वैष्णव ओ वैष्णवप्राये भेद आछे
सेइ नाम बद्ध जीव श्रद्धा सहकारे ।
शुद्ध रूपे लैले वैष्णव बलि तारे ॥ २.३२ ॥
नामाभास यार हय से वैष्णवप्राय ।
कृष्णकृपा बले क्रमे शुद्ध भाव पाय ॥ २.३३ ॥
एइ मायिक जगते कृष्णनाम ओ जीव एइ दुइटि मात्र चिद्व्यापार
नाम सम वस्तु नाइ ए भव संसारे ।
नामे से परम धन कृष्णेर भाण्डारे ॥ २.३४ ॥
जीव निजे चिद्व्यापारे कृष्णनाम आर ।
आर सब प्रापञ्चिक जगत्संसार ॥ २.३५ ॥
मुख्य गौण भेदे नाम दुइ प्रकार
मुख्य ओ गौण भेदे कृष्णनाम द्विप्रकार ।
मुख्यनामाश्रये जीव पाय सर्व सार ॥ २.३६ ॥
चिल्लीला आश्रय करि यत कृष्ण नाम ।
सेइ सेइ मुख्य नाम सर्व गुण धाम ॥ २.३७ ॥
मुख्य नाम
गोविन्द गोपाल राम श्रीनन्दनन्दन ।
राधानाथ हरि यशोमती प्राणधन ॥ २.३८ ॥
मदनमोहन श्यामसुन्दर माधव ।
गोपीनाथ व्रजगोप राखाल यादव ॥ २.३९ ॥
एइ रूप नित्य लीला प्रकाशक नाम ।
ए सब कीर्तने जीव पाय कृष्ण धाम ॥ २.४० ॥
गौण नाम ओ ताहार लक्षण
जडा प्रकृतिर परिचये नाम यत ।
प्रकृतिर गुणे गौण वेदेर सम्मत ॥ २.४१ ॥
सृष्टिकर्ता परमात्मा ब्रह्म स्थितिकर ।
जगत्संहर्ता पाता यज्ञेश्वर हर ॥ २.४२ ॥
मुख्य ओ गौण नामेर फलभेद
एइरूप नाम कर्मज्ञानकाण्डगत ।
पुण्य मोक्ष दान करे शास्त्रेर सम्मत ॥ २.४३ ॥
नामेर ये मुख्य फल कृष्ण प्रेम धन ।
तार मुख्य नामे मात्र लभे साधु गण ॥ २.४४ ॥
नाम ओ नामाभासमात्र फलभेद
एक कृष्णनाम यदि मुखे बाहिराय ।
अथवा श्रवणपथे अन्तरेते याय ॥ २.४५ ॥
शुद्ध वर्ण हय वा अशुद्ध वर्ण हय ।
ताते जीव तरे एइ शास्त्रेर निर्णय ॥ २.४६ ॥
किन्तु एक कथा इथे आछे सुनिश्चित ।
नामाभास हैले विलम्बे हय हित ॥ २.४७ ॥
नामाभास हैले ओ अन्य शुभ हय ।
प्रेमधन केवल विलम्बे उपजय ॥ २.४८ ॥
नामाभासे पापक्षये शुद्ध नाम हय ।
तखने श्रीकृष्णप्रेम लभये निश्चय ॥ २.४९ ॥
व्यवहित वा व्यवधाने दोषे जन्मे
किन्तु व्यवहित हले हय अपराध ।
सेइ अपराधे हय प्रेमलाभ बाध ॥ २.५० ॥
नामनामी भेदबुद्धि व्यवधान हय ।
व्यवहित थाकिले कदापि प्रेम नय ॥ २.५१ ॥
व्यवधान दुइ प्रकार
वर्णव्यवधान आर तत्त्वव्यवधान ।
व्यवधान द्विप्रकार वेदेर विधान ॥ २.५२ ॥
मायावादे नामे तत्त्वव्यवधान करे
तत्त्वव्यवधान मायावाद दुष्ट मत ।
कलिर जञ्जाल एइ शास्त्र असम्मत ॥ २.५३ ॥
व्यवधानाबिद्ध नामे शुद्ध नाम
अतएव शुद्ध कृष्ण नाम याङ्र मुखे ।
ताङ्हाके वैष्णव जानि सदा सेवि सुखे ॥ २.५४ ॥
अनर्थ यत नष्ट हय तते नामाभासत्व दूर हय ओ चिन्मय नाम प्रकाश पाय
नामाभास भेदि शुद्धनाम लभिबारे ।
सद्गुरु सेविबे जीव यत्न सहकारे ॥ २.५५ ॥
भजने अनर्थ नाश येइ क्षणे पाय ।
चित्स्वरूप नामे नाचे भक्तेर जीह्वाय ॥ २.५६ ॥
नाम से अमृत धारा नाहि छाडे आर ।
नाम रसे मत्त जीव नाचे अनिवार ॥ २.५७ ॥
नाम नाचे जीव नाचे नाचे प्रेम धन ।
जगत्नाचाय माया करे पलायन ॥ २.५८ ॥
याहार नामे श्रद्धा हय ताहारे नामे अधिकार हैया थाके नामे सर्वशक्ति आछे
नामे अधिकार नरमात्रे कैले दान ।
सर्वशक्ति नामे प्रभु करिले विधान ॥ २.५९ ॥
यार श्रद्धा हय नामे सेइ अधिकारी ।
यार मुखे कृष्णनाम सेइ से आचारी ॥ २.६० ॥
देशकाल अशौचादिर बाधा नामे नाइ
देश काल अशौचादि नियम सकाल ।
श्रीनामग्रहणे नाइ नाम से प्रबल ॥ २.६१ ॥
कलिजीवेर नामे निष्कपट विश्वास हैले इ नामे अधिकार हैल
दाने यज्ञे स्नाने जपे आछे त विचार ।
कृष्णसङ्कीर्तने मात्र श्रद्धा अधिकार ॥ २.६२ ॥
युगधर्म हरिनाम अनन्य श्रद्धाय ।
ये करे आश्रय तार सर्वलाभ हय ॥ २.६३ ॥
कलि जीव निष्कपटे कृष्णेर संसारे ।
अवस्थित हये कृष्णनाम सदा करे ॥ २.६४ ॥
नामेर अनुकूल विषय ग्रहण ओ प्रतिकूल विसय वर्जन
भजनेर अनुकूल सर्व कार्य्य करिऽ ।
भजनेर प्रतिकूल सब परिहरिऽ ॥ २.६५ ॥
कृष्णेर संसारे थाकिऽ काटाये जीवन ।
निरन्तर हरिनाम करेन स्मरण ॥ २.६६ ॥
अनन्य बुद्धिते नाम ग्रहण करिबे
आर कोन धर्म कर्म कभु ना करिबे ।
स्वतन्त्र ईश्वरज्ञाने अन्ये ना पूजिबे ॥ २.६७ ॥
कृष्णनाम भक्तसेवा सतत करिबे ।
कृष्णप्रेम लाभ तार अवश्य हेबे ॥ २.६८ ॥
हरिदास काङ्दि प्रभु चरणे पडिया ।
नामे अनुराग मागे चरण धरिया ॥ २.६९ ॥
हरिदास पदे भक्तिविनोद याहार ।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार ॥ २.७० ॥
इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ
नामग्रहणविचारो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।
(३)
तृतीय परिच्छेद
नामाभास विचार
गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तजन ॥ ३.१ ॥
हरिदासे महाप्रभु सदय हैया ।
उठाय तखन पद्महस्त प्रसारिया ॥ ३.२ ॥
बले शुन हरिदास आमार वचन ।
नामाभास स्पष्टरूपे बुझाओ एखन ॥ ३.३ ॥
नामाभास बुझाइले नाम शुद्ध हबे ।
अनायासे जीव नामगुणे तरे याबे ॥ ३.४ ॥
नामाभासमेघ कुज्झटिकारूप अज्ञान ओ अनर्थ
नाम सूर्यसम नाशे माया अन्धकार ।
मेघ कुज्झटिका नामे ढाके बार बार ॥ ३.५ ॥
जीवेर अज्ञान आर अनर्थ सकल ।
कुज्झटिकामेघरूपे हय त प्रबल ॥ ३.६ ॥
कृष्णनाम सूर्य चित्तगगणे उठिल ।
कुज्झटिकामेघ पुनः ताहारे ढाकिल ॥ ३.७ ॥
अज्ञान कुज्झटिका स्वरूप भ्रम
नामेर ये चित्स्वरूप ताहा नाहि जाने ।
से अज्ञान कुज्झटिका अन्धकार आने ॥ ३.८ ॥
कृष्ण सर्वेश्वर बलि नाहि जाने येइ ।
नाना देवे पूजि कर्ममार्गे भ्रमे सेइ ॥ ३.९ ॥
जीवे चित्स्वरूप बलि नाहि यार ज्ञान ।
माया जडाश्रये तार सतत अज्ञान ॥ ३.१० ॥
तबे हरिदास बले आज आमि धन्य ।
मम मुखे नाम कथा शुनिबे चैतन्य ॥ ३.११ ॥
कृष्ण जीव प्रभु दास जडात्मिका माया ।
ये ना जाने तार शिरे अज्ञानेर छाया ॥ ३.१२ ॥
मेघ अनर्थासत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध
असत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध ।
अनर्थ ए सब मेघरूपे करे बाध ॥ ३.१३ ॥
नामसूर्य रश्मि ढाके नामाभास हय ।
स्वतः सिद्ध कृष्णनामे सदा आच्छादय ॥ ३.१४ ॥
नामाभासेर अवधि
सम्बन्धतत्त्वेर ज्ञान यावत्ना हय ।
तावत्से नामाभास जीवेर आश्रय ॥ ३.१५ ॥
साधक यद्यपि पाय सद्गुरु आश्रय ।
भजननैपुण्ये मेघ आदि दूर हय ॥ ३.१६ ॥
सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन
मेघ कुज्झटिका गेले नामदिवाकर ।
प्रकाश हैया भक्ते देन प्रेमवर ॥ ३.१७ ॥
सद्गुरु सम्बन्ध ज्ञान करिया अर्पण ।
अभिधेय रूपे करान नामानुशीलन ॥ ३.१८ ॥
नामसूर्य स्वल्पकाले प्रबल हैया ।
अनर्थकुज्झटिका देन ताडाइया ॥ ३.१९ ॥
प्रयोजनतत्त्व तबे देन प्रेमधन ।
प्राप्तप्रेम जीव करे नामसङ्कीर्तन ॥ ३.२० ॥
सम्बन्धज्ञान
सद्गुरुचरणे जीव श्रद्धा सहकारे ।
प्रथमे सम्बन्धज्ञान पाय सुविचारे ॥ ३.२१ ॥
कृष्ण नित्य प्रभु आर जीव नित्य दास ।
कृष्ण प्रेम नित्य जीवस्वभाव प्रकाश ॥ ३.२२ ॥
कृष्ण नित्य दास जीव ताहा विस्मरिया ।
मायिक जगते फिरे सुख अन्वेषिया ॥ ३.२३ ॥
मायिक जगथय जीव कारागार ।
जीवेर वैमुख्य दोषे दण्ड प्रतिकार ॥ ३.२४ ॥
तबे यदि जीव साधु वैष्णव कृपाय ।
सम्बन्ध ज्ञानेते पुनः कृष्णनाम पाय ॥ ३.२५ ॥
तबे पाय प्रेमधन सर्वधर्मसार ।
याहार निकटे सायुज्यादिर धिक्कार ॥ ३.२६ ॥
यावत्सम्बन्ध ज्ञान स्थिर नाहि हय ।
तावतनर्थे नामाभासेर आश्रय ॥ ३.२७ ॥
नामाभासेर फल
नामाभास दशाते ओ अनेक मङ्गल ।
जीवेर अवश्य हय सुकृति प्रबल ॥ ३.२८ ॥
नामाभासे नष्ट हय आछे पाप यत ।
नामाभासे मुक्ति हय कलि हय हत ॥ ३.२९ ॥
नामाभासे नर हय सुपङ्क्ति पावन ।
नामाभासे सर्वरोग हय निवारण ॥ ३.३० ॥
सकल आशङ्का नामाभासे दूर हय ।
नामाभासी सर्वारिष्ट हैते शान्ति पाय ॥ ३.३१ ॥
यक्ष रक्ष भूत प्रेत ग्रह समुदय ।
नामाभासे सकल अनर्थ दूरे याय ॥ ३.३२ ॥
नरके पतित लोक सुखे मुक्ति पाय ।
समस्त प्रारब्ध कर्म नामाभासे याय ॥ ३.३३ ॥
सर्ववेदाधिक सर्व तीर्थ हैते बड ।
नामाभास सर्वशुभकर्म श्रेष्ठतर ॥ ३.३४ ॥
नामाभासेर वैकुण्ठादिप्रापकत्व
धर्म अर्थ काम मोक्ष चतुर्वर्गदाता ।
सर्वशक्ति धरे नामाभासे जीवत्राता ॥ ३.३५ ॥
जगतानन्दकर श्रेष्ठपदप्रद ।
अगतिर एक गति सर्वश्रेष्ठपद ॥ ३.३६ ॥
वैकुण्ठादि लोक प्राप्ति नामाभासे हय ।
विशेषतः कलियुगे सर्वशास्त्र कय ॥ ३.३७ ॥
सङ्केत, परिहास, स्तोभ ओ हेला एइ चारिप्रकार नामाभास
चतुर्विध नामाभास एइ मात्र जानि ।
सङ्केत ओ परिहास, स्तोभ, हेला मानि ॥ ३.३८ ॥
सङ्केतरूप नामाभासेर प्रकारद्वय
विष्णु लक्ष्य करि जड बुद्ध्ये नाम लय ।
अन्य लक्ष्य करि विष्णु नाम उच्चारय ॥ ३.३९ ॥
सङ्गेते द्विविध एइ हय नामाभास ।
अजामिल साक्षी तार शास्त्रेते प्रकाश ॥ ३.४० ॥
यवन सकल मुक्त हबे अनायासे ।
हाराम हाराम बलि कहे नामाभासे ॥ ३.४१ ॥
अन्यत्र सङ्केते यदि हय नामाभास ।
तथापि नामेर तेज ना हय विनाश ॥ ३.४२ ॥
परिहासनामाभास
परिहासे कृष्णनाम येइ जन करे ।
जरासन्ध सम सेइ ए संसारे तरे ॥ ३.४३ ॥
स्तोभ नामाभास
अङ्गभङ्गी चैद्य सम करे नामाभास ।
स्तोभ मात्र हय तबु नाशे भवपाश ॥ ३.४४ ॥
हेला नामाभास
मन नाहि देय आर अवज्ञा भावेते ।
कृष्ण राम बले हेला नामाभास ताते ॥ ३.४५ ॥
एइ सब नामाभासे म्लेच्छगण तरे ।
विषयी अलस जन एइ पथ धरे ॥ ३.४६ ॥
श्रद्धा ओ हेला नामाभासेर भेद
श्रद्धा करि करे नाम अनर्थ सहित ।
श्रद्धा नाम हय सेइ तोमार विहित ॥ ३.४७ ॥
सङ्केतादि अवज्ञा पर्यन्त भाव धरि ।
नाम करे हेलाय ये श्रद्धा परिहरि ॥ ३.४८ ॥
नामाभास अवधि से हेला नाम हय ।
ताहाते ओ मुक्ति लभे पाप हय क्षय ॥ ३.४९ ॥
अनर्थनाशे नामाभास नाम हैया प्रेम देय
कृष्ण प्रेम छाडि सब नामाभासे पाय ।
नामाभासे पुनः शुद्ध नाम हये याय ॥ ३.५० ॥
अनर्थ विगते यबे शुद्ध नाम हय ।
कृष्णप्रेम तबे तार हेबे निश्चय ॥ ३.५१ ॥
नामाभासे साक्षात्से प्रेम दिते नारे ।
नाम हये प्रेम देय विधि अनुसारे ॥ ३.५२ ॥
नामाभास ओ नामापराधेर भेद
अतएव नाम अपराध परिहरि ।
नामाभास करे येइ तारे नति करि ॥ ३.५३ ॥
कर्म ज्ञान हैते अनन्त श्रेष्ठतर ।
बलि नामाभासे जानि ओहे सर्वेश्वर ॥ ३.५४ ॥
रति मूला श्रद्धा यदि शुद्धभावे हय ।
तबे त विशुद्ध नाम हेबे उदय ॥ ३.५५ ॥
छाया ओ प्रतिबिम्ब भेदे आभास दुइ प्रकार
छाया नामाभास
आभास द्विविध हय प्रतिबिम्ब छाया ।
श्रद्धाभास द्विप्रकार सब तव माया ॥ ३.५६ ॥
छाया श्रद्धाभासे छायानामाभास हय ।
सेइ नामाभासे जीवेर शुभ प्रसवय ॥ ३.५७ ॥
प्रतिबिम्ब नामाभास
अन्य जीवे शुद्धा श्रद्धा करिया दर्शन ।
निज मने श्रद्धाभास आने येइ जन ॥ ३.५८ ॥
भोग मोक्ष वाञ्छा ताहे थाके नित्य मिशि ।
अश्रमे अभीष्ट लाभे यते दिवानिशि ॥ ३.५९ ॥
श्रद्धार लक्षण मात्र श्रद्धा ताहे नय ।
ताके प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास शास्त्रे कय ॥ ३.६० ॥
प्रतिबिम्ब श्रद्धाभासे नामाभास यत ।
प्रतिबिम्बनामाभास हय अविरत ॥ ३.६१ ॥
प्रतिबिम्ब नामाभासे मायावाद कपटता उत्पन्न करे
एइ नामाभासे मायावाद दुष्टमत ।
प्रवेशिया शठताय हय परिणत ॥ ३.६२ ॥
कपट प्रतिबिम्बनामाभास नामापराध
नित्य साध्य नामे साधन बुद्धि करि ।
नामेर महिमा नाशि अपराधे मरि ॥ ३.६३ ॥
छाया नामाभास ओ प्रतिबिम्बनामाभासेर भेद
छाया नामाभासे मात्र हयत अज्ञान ।
हृदयदौर्बल्य हैते अनर्थ विधान ॥ ३.६४ ॥
सेइ सब दोषे नाम करेन मार्जन ।
प्रतिबिम्ब नामाभासे दोषेर वर्धन ॥ ३.६५ ॥
मायावाद ओ भक्ति इङ्हारा परस्पर विपरीत धर्म
मायावादे अपराध
कृष्णनाम रूप गुण लीलादि सकल ।
मायावादिमते मिथ्या नश्वर सकल ॥ ३.६६ ॥
सेइ मते प्रेमतत्त्व नित्य नाहि हय ।
भक्तिविपरीत मायावाद सुनिश्चय ॥ ३.६७ ॥
भक्तिवैरी मध्ये मायावादेर गणन ।
अतएव मायावादी अपराधी हन ॥ ३.६८ ॥
मायावादि मुखे नाम नाहि बाहिराय ।
नाम बाहिराय तबु नामत्व ना पाय ॥ ३.६९ ॥
मायावादी यदि करे नाम उच्चारण ।
नामके अनित्य बलि लभये पतन ॥ ३.७० ॥
नामेर निकटे भोगमोक्षेर प्रार्थना ।
नामेर निकटे शाठ्य फलेते यातना ॥ ३.७१ ॥
मायावादीर अपराध कखन छाडे
तबे यदि मायावादी भुक्ति मुक्ति आश ।
छाडिया करये नाम हये कृष्णदास ॥ ३.७२ ॥
तबे तारे छाडे मायावाद दुष्टमत ।
अनुताप सह हय नाम अनुगत ॥ ३.७३ ॥
साधु सङ्गे करे पुनः श्रवण कीर्तन ।
सुसम्बन्ध ज्ञान तार उदे तत क्षण ॥ ३.७४ ॥
अविश्रान्त नाम करे पडे चक्षु जल ।
नाम कृपा पाय चित्त हय त सबल ॥ ३.७५ ॥
भक्तिके अनित्य बलिया मायावाद अपराध हेयाछे
कृष्णरूप कृष्णदास्य जीवेर स्वभाव ।
मायावाद अनित्य कल्पित बले सब ॥ ३.७६ ॥
हेन मायावाद नाम अपरादे गणि ।
मायावाद हय सर्व विपदेर खनि ॥ ३.७७ ॥
मायावादी नामाभासे युक्त्य्आभासरूपे सायुज्य लाभ करे
नामाभास कल्पतरु मायावादिजने ।
अभीष्ट अर्पण करे सायुज्य निर्वाणे ॥ ३.७८ ॥
सर्वशक्ति नामे आछे ताइ नामाभासे ।
प्रतिबिम्ब हेले ओ देन मुक्त्य्आभासे ॥ ३.७९ ॥
पञ्चविध मुक्ति मध्ये सायुज्य आभास ।
भव क्लेश नाशे मात्र फले सर्वनाश ॥ ३.८० ॥
मायावादी नित्यसुख पाय ना
मायाय मोहित जन ताहे सुख माने ।
सुखाभास मात्र पाय सायुज्य निर्वाणे ॥ ३.८१ ॥
सच्चित्आनन्द सेवा परम निर्वृति ।
सायुज्य ना पाय कभु हतकृष्णस्मृति ॥ ३.८२ ॥
याङ्हा नाहि भक्ति प्रेम नित्यता विश्वास ।
नित्य सुख कैछे ताहे हेबे प्रकाश ॥ ३.८३ ॥
छाया नामाभासी दुष्टमते ना प्रवेश करिले क्रमे शुद्ध नाम पाइया थाकेन
छाया नामाभासी नाहि जाने दुष्टमत ।
मतवादे चित्तबले नहे तार हत ॥ ३.८४ ॥
से केवल नाहि जाने यथार्थ प्रभाव ।
से प्रभाव ज्ञानदान नामेर स्वभाव ॥ ३.८५ ॥
मेघाच्छन्ने सूर्यप्रभा प्रतीत ना हय ।
किन्तु मेघे नाशि सूर्य करेन उदय ॥ ३.८६ ॥
छाया नामाभासी धन्य सद्गुरु प्रभावे ।
अल्पदिने नाम प्रेम अनायासे पाबे ॥ ३.८७ ॥
भक्तेर मायावादीर सङ्ग अवश्य परित्याज्य
मायावादी सङ्ग तेङ्ह सतर्के छाडिया ।
शुद्ध नाम परायण तुषिबे सेविया ॥ ३.८८ ॥
एइ त तोमार आज्ञा श्रीकृष्णचैतन्य ।
सेइ आज्ञा येइ पाले सेइ जीव धन्य ॥ ३.८९ ॥
ये ना पाले तव आज्ञा सेइ जीव छार ।
कोटी जन्मे किछुते इ ना हबे उद्धार ॥ ३.९० ॥
कुसङ्ग छाडिये प्रभु राख तव पाय ।
तव पादपद्म विना ना देखि उपाय ॥ ३.९१ ॥
हरिदास पदद्वन्द्वे विनोद याहार ।
हरिनामचिन्तामणि सदा गान तार ॥ ३.९२ ॥
इति श्री हरिनामचिन्तामणौ नामाभासवर्णनं नाम
तृतीयः परिच्छेदः ।
(४)
चतुर्थ परिच्छेद
नाम अपराधसाधु निन्दा
सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते
यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हाम् ।
गदाधरप्राण जय जाह्नवाजीवन ।
जय सीतानाथ श्रीवासादि भक्तजन ॥ ४.१ ॥
प्रभु बले हरिदास एबे सविस्तारे ।
नाम अपराध व्याख्या कर अतःपर ॥ ४.२ ॥
हरिदास बले प्रभु मोरे या बलाबे ।
ताहाइ बलिब आमि तोमार प्रभावे ॥ ४.३ ॥
दशविध नामापराध
नाम अपराध दशविध शास्त्रे कय ।
सेइ अपराधे मोर बड हय भय ॥ ४.४ ॥
एक एक करि आमि बलिब सकल ।
अपराधे वाङ्चि याते देह मोरे बल ॥ ४.५ ॥
साधुनिन्दा अन्यदेव स्वातन्त्र्य मनन ।
नाम तत्त्व गुरु आर शास्त्र विनिन्दन ॥ ४.६ ॥
हरिनामे अर्थ वाद कल्पित मनन ।
नामबले पाप श्रद्धाहीने नामार्पण ॥ ४.७ ॥
अन्य शुभकर्मेर समान कृष्णनाम ।
ए कथा बलिले अपराध अविश्राम ॥ ४.८ ॥
नामेते अनवधान हय अपराध ।
ताहाके पुराण कर्ता बलेन प्रमाद ॥ ४.९ ॥
नामेर माहात्म्य जाने तबु नाहि भजे ।
अहं मम आसक्तिते संसारेते मजे ॥ ४.१० ॥
साधुनिन्दाइ प्रथम अपराध
साधुनिन्दा प्रथमापराध बलिऽ जानि ।
एइ अपराधे जीवेर हय सर्व हानि ॥ ४.११ ॥
स्वरूप ओ तटस्थ लक्षण भेदे साधु लक्षण द्वय विचार
साधुर लक्षण तुमि बलियाछ प्रभो ।
एकादशे उद्धवेरे कृष्णरूपे विभो ॥ ४.१२ ॥
दयालु सहिष्णु सम द्रोहशून्यव्रत ।
सत्यसार विशुद्धात्मा परहिते रत ॥ ४.१३ ॥
कामे अक्षुभित बुद्धि दान्त अकिञ्चन ।
मृदु शुचि परिमितभोजी शान्तमन ॥ ४.१४ ॥
अनीह धृतिमान् स्थिर कृष्णैकशरण ।
अप्रमत्त सुगम्भीर विजित षड्गुण ॥ ४.१५ ॥
अमानी मानद दक्ष अवञ्चक ज्ञानी ।
एइ सब लक्षणेते साधु बलि जानि ॥ ४.१६ ॥
एइ सब लक्षण प्रभो हय द्विप्रकार ।
स्वरूप तटस्थ भेदे करिब विचार ॥ ४.१७ ॥
स्वरूपलक्षणे प्रधान लक्षण, तद्आश्रये तटस्थ लक्षण उदय हय
कृष्णैकशरण हय स्वरूपलक्षण ।
तटस्थ लक्षणे अन्य गुणेर गणन ॥ ४.१८ ॥
कोन भाग्ये साधुसङ्गे नामे रुचि हय ।
कृष्णनाम गाय करे कृष्णपादाश्रय ॥ ४.१९ ॥
स्वरूप लक्षण सेइ हेत हेल ।
गाइते गाइते नाम अन्य गुण आइल ॥ ४.२० ॥
अन्य गुणगण ताइ तटस्थ गणन ।
अवश्य वैष्णव देहे हबे सङ्घटन ॥ ४.२१ ॥
वर्णाश्रम लिङ्ग, नानाप्रकार वेषद्वारा साधुत्व हय ना,
कृष्णैकशरणताइ साधुर लक्षण
वर्णाश्रम चिह्न नानावेषेर रचना ।
साधुर लक्षणे कभु ना हय गणना ॥ ४.२२ ॥
श्रीकृष्णशरणागति साधुर लक्षण ।
तार मुखे हय कृष्णनामसङ्कीर्तन ॥ ४.२३ ॥
गृही ब्रह्मचारी वानप्रस्थ न्यासिभेदे ।
शूद्र वैश्य क्षत्र विप्रगणेर प्रभेदे ॥ ४.२४ ॥
साधुत्व कखन नाहि हेबे निर्णीत ।
कृष्णैकशरण साधु शास्त्रेर विहित ॥ ४.२५ ॥
गृहिसाधुलक्षण
रघुनाथदासे लक्ष्ये करिया सेवार ।
गृहिसाधुजने शिखायेछ एइ सार ॥ ४.२६ ॥
स्थिर हये घरे याओ ना हओ बातुल ।
क्रमे क्रमे पाय लोक भवसिन्धुकुल ॥ ४.२७ ॥
मर्कट वैराग्य छाड लोक देखाइया ।
यथायोग्य विषय भुञ्ज अनासक्त हञा ॥ ४.२८ ॥
अन्तरे निष्ठा कर बाह्ये लोक व्यवहार ।
अचिरे श्रीकृष्ण तोमाय करिबे उद्धार ॥ ४.२९ ॥
गृहत्यागी साधुलक्षण
पुनः तुमि तार देखि वैराग्य ग्रहण ।
एइ मत शिक्षा दिले अपूर्व श्रवण ॥ ४.३० ॥
ग्राम्यकथा ना शुनिबे ग्राम्यवार्ता ना कहिबे ।
भाल ना खाइबे आर भाल ना परिबे ॥ ४.३१ ॥
अमानी मानद हञा कृष्णनाम सदा लबे ।
व्रजे राधाकृष्णसेवा मानसे करिबे ॥ ४.३२ ॥
गृही ओ गृहत्यागी उभयेरे स्वरूप लक्षण
स्वरूप लक्षण एक सर्वत्र समान ।
आश्रमादि भेदे पृथक्तटस्थ विधान ॥ ४.३३ ॥
अनन्यशरणे यदि देखि दुराचार ।
तथापि से साधु बलि सेव्य सबाकार ॥ ४.३४ ॥
एइ त श्रीकृष्णवाक्य गीताभागवते ।
इहाके पूजिब यत्ने सदा सर्व मते ॥ ४.३५ ॥
इहाते आछे त एक निगूढ सिद्धान्त ।
कृपा करि जानायेछ ताइ पाइ अन्त ॥ ४.३६ ॥
पूर्वपापेर गन्धावशेष ओ पूर्वपाप लक्ष्य करिया यिनि कृष्णैकशरण साधुर निन्दा करेन, तिनि नामापराधी
कृष्णनामे रुचि यबे हेबे उदय ।
एक नामे पूर्व पाप हेबेक क्षय ॥ ४.३७ ॥
पूर्वपाप गन्ध तबु थाके किछु दिन ।
नामेर प्रभावे क्रम हञा पडे क्षीण ॥ ४.३८ ॥
शीघ्र सेइ पापगन्ध विदूरित हय ।
परम धर्मात्मा बलि हय परिचय ॥ ४.३९ ॥
ये कयेक दिन सेइ गन्ध नाहि याय ।
साधारण जन चक्षे पाप बलि भाय ॥ ४.४० ॥
से पाप देखिया येइ साधुनिन्दा करे ।
पूर्वपाप लक्षि पुनः अवज्ञा आचरे ॥ ४.४१ ॥
सेइ त पाषण्डी वैष्णवेर निन्दा दोषे ।
नाम अपराध मजि पडे कृष्णरोषे ॥ ४.४२ ॥
कृष्णैकशरणताइ साधु लक्षण आपनाके साधु बलिया परिचय देओया दाम्भिकता
कृष्णैकशरण मात्र कृष्णनाम गाय ।
साधुनामे परिचित कृष्णेर कृपाय ॥ ४.४३ ॥
कृष्णभक्त व्यतीत नाहिक साधु आर ।
आमि साधु बलि हय दम्भ अवतार ॥ ४.४४ ॥
स्वल्पाक्षरे साधुनिर्णय
से बलिबे आमि दीन कृष्णैकशरण ।
कृष्णनाम यार मुखे साधु सेइ जन ॥ ४.४५ ॥
तृण हैते हीन बलि आपनाके जाने ।
सहिष्णु तरुर न्याय आपनाके माने ॥ ४.४६ ॥
निजे त अमानी आर सकले मानद ।
तार मुखे कृष्णनाम कृष्णरतिप्रद ॥ ४.४७ ॥
नामापराध वैष्णवे साधु, तद्देहे कृष्णशक्ति
हेन साधुमुखे यबे शुनि एक नाम ।
वैष्णव बलिया तारे करिब प्रणाम ॥ ४.४८ ॥
वैष्णव से जगद्गुरु जगतेर बन्धु ।
वैष्णव सकल जीवे सदा कृपा सिन्धु ॥ ४.४९ ॥
ए हेन वैष्णवनिन्दा येइ जन करे ।
नरके पडिबे से जन्मजन्मान्तरे ॥ ४.५० ॥
भक्ति लभिबारे आर नाहिक उपाय ।
भक्ति लभे सर्वजीव वैष्णव कृपाय ॥ ४.५१ ॥
वैष्णव देहेते थाके श्रीकृष्णेर शक्ति ।
सेइ देह स्पर्शे अन्ये हय कृष्णभक्ति ॥ ४.५२ ॥
वैष्णव अधरामृत आर पद जल ।
वैष्णवेर पदरजः तिन महाबल ॥ ४.५३ ॥
वैष्णवेर शक्ति सञ्चार
वैष्णवनिकटे यदि बैसे कतलक्षण ।
देह हैते हय कृष्णशक्ति निःसरण ॥ ४.५४ ॥
सेइ शक्ति श्रद्धावान् हृदये पशिया ।
भक्तिर उदय करे देह काङ्पाइया ॥ ४.५५ ॥
ये बसिल वैष्णवेर निकटे श्रद्धाय ।
ताहार हृदये भक्ति हेबे उदय ॥ ४.५६ ॥
प्रथमे आसिबे तार मुखे कृष्णनाम ।
नामेर प्रभावे पाबे सर्वगुणग्राम ॥ ४.५७ ॥
वैष्णवेर कि कि दोष धरिले वैष्णवनिन्दा हयजातिदोष पूर्वदोष नष्टप्राय अवशिष्ट दोष कादाचित्क दोष
वैष्णवेर जाति आर पूर्व दोष धरे ।
कादाचित्क दोष देखि येइ निन्दा करे ॥ ४.५८ ॥
नष्टप्राय दोष लये करे अपमान ।
यमदण्डे कष्ट पाय से सब अज्ञान ॥ ४.५९ ॥
वैष्णवेर मुखे नाममाहात्म्यप्रचार ।
से वैष्णवनिन्दा कृष्ण नाहि सहे आर ॥ ४.६० ॥
धर्म योग याग ज्ञानकाण्ड परिहरि ।
ये भजिल कृष्णनाम सेइ सर्वोपरि ॥ ४.६१ ॥
अन्य देव शास्त्र निन्दादिशून्य नामाश्रयी साधु
अन्यदेर अन्यशास्त्र ना करि निन्दन ।
नामेर आश्रय लय शुद्ध साधुजन ॥ ४.६२ ॥
से साधु गृहस्थ हो अथवा सन्न्यासी ।
ताहार चरणरेणु पाइते प्रयासी ॥ ४.६३ ॥
याब यत नामे रति से तत वैष्णव ।
वैष्णवेर क्रम एइ मते अनुभव ॥ ४.६४ ॥
इथे वर्णाश्रम धन पाण्डित्य यौवन ।
कोन कार्य नाहि करे रूप बल जन ॥ ४.६५ ॥
अतएव यिनि करिलेन नामाश्रय ।
साधुनिन्दा छाडिबेन ए धर्म निश्चय ॥ ४.६६ ॥
नामाश्रया शुद्धा भक्ति भक्त भक्तिरूपा ।
भक्त भक्तिविवर्जिता हेले विरूपा ॥ ४.६७ ॥
याङ्हा साधुनिन्दा ताङ्हा नाहि भक्ति स्थिति ।
अतएव अपराधे तथा परिणति ॥ ४.६८ ॥
साधुनिन्दा छाडि भक्त साधुभक्ति करे ।
साधुसङ्ग साधुसेवा एइ धर्माचरे ॥ ४.६९ ॥
असत्सङ्ग दुइ प्रकार, तन्मध्ये स्त्रीसङ्गी
असत्सङ्गत्यागे हय वैष्णवाचार ।
असत्सङ्गे हय साध्ववज्ञा अपार ॥ ४.७० ॥
असत्ये द्विप्रकार सर्वशास्त्रे कय ।
सेइ दुइयेर मध्ये योषित्सङ्गी एक हय ॥ ४.७१ ॥
योषित्सङ्गिसङ्गी पुनः तार मध्ये गण्य ।
तार सङ्गत्यागे जीव हेबेक धन्य ॥ ४.७२ ॥
योषित्सङ्गी काहाके बले
कृष्णेरे संसारे ये दाम्पत्य धर्म थाके ।
असत्बलिया शास्त्र ना बले ताहाके ॥ ४.७३ ॥
अधर्म संयोगे आर स्त्रैण भावे रत ।
योषित्सङ्गी जन दुष्ट शास्त्रेर सम्मत ॥ ४.७४ ॥
द्वितीय प्रकार असत्(कृष्णेते अभक्त) तिन प्रकार
कृष्णेते अभक्त असत्द्वितीय प्रकार ।
मायावादी धर्मध्वजी निरीश्वर आर ॥ ४.७५ ॥
यिनि बलेन, एइ सब लोकेर निन्दाके ओ साधुनिन्दा बले तिन्यो वर्ज्य
वर्जिले ए सब सङ्ग साधुनिन्दा नय ।
इहाके ये निन्दा बले सेइ वर्ज्य हय ॥ ४.७६ ॥
एइ सब सङ्ग छाडि अनन्यशरण ।
कृष्णनाम करि पाय कृष्णप्रेमधन ॥ ४.७७ ॥
वैष्णवाभास, प्राकृतवैष्णव, वैष्णवप्राय ओ कनिष्ठवैष्णवैइ सकल एके कथा
साधुसेवाहीन अर्चे लौकिक श्रद्धाय ।
प्राकृत वैष्णव हय वैष्णवेर प्राय ॥ ४.७८ ॥
वैष्णवाभास सेइ नहे तऽ वैष्णव ।
केमने पाइबे साधुसङ्गेर वैष्णव ॥ ४.७९ ॥
अतएव कनिष्ठ मध्येते तारे गणि ।
तारे कृपा करिबेन वैष्णव आपनि ॥ ४.८० ॥
मध्यम वैष्णव
कृष्णप्रेम कृष्णभक्ते मैत्री आचरण ।
बालिशेते कृपा आर द्वेषी उपेक्षण ॥ ४.८१ ॥
करिले मध्यम भक्त शुद्ध भक्त हन ।
कृष्णनाम्ने अधिकार करेन अर्जन ॥ ४.८२ ॥
उत्तम वैष्णव
सर्वत्र याङ्हार हय कृष्णदरशन ।
कृष्णे सकलेर स्थिति कृष्ण प्राण धन ॥ ४.८३ ॥
वैष्णवावैष्णवभेद नाहि थाके ताङ्र ।
वैष्णव उत्तम तिनि कृष्णनामसार ॥ ४.८४ ॥
मध्यम वैष्णवे साधु सेवा करेन
अतएव मध्यम वैष्णव महाशय ।
साधु सेवा रत सदा थाकेन निश्चय ॥ ४.८५ ॥
प्राकृत वैष्णव नामाभासेर अधिकारी
प्राकृत वैष्णव येइ वैष्णवेर प्राय ।
नामाभासे अधिकारी सर्वशास्त्र पाय ॥ ४.८६ ॥
मध्यम वैष्णव नामाधिकारी ओ नामापराध विचार करिबेन
मध्यम वैष्णव मात्र नामे अधिकारी ।
श्रीनामभजने अपराधेर विचारी ॥ ४.८७ ॥
उत्तम वैष्णवे अपराध असम्भव ।
सर्वत्र देखेन तिनि कृष्णेर वैभव ॥ ४.८८ ॥
निज निज अधिकार करिया विचार ।
साधुनिन्दा अपराध करि परिहार ॥ ४.८९ ॥
साधु सङ्ग साधु सेवा नाम सङ्कीर्तन ।
सर्व जीवे दया एइ भक्त आचरण ॥ ४.९० ॥
साधु निन्दा घटिले कि करा कर्तव्य ?
प्रमादे यद्यपि घटे साधुविगर्हण ।
तबे अनुतापे धरि से साधुचरण ॥ ४.९१ ॥
काङ्दिया बलिब प्रभो क्षमि अपराध ।
ए दुष्टनिन्दके कर वैष्णवप्रसाद ॥ ४.९२ ॥
साधु बड दयामय तबे आर्द्रमने ।
क्षमिबेन अपराध कृपा आलिङ्गने ॥ ४.९३ ॥
एइ त प्रथम अपराधेर विचार ।
श्रीचरणे निवेदिनु आज्ञा अनुसार ॥ ४.९४ ॥
हरिदास पादपद्मे भ्रर ये जन ।
हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन ॥ ४.९५ ॥
इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ साधुनिन्दापराधविचारो
नाम चतुर्थः परिच्छेदः ।
श्रीहरिनामचिन्तामणि
श्रीगोद्रुमचन्द्राय नमः
(१)
प्रथमपरिच्छेद
श्रीनाममाहात्म्यसूचना
गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण ॥ १.१ ॥
लवण जलधि तीरे नीलाचले श्री मन्दिरे
दारु ब्रह्म पुरुष प्रधान ।
जीवे निस्तारिते हरि अर्चा रूपे अवतरि
भोग मोक्ष करेन प्रदान ॥ १.२ ॥
सेइ धामे श्री चैतन्य मानवे करिते धन्य
सन्न्यासी रूपेते भगवान् ।
कलिते ये युग धर्म बुझाइते तार मर्म
काशी मिश्र घरे अधिष्ठान ॥ १.३ ॥
निज भक्त वृन्द लये निजे कल्प तरु हये
कृष्ण प्रेम देन सर्व जने ।
नाना मते भक्त मुखे भक्त कथ शुनि सुखे
जीव शिक्षा देन सुयतने ॥ १.४ ॥
एक दिन भगवान् समुद्रे करिया स्नान
श्री सिद्ध बकुले हरि दासे ।
मिलि आनन्दित मने जिज्ञासिला सयतने
किसे जीव तरे अनायासे ॥ १.५ ॥
प्रभुर चरण धरिऽ अनेक विनय करिऽ
गलद्अश्रु पुलक शरीर ।
हरिदास महाशय काङ्दिते काङ्दिते कय
प्रभु तव लीला सुगभीर ॥ १.६ ॥
आमि अति अकिञ्चन नाहि मोर विद्या धन
तव पद आमार सम्बल ।
ए हेन अयोग्य जने प्रश्न करिऽ अकारणे
बल प्रभु हबे किबा फल ॥ १.७ ॥
तुमि कृष्ण स्वयं प्रभो जीव उद्धारिते विभो
नवद्वीप धामे अवतार ।
कृपा करिऽ राङ्गा पाय राख मोरे गौर राय
तबे चित्त प्रफुल्ल आमार ॥ १.८ ॥
तोमार अनन्त नाम तवानन्त गुण ग्राम
तव रूप सुखेर सागर ।
अनन्त तोमार लीला कृपा करिऽ प्रकाशिला
ताइ आस्वादये ए पामर ॥ १.९ ॥
चिन्मय भास्कर तुमि किरणेर कण आमि
तुमि प्रभु, आमि नित्य दास ।
चरण पीयूष तव मम सुख सुवैभव
तव नामामृते मोर आश ॥ १.१० ॥
ए मत अधम आमि कि बलिते जानि स्वामी
तबु आज्ञा करिब पालन ।
या बलाबे मोर मुखे तोमारे बलिब सुखे
दोष गुण ना करि गणन ॥ १.११ ॥
कृष्णतत्त्व
एकमात्र इच्छामय कृष्ण सर्वेश्वर ।
नित्य शक्तियोगे कृष्ण विभु परात्पर ॥ १.१२ ॥
कृष्ण कृष्णशक्ति
कृष्णशक्ति कृष्ण हैते ना हय स्वतन्त्र ।
येइ शक्ति सेइ कृष्ण कहे वेदमन्त्र ॥ १.१३ ॥
कृष्ण विभु, शक्ति ताङ्र वैभव स्वरूप ।
अनन्त वैभवे कृष्ण हय एक रूप ॥ १.१४ ॥
त्रिविध वैभव
शक्तिर प्रकाश येइ सेइ त वैभव ।
विभुर वैभव मात्र हय अनुभव ॥ १.१५ ॥
वैभव त्रिविध तव गौराङ्ग सुन्दर
चिदचित्जीव तिन शास्त्रेर गोचर ॥ १.१६ ॥
चिद्वैभव
अनन्त वैकुण्ठ आदि यत कृष्ण धाम ।
गोविन्द श्रीकृष्ण हरि आदि यत नाम ॥ १.१७ ॥
द्विभुज मुरलीधर आदि यत रूप ।
भक्तानन्दप्रद आदि गुण अपरूप ॥ १.१८ ॥
व्रज रसलीला नवद्वीपे सङ्कीर्तन ।
एइ रूप कृष्ण लीला विचित्र गणन ॥ १.१९ ॥
ए समस्त चिद्वैभव अप्राकृत हय ।
आसियौ ए प्रपञ्चे प्रापञ्चिक नय ॥ १.२० ॥
चिद्व्यापार समुदय विष्णुतत्त्वसार ।
विष्णुपद बलि वेदे गाय बार बार ॥ १.२१ ॥
कृष्णेर चिद्विभुते विष्णुतत्त्व शुद्धतत्त्व
नाहि ताहे जडधर्म मायार विकार ।
जडातीत विष्णुतत्त्व शुद्धसत्त्वसार ॥ १.२२ ॥
शुद्धसत्त्व रजस्तमोगन्धविरहित ।
रजस्तमोमिश्र मिश्रसत्त्व सुविदित ॥ १.२३ ॥
गोविन्द वैकुण्ठनाथ कारणोदशायी ।
गर्भोदशायी आर क्षीरसिन्धुशायी ॥ १.२४ ॥
आर यत स्वांश परिचित अवतार ।
सेइ सब शुद्धसत्त्व विष्णुतत्त्वसार ॥ १.२५ ॥
गोलोके वैकुण्ठे आर कारणसागरे ।
अथवा ए जडे थाके, विष्णुनाम धरे ॥ १.२६ ॥
प्रवेशि ए जड विश्व मायार अधीश ।
विष्णुनाम प्राप्त विभु सर्वदेव ईश ॥ १.२७ ॥
मायार ईश्वर मायी शुद्धसत्त्वमय ।
मिश्रसत्त्व
मिश्रसत्त्व ब्रह्मा शिव आदि सब हय ॥ १.२८ ॥
चिद्वैभवेर विस्तृति
ए समस्त विष्णुतत्त्व आर विष्णुधाम ।
तव चिद्वैभव नाथ तव लीलाग्राम ॥ १.२९ ॥
अचिद्वैभव मायतत्त्व
विरजार एइ पारे यत वस्तु हय ।
अचित्वैभव तव चौद्दलोकमय ॥ १.३० ॥
मायार वैभव बलि बले देवीधाम ।
पञ्चभूत मनो बुद्धि अहङ्कार नाम ॥ १.३१ ॥
ए भूर्लोक, भुवर्लोक आर स्वर्गलोक ।
महर्लोक, जनतपसत्यब्रह्मलोक ॥ १.३२ ॥
अतलसुतलादि निम्न लोक सात ।
मायिक वैभव तव शुन जगन्नाथ ॥ १.३३ ॥
चिद्वैभव पूर्णतत्त्व माया छाया तार ।
जीववैभव
चिद्अणुस्वरूप जीव वैभव प्रकार ॥ १.३४ ॥
चिद्धर्मवशतः जीव स्वतन्त्र गठन ।
सङ्ख्याय अनन्त सुख तार प्रयोजन ॥ १.३५ ॥
मुक्त जीव
सेइ सुख हेतु यारा कृष्णेरे बरिल ।
कृष्णपारिषद मुक्तरूपेते रहिल ॥ १.३६ ॥
बद्ध वा बहिर्मुख जीव
यारा पुनः निजसुख करिया भावना ।
पार्श्वस्थिता माया प्रति करिल कामना ॥ १.३७ ॥
सेइ सब नित्यकृष्णबहिर्मुख हैल ।
देवीधामे मायाकृत शरीर पाइल ॥ १.३८ ॥
पुण्य पाप कर्म चक्रे पडिया एखन ।
स्थूल लिङ्ग देहे सदा करेन भ्रमण ॥ १.३९ ॥
कभु स्वर्गे उठे, कभु निरये पडिया ।
चौराशि लक्ष योनि भोगे भ्रमिया भ्रमिया ॥ १.४० ॥
तथापि कृष्णदया
तुमि विभु, तोमार वैभव जीव हय ।
दासेर मङ्गल चिन्ता तोमार निश्चय ॥ १.४१ ॥
दास याहा सुख मानि करे अन्वेषण ।
तुमि ताहा कृपा करि कर वितरण ॥ १.४२ ॥
प्राकृत शुभकर्म कर्मकाण्ड
मायार वैभवे ये अनित्य सुख चाय
तोमार कृपाय से अनायासे पाय ॥ १.४३ ॥
सेइ सुख प्राप्त्य्उपाय शुभकर्म यत ।
निरमिले धर्मयज्ञयोगहोमव्रत ॥ १.४४ ॥
सेइ सब शुभकर्म सदा जडमय ।
चिन्मयी प्रवृत्ति ताहे कभु ना मिलय ॥ १.४५ ॥
ताहार साधने साध्य जडमय फल ।
उच्चलोक भोग सुख ताहाते प्रबल ॥ १.४६ ॥
सेइ सब कर्मभोग नाहि आत्मशान्ति ।
ताहाते प्रयास करा अतिशय भ्रान्ति ॥ १.४७ ॥
सेइ सब शुभ कर्म उपाय हैया ।
अनित्य उपेय साधे लोक सुख दिया ॥ १.४८ ॥
सेइ अवस्था हैते उद्धारेर उपाय
कभु यदि साधु सङ्गे जानिते से पारे ।
आमि जीव कृष्णदास, याय माया पारे ॥ १.४९ ॥
से विरल फल मात्र सुकृतिजनित ।
तुच्छ कर्मकाण्ड नाहि करिले विहित ॥ १.५० ॥
ज्ञानकाण्ड, ब्रह्मलय सुख
आर यिनि मायार यन्त्रणा मात्र जानि ।
मुक्ति लाभे यत्नवान् तिनि हन ज्ञानी ॥ १.५१ ॥
से सब लोकेर जन्य तुमि दयामय ।
ज्ञानकाण्ड ब्रह्मविद्या दियाछ निश्चय ॥ १.५२ ॥
सेइ विद्या मायावाद करिया आश्रय ।
जड मुक्त हये ब्रह्मे जीव हय लय ॥ १.५३ ॥
ब्रह्मवस्तु कि?
सेइ ब्रह्म तव अङ्गकान्ति ज्योतिर्मय ।
विरजार पारे स्थित ताते हय लय ॥ १.५४ ॥
ये सब असुरे विष्णु करेन संहार ।
ताहारौ सेइ ब्रह्मे याय मायापार ॥ १.५५ ॥
कृष्णबहिर्मुख
कर्मी ज्ञानी उभये इ कृष्णबहिर्मुख ।
कभु नाहि आस्वादय कृष्णदास्यसुख ॥ १.५६ ॥
भक्त्य्उन्मुखी सुकृति
भक्तिर उन्मुखी सेइ सुकृति प्रधान ।
तार फले जीव भक्तसाधुसङ्ग पान ॥ १.५७ ॥
श्रद्धावान् हये कृष्णभक्तसङ्ग करे ।
नामे रुचि, जीवे दया, भक्तिपथ धरे ॥ १.५८ ॥
कर्मी ओ ज्ञानीर प्रति कृपाय गौणपथ विधान
दयार सागर तुमि जीवेर ईश्वर ।
कर्मी ज्ञानी बहिर्मुख उद्धारे तत्पर ॥ १.५९ ॥
कर्मपथे ज्ञानपथे पथिक ये जन ।
ताहार उद्धार लागि तोमार यतन ॥ १.६० ॥
सेइ सेइ पथिकेर मङ्गल चिन्तिया ।
गौणभक्ति पथ एक राखिल करिया ॥ १.६१ ॥
कर्मीर पक्षे कर्मेर गौणभक्ति पथ
कर्मी वर्णाश्रमे थाकि साधुसङ्ग करि ।
कर्म माझे भक्ति करे गौणपथ धरि ॥ १.६२ ॥
तार कृत कर्म सब हृदय शोधिया ।
तिरोहित हय श्रद्धा बीजे स्थान दिया ॥ १.६३ ॥
ज्ञानीर गौणपथ
ज्ञानी सुकृतिर बले भक्तेर कृपाय ।
अनन्य भक्तिते श्रद्धा बीजे स्थान दिया ॥ १.६४ ॥
तुमि बल मोर दास मायार विपाके ।
चाहे अन्य तुच्छ फल छाडिया आमाके ॥ १.६५ ॥
आमि जानि तार याते हय सुमङ्गल ।
भुक्ति मुक्ति छाडाइया दी भक्ति फल ॥ १.६६ ॥
गौणपथेर प्रक्रिया
तार काम अनुसारे चालाञा ताहारे
गौणपथ भक्तिमार्गे श्रद्धा दी तारे ॥ १.६७ ॥
ए तोमार कृपा प्रभु तुमि कृपामय ।
कृपा ना करिले किसे जीव शुद्ध हय ॥ १.६८ ॥
कलिते गौणपथेर दुर्दशा
सत्ययुगे ध्यानयोगे कत ऋषिगणे ।
शुद्ध करिऽ दिले प्रभु निजभक्तिधने ॥ १.६९ ॥
त्रेतायुगे यज्ञकर्मे अनेक शोधिले ।
द्वापरे अर्चनमार्गे भक्ति बिलाइले ॥ १.७० ॥
कलि आगमने नाथ जीवेर दुर्दशा ।
देखि ज्ञान कर्म योग छाडिल भरसा ॥ १.७१ ॥
अल्प आयु, बहु पीडा, बलबुद्धिह्रास ।
एइ सब उपद्रव जीवे कैल ग्रास ॥ १.७२ ॥
वर्णाश्रम धर्म आर साङ्ख्य योग ज्ञान ।
कलिजीवे उद्धारिते नहे बलवान् ॥ १.७३ ॥
ज्ञानकर्मगत ये भक्तिर गौणपथ ।
कण्टके सङ्कीर्ण हञा हैल विपथ ॥ १.७४ ॥
पृथकुपाय धरि उपेय साधने ।
विघ्न बहुतर हैल जीवेर जीवने ॥ १.७५ ॥
नामालोचनार मुख्यपथ
प्रभु तुमि जीवेर मङ्गल चिन्ता करि ।
कलि युगे नाम सङ्गे स्वयमवतरि ॥ १.७६ ॥
युग धर्म प्रचारिले नाम सङ्कीर्तन ।
मुख्य पथे जीव पाय कृष्ण प्रेम धन ॥ १.७७ ॥
नामेर स्मरणे आर नामसङ्कीर्तन ।
एइ मात्र धर्म जीव करिबे पालन ॥ १.७८ ॥
साध्यसाधन ओ उपाय उपेयेर अभेदताक्रमे नामेर मुख्यता
येइ त साधन सेइ साध्य यबे हैल ।
उपाय उपेय मध्ये भेद ना रहिल ॥ १.७९ ॥
साध्येर साधने आर नाहि अन्तराय ।
अनायासे तरे जीव तोमार कृपाय ॥ १.८० ॥
आमि त अधम अति मजिया विषये ।
ना भजिनु नाम तव अति मूढ हये ॥ १.८१ ॥
दर दर धारा चक्षे ब्रह्महरिदास ।
पडिल प्रभुर पदे छाडिया निःश्वास ॥ १.८२ ॥
हरि भक्त भक्ति मात्रे विनोद याहार ।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार ॥ १.८३ ॥
इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ नाममाहात्मसूचनं नाम प्रथमः परिच्छेदः ।
(२)
द्वितीय परिच्छेद
नामग्रहणविचार
गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण ॥ २.१ ॥
महाप्रेमे हरिदास करेन रोदन ।
प्रेमे तारे गौरचन्द्र दिला आलिङ्गन ॥ २.२ ॥
बलेन तोमार सम भक्त कोथा आर ।
सर्वतत्त्वज्ञाता तुमि सदा मायापार ॥ २.३ ॥
अनन्य भजनेर श्रेष्ठता
निचकुले अवतरि देखाले सकले ।
धने माने कुले शीले कृष्ण नाहि मिले ॥ २.४ ॥
अनन्य भजने याङ्र श्रद्धा अतिशय ।
देवता अपेक्षा श्रेष्ठ सेइ महाशय ॥ २.५ ॥
श्रीहरिदासेर नामाचार्य्यता
नामतत्त्व सर्वसार तोमार विदित ।
आचारे आचार्य्य तुमि प्रचारे पण्डित ॥ २.६ ॥
बल हरिदास नाममहिमा अपार ।
शुनिया तोमार मुखे आनन्द आमार ॥ २.७ ॥
वैष्णवलक्षण
एक नाम यार मुखे वैष्णव से हय ।
तारे गृही यत्न करि मानिबे निश्चय ॥ २.८ ॥
वैष्णवतरलक्षण
निरन्तर यार मुखे शुनि कृष्णनाम ।
सेइ से वैष्णवतर सर्वगुणधाम ॥ २.९ ॥
वैष्णवतमलक्षण
वैष्णव उत्तम सेइ याहारे देखिले ।
कृष्णनाम आसे मुखे कृष्णभक्ति मिले ॥ २.१० ॥
हेन कृष्णनाम जीव कि रूपे करिबे ।
ताहार विधान तुमि आमारे बलिबे ॥ २.११ ॥
कर युडि हरिदास बलेन वचन ।
प्रेम गदगद स्वर सजल नयन ॥ २.१२ ॥
नामेर स्वरूप
कृष्णनाम चिन्तामणि अनादि चिन्मय ।
येइ कृष्ण सेइ नाम एकतत्त्व हय ॥ २.१३ ॥
चैतन्य विग्रह नाम नित्य मुक्त तत्त्व ।
नाम नामी भिन्न नय नित्य शुद्ध सत्त्व ॥ २.१४ ॥
ए जड जगते ताङ्र अक्षर आकार ।
रसरूपे रसिकेते सत्त्व अवतार ॥ २.१५ ॥
कृष्ण वस्तु हय चारि धर्मे परिचित ।
नाम रूप गुण कर्म अनादि विहित ॥ २.१६ ॥
नाम नित्यसिद्ध
नित्य वस्तु रसरूप कृष्ण से अद्वय ।
सेइ चारि परिचये वस्तु सिद्ध हय ॥ २.१७ ॥
सन्धिनी शक्तिते ताङ्र चारि परिचय ।
नित्यसिद्ध रूपे ख्यात सर्वदा चिन्मय ॥ २.१८ ॥
कृष्ण आकर्षये सर्व विश्वगत जन ।
सेइ नित्य धर्म गत कृष्ण नाम धन ॥ २.१९ ॥
कृष्णरूप नित्य
कृष्णरूप कृष्ण हैते सर्वदा अभेद ।
नाम रूप एक वस्तु नाहिक प्रभेद ॥ २.२० ॥
श्रीनाम स्मरिले रूप आइसे सङ्गे सङ्गे ।
रूप नाम भिन्न नय नाचे नाना रङ्गे ॥ २.२१ ॥
कृष्णगुण नित्य
कृष्णगुण चतुःषष्ठि अनन्त अपार ।
याङ्र निज अंशरूपे सब अवतार ॥ २.२२ ॥
याङ्र गुण अंशे ब्रह्मा शिवादि ईश्वर ।
याङ्र गुणे नारायण षष्ठि गुणेश्वर ॥ २.२३ ॥
सेइ सब नित्यगुणे नित्य नाम ताङ्र ।
अनन्त सङ्ख्याय व्याप्त वैकुण्ठ व्यापार ॥ २.२४ ॥
कृष्णलीलार नित्यत्व
सेइ गुण तरङ्गेते लीलार विस्तार ।
गोलोके वैकुण्ठ व्रज सब चिद्आकारे ॥ २.२५ ॥
चिद्वस्तुते नाम, रूप, गुण, लीला वस्तु हैते पृथक्नय
नाम रूप गुण लीला अभिन्न उदय ।
अचित्सम्पर्के बद्ध जीवे भिन्न हय ॥ २.२६ ॥
शुद्ध जीवे नाम रूप गुण क्रिया एक ।
जडाश्रित देहे भेद एइ से विवेक ॥ २.२७ ॥
कृष्णे नाहि जडगन्ध अतएव ताङ्य ।
नाम रूप गुण लीला एकतत्त्व भाय ॥ २.२८ ॥
नामेर सर्वमूलत्व
एइ चारि परिचय मध्ये नाम ताङ्र ।
सकलेर आदि से प्रतीति सबाकार ॥ २.२९ ॥
अतएव नाम मात्र वैष्णवेर धर्म ।
नामे प्रस्फुटित हय रूप गुण कर्म ॥ २.३० ॥
कृष्णेर समग्र लीला नामे विद्यमान ।
नामे से परम तत्त्व तोमार विधान ॥ २.३१ ॥
वैष्णव ओ वैष्णवप्राये भेद आछे
सेइ नाम बद्ध जीव श्रद्धा सहकारे ।
शुद्ध रूपे लैले वैष्णव बलि तारे ॥ २.३२ ॥
नामाभास यार हय से वैष्णवप्राय ।
कृष्णकृपा बले क्रमे शुद्ध भाव पाय ॥ २.३३ ॥
एइ मायिक जगते कृष्णनाम ओ जीव एइ दुइटि मात्र चिद्व्यापार
नाम सम वस्तु नाइ ए भव संसारे ।
नामे से परम धन कृष्णेर भाण्डारे ॥ २.३४ ॥
जीव निजे चिद्व्यापारे कृष्णनाम आर ।
आर सब प्रापञ्चिक जगत्संसार ॥ २.३५ ॥
मुख्य गौण भेदे नाम दुइ प्रकार
मुख्य ओ गौण भेदे कृष्णनाम द्विप्रकार ।
मुख्यनामाश्रये जीव पाय सर्व सार ॥ २.३६ ॥
चिल्लीला आश्रय करि यत कृष्ण नाम ।
सेइ सेइ मुख्य नाम सर्व गुण धाम ॥ २.३७ ॥
मुख्य नाम
गोविन्द गोपाल राम श्रीनन्दनन्दन ।
राधानाथ हरि यशोमती प्राणधन ॥ २.३८ ॥
मदनमोहन श्यामसुन्दर माधव ।
गोपीनाथ व्रजगोप राखाल यादव ॥ २.३९ ॥
एइ रूप नित्य लीला प्रकाशक नाम ।
ए सब कीर्तने जीव पाय कृष्ण धाम ॥ २.४० ॥
गौण नाम ओ ताहार लक्षण
जडा प्रकृतिर परिचये नाम यत ।
प्रकृतिर गुणे गौण वेदेर सम्मत ॥ २.४१ ॥
सृष्टिकर्ता परमात्मा ब्रह्म स्थितिकर ।
जगत्संहर्ता पाता यज्ञेश्वर हर ॥ २.४२ ॥
मुख्य ओ गौण नामेर फलभेद
एइरूप नाम कर्मज्ञानकाण्डगत ।
पुण्य मोक्ष दान करे शास्त्रेर सम्मत ॥ २.४३ ॥
नामेर ये मुख्य फल कृष्ण प्रेम धन ।
तार मुख्य नामे मात्र लभे साधु गण ॥ २.४४ ॥
नाम ओ नामाभासमात्र फलभेद
एक कृष्णनाम यदि मुखे बाहिराय ।
अथवा श्रवणपथे अन्तरेते याय ॥ २.४५ ॥
शुद्ध वर्ण हय वा अशुद्ध वर्ण हय ।
ताते जीव तरे एइ शास्त्रेर निर्णय ॥ २.४६ ॥
किन्तु एक कथा इथे आछे सुनिश्चित ।
नामाभास हैले विलम्बे हय हित ॥ २.४७ ॥
नामाभास हैले ओ अन्य शुभ हय ।
प्रेमधन केवल विलम्बे उपजय ॥ २.४८ ॥
नामाभासे पापक्षये शुद्ध नाम हय ।
तखने श्रीकृष्णप्रेम लभये निश्चय ॥ २.४९ ॥
व्यवहित वा व्यवधाने दोषे जन्मे
किन्तु व्यवहित हले हय अपराध ।
सेइ अपराधे हय प्रेमलाभ बाध ॥ २.५० ॥
नामनामी भेदबुद्धि व्यवधान हय ।
व्यवहित थाकिले कदापि प्रेम नय ॥ २.५१ ॥
व्यवधान दुइ प्रकार
वर्णव्यवधान आर तत्त्वव्यवधान ।
व्यवधान द्विप्रकार वेदेर विधान ॥ २.५२ ॥
मायावादे नामे तत्त्वव्यवधान करे
तत्त्वव्यवधान मायावाद दुष्ट मत ।
कलिर जञ्जाल एइ शास्त्र असम्मत ॥ २.५३ ॥
व्यवधानाबिद्ध नामे शुद्ध नाम
अतएव शुद्ध कृष्ण नाम याङ्र मुखे ।
ताङ्हाके वैष्णव जानि सदा सेवि सुखे ॥ २.५४ ॥
अनर्थ यत नष्ट हय तते नामाभासत्व दूर हय ओ चिन्मय नाम प्रकाश पाय
नामाभास भेदि शुद्धनाम लभिबारे ।
सद्गुरु सेविबे जीव यत्न सहकारे ॥ २.५५ ॥
भजने अनर्थ नाश येइ क्षणे पाय ।
चित्स्वरूप नामे नाचे भक्तेर जीह्वाय ॥ २.५६ ॥
नाम से अमृत धारा नाहि छाडे आर ।
नाम रसे मत्त जीव नाचे अनिवार ॥ २.५७ ॥
नाम नाचे जीव नाचे नाचे प्रेम धन ।
जगत्नाचाय माया करे पलायन ॥ २.५८ ॥
याहार नामे श्रद्धा हय ताहारे नामे अधिकार हैया थाके नामे सर्वशक्ति आछे
नामे अधिकार नरमात्रे कैले दान ।
सर्वशक्ति नामे प्रभु करिले विधान ॥ २.५९ ॥
यार श्रद्धा हय नामे सेइ अधिकारी ।
यार मुखे कृष्णनाम सेइ से आचारी ॥ २.६० ॥
देशकाल अशौचादिर बाधा नामे नाइ
देश काल अशौचादि नियम सकाल ।
श्रीनामग्रहणे नाइ नाम से प्रबल ॥ २.६१ ॥
कलिजीवेर नामे निष्कपट विश्वास हैले इ नामे अधिकार हैल
दाने यज्ञे स्नाने जपे आछे त विचार ।
कृष्णसङ्कीर्तने मात्र श्रद्धा अधिकार ॥ २.६२ ॥
युगधर्म हरिनाम अनन्य श्रद्धाय ।
ये करे आश्रय तार सर्वलाभ हय ॥ २.६३ ॥
कलि जीव निष्कपटे कृष्णेर संसारे ।
अवस्थित हये कृष्णनाम सदा करे ॥ २.६४ ॥
नामेर अनुकूल विषय ग्रहण ओ प्रतिकूल विसय वर्जन
भजनेर अनुकूल सर्व कार्य्य करिऽ ।
भजनेर प्रतिकूल सब परिहरिऽ ॥ २.६५ ॥
कृष्णेर संसारे थाकिऽ काटाये जीवन ।
निरन्तर हरिनाम करेन स्मरण ॥ २.६६ ॥
अनन्य बुद्धिते नाम ग्रहण करिबे
आर कोन धर्म कर्म कभु ना करिबे ।
स्वतन्त्र ईश्वरज्ञाने अन्ये ना पूजिबे ॥ २.६७ ॥
कृष्णनाम भक्तसेवा सतत करिबे ।
कृष्णप्रेम लाभ तार अवश्य हेबे ॥ २.६८ ॥
हरिदास काङ्दि प्रभु चरणे पडिया ।
नामे अनुराग मागे चरण धरिया ॥ २.६९ ॥
हरिदास पदे भक्तिविनोद याहार ।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार ॥ २.७० ॥
इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ
नामग्रहणविचारो नाम प्रथमः परिच्छेदः ।
(३)
तृतीय परिच्छेद
नामाभास विचार
गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तजन ॥ ३.१ ॥
हरिदासे महाप्रभु सदय हैया ।
उठाय तखन पद्महस्त प्रसारिया ॥ ३.२ ॥
बले शुन हरिदास आमार वचन ।
नामाभास स्पष्टरूपे बुझाओ एखन ॥ ३.३ ॥
नामाभास बुझाइले नाम शुद्ध हबे ।
अनायासे जीव नामगुणे तरे याबे ॥ ३.४ ॥
नामाभासमेघ कुज्झटिकारूप अज्ञान ओ अनर्थ
नाम सूर्यसम नाशे माया अन्धकार ।
मेघ कुज्झटिका नामे ढाके बार बार ॥ ३.५ ॥
जीवेर अज्ञान आर अनर्थ सकल ।
कुज्झटिकामेघरूपे हय त प्रबल ॥ ३.६ ॥
कृष्णनाम सूर्य चित्तगगणे उठिल ।
कुज्झटिकामेघ पुनः ताहारे ढाकिल ॥ ३.७ ॥
अज्ञान कुज्झटिका स्वरूप भ्रम
नामेर ये चित्स्वरूप ताहा नाहि जाने ।
से अज्ञान कुज्झटिका अन्धकार आने ॥ ३.८ ॥
कृष्ण सर्वेश्वर बलि नाहि जाने येइ ।
नाना देवे पूजि कर्ममार्गे भ्रमे सेइ ॥ ३.९ ॥
जीवे चित्स्वरूप बलि नाहि यार ज्ञान ।
माया जडाश्रये तार सतत अज्ञान ॥ ३.१० ॥
तबे हरिदास बले आज आमि धन्य ।
मम मुखे नाम कथा शुनिबे चैतन्य ॥ ३.११ ॥
कृष्ण जीव प्रभु दास जडात्मिका माया ।
ये ना जाने तार शिरे अज्ञानेर छाया ॥ ३.१२ ॥
मेघ अनर्थासत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध
असत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध ।
अनर्थ ए सब मेघरूपे करे बाध ॥ ३.१३ ॥
नामसूर्य रश्मि ढाके नामाभास हय ।
स्वतः सिद्ध कृष्णनामे सदा आच्छादय ॥ ३.१४ ॥
नामाभासेर अवधि
सम्बन्धतत्त्वेर ज्ञान यावत्ना हय ।
तावत्से नामाभास जीवेर आश्रय ॥ ३.१५ ॥
साधक यद्यपि पाय सद्गुरु आश्रय ।
भजननैपुण्ये मेघ आदि दूर हय ॥ ३.१६ ॥
सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन
मेघ कुज्झटिका गेले नामदिवाकर ।
प्रकाश हैया भक्ते देन प्रेमवर ॥ ३.१७ ॥
सद्गुरु सम्बन्ध ज्ञान करिया अर्पण ।
अभिधेय रूपे करान नामानुशीलन ॥ ३.१८ ॥
नामसूर्य स्वल्पकाले प्रबल हैया ।
अनर्थकुज्झटिका देन ताडाइया ॥ ३.१९ ॥
प्रयोजनतत्त्व तबे देन प्रेमधन ।
प्राप्तप्रेम जीव करे नामसङ्कीर्तन ॥ ३.२० ॥
सम्बन्धज्ञान
सद्गुरुचरणे जीव श्रद्धा सहकारे ।
प्रथमे सम्बन्धज्ञान पाय सुविचारे ॥ ३.२१ ॥
कृष्ण नित्य प्रभु आर जीव नित्य दास ।
कृष्ण प्रेम नित्य जीवस्वभाव प्रकाश ॥ ३.२२ ॥
कृष्ण नित्य दास जीव ताहा विस्मरिया ।
मायिक जगते फिरे सुख अन्वेषिया ॥ ३.२३ ॥
मायिक जगथय जीव कारागार ।
जीवेर वैमुख्य दोषे दण्ड प्रतिकार ॥ ३.२४ ॥
तबे यदि जीव साधु वैष्णव कृपाय ।
सम्बन्ध ज्ञानेते पुनः कृष्णनाम पाय ॥ ३.२५ ॥
तबे पाय प्रेमधन सर्वधर्मसार ।
याहार निकटे सायुज्यादिर धिक्कार ॥ ३.२६ ॥
यावत्सम्बन्ध ज्ञान स्थिर नाहि हय ।
तावतनर्थे नामाभासेर आश्रय ॥ ३.२७ ॥
नामाभासेर फल
नामाभास दशाते ओ अनेक मङ्गल ।
जीवेर अवश्य हय सुकृति प्रबल ॥ ३.२८ ॥
नामाभासे नष्ट हय आछे पाप यत ।
नामाभासे मुक्ति हय कलि हय हत ॥ ३.२९ ॥
नामाभासे नर हय सुपङ्क्ति पावन ।
नामाभासे सर्वरोग हय निवारण ॥ ३.३० ॥
सकल आशङ्का नामाभासे दूर हय ।
नामाभासी सर्वारिष्ट हैते शान्ति पाय ॥ ३.३१ ॥
यक्ष रक्ष भूत प्रेत ग्रह समुदय ।
नामाभासे सकल अनर्थ दूरे याय ॥ ३.३२ ॥
नरके पतित लोक सुखे मुक्ति पाय ।
समस्त प्रारब्ध कर्म नामाभासे याय ॥ ३.३३ ॥
सर्ववेदाधिक सर्व तीर्थ हैते बड ।
नामाभास सर्वशुभकर्म श्रेष्ठतर ॥ ३.३४ ॥
नामाभासेर वैकुण्ठादिप्रापकत्व
धर्म अर्थ काम मोक्ष चतुर्वर्गदाता ।
सर्वशक्ति धरे नामाभासे जीवत्राता ॥ ३.३५ ॥
जगतानन्दकर श्रेष्ठपदप्रद ।
अगतिर एक गति सर्वश्रेष्ठपद ॥ ३.३६ ॥
वैकुण्ठादि लोक प्राप्ति नामाभासे हय ।
विशेषतः कलियुगे सर्वशास्त्र कय ॥ ३.३७ ॥
सङ्केत, परिहास, स्तोभ ओ हेला एइ चारिप्रकार नामाभास
चतुर्विध नामाभास एइ मात्र जानि ।
सङ्केत ओ परिहास, स्तोभ, हेला मानि ॥ ३.३८ ॥
सङ्केतरूप नामाभासेर प्रकारद्वय
विष्णु लक्ष्य करि जड बुद्ध्ये नाम लय ।
अन्य लक्ष्य करि विष्णु नाम उच्चारय ॥ ३.३९ ॥
सङ्गेते द्विविध एइ हय नामाभास ।
अजामिल साक्षी तार शास्त्रेते प्रकाश ॥ ३.४० ॥
यवन सकल मुक्त हबे अनायासे ।
हाराम हाराम बलि कहे नामाभासे ॥ ३.४१ ॥
अन्यत्र सङ्केते यदि हय नामाभास ।
तथापि नामेर तेज ना हय विनाश ॥ ३.४२ ॥
परिहासनामाभास
परिहासे कृष्णनाम येइ जन करे ।
जरासन्ध सम सेइ ए संसारे तरे ॥ ३.४३ ॥
स्तोभ नामाभास
अङ्गभङ्गी चैद्य सम करे नामाभास ।
स्तोभ मात्र हय तबु नाशे भवपाश ॥ ३.४४ ॥
हेला नामाभास
मन नाहि देय आर अवज्ञा भावेते ।
कृष्ण राम बले हेला नामाभास ताते ॥ ३.४५ ॥
एइ सब नामाभासे म्लेच्छगण तरे ।
विषयी अलस जन एइ पथ धरे ॥ ३.४६ ॥
श्रद्धा ओ हेला नामाभासेर भेद
श्रद्धा करि करे नाम अनर्थ सहित ।
श्रद्धा नाम हय सेइ तोमार विहित ॥ ३.४७ ॥
सङ्केतादि अवज्ञा पर्यन्त भाव धरि ।
नाम करे हेलाय ये श्रद्धा परिहरि ॥ ३.४८ ॥
नामाभास अवधि से हेला नाम हय ।
ताहाते ओ मुक्ति लभे पाप हय क्षय ॥ ३.४९ ॥
अनर्थनाशे नामाभास नाम हैया प्रेम देय
कृष्ण प्रेम छाडि सब नामाभासे पाय ।
नामाभासे पुनः शुद्ध नाम हये याय ॥ ३.५० ॥
अनर्थ विगते यबे शुद्ध नाम हय ।
कृष्णप्रेम तबे तार हेबे निश्चय ॥ ३.५१ ॥
नामाभासे साक्षात्से प्रेम दिते नारे ।
नाम हये प्रेम देय विधि अनुसारे ॥ ३.५२ ॥
नामाभास ओ नामापराधेर भेद
अतएव नाम अपराध परिहरि ।
नामाभास करे येइ तारे नति करि ॥ ३.५३ ॥
कर्म ज्ञान हैते अनन्त श्रेष्ठतर ।
बलि नामाभासे जानि ओहे सर्वेश्वर ॥ ३.५४ ॥
रति मूला श्रद्धा यदि शुद्धभावे हय ।
तबे त विशुद्ध नाम हेबे उदय ॥ ३.५५ ॥
छाया ओ प्रतिबिम्ब भेदे आभास दुइ प्रकार
छाया नामाभास
आभास द्विविध हय प्रतिबिम्ब छाया ।
श्रद्धाभास द्विप्रकार सब तव माया ॥ ३.५६ ॥
छाया श्रद्धाभासे छायानामाभास हय ।
सेइ नामाभासे जीवेर शुभ प्रसवय ॥ ३.५७ ॥
प्रतिबिम्ब नामाभास
अन्य जीवे शुद्धा श्रद्धा करिया दर्शन ।
निज मने श्रद्धाभास आने येइ जन ॥ ३.५८ ॥
भोग मोक्ष वाञ्छा ताहे थाके नित्य मिशि ।
अश्रमे अभीष्ट लाभे यते दिवानिशि ॥ ३.५९ ॥
श्रद्धार लक्षण मात्र श्रद्धा ताहे नय ।
ताके प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास शास्त्रे कय ॥ ३.६० ॥
प्रतिबिम्ब श्रद्धाभासे नामाभास यत ।
प्रतिबिम्बनामाभास हय अविरत ॥ ३.६१ ॥
प्रतिबिम्ब नामाभासे मायावाद कपटता उत्पन्न करे
एइ नामाभासे मायावाद दुष्टमत ।
प्रवेशिया शठताय हय परिणत ॥ ३.६२ ॥
कपट प्रतिबिम्बनामाभास नामापराध
नित्य साध्य नामे साधन बुद्धि करि ।
नामेर महिमा नाशि अपराधे मरि ॥ ३.६३ ॥
छाया नामाभास ओ प्रतिबिम्बनामाभासेर भेद
छाया नामाभासे मात्र हयत अज्ञान ।
हृदयदौर्बल्य हैते अनर्थ विधान ॥ ३.६४ ॥
सेइ सब दोषे नाम करेन मार्जन ।
प्रतिबिम्ब नामाभासे दोषेर वर्धन ॥ ३.६५ ॥
मायावाद ओ भक्ति इङ्हारा परस्पर विपरीत धर्म
मायावादे अपराध
कृष्णनाम रूप गुण लीलादि सकल ।
मायावादिमते मिथ्या नश्वर सकल ॥ ३.६६ ॥
सेइ मते प्रेमतत्त्व नित्य नाहि हय ।
भक्तिविपरीत मायावाद सुनिश्चय ॥ ३.६७ ॥
भक्तिवैरी मध्ये मायावादेर गणन ।
अतएव मायावादी अपराधी हन ॥ ३.६८ ॥
मायावादि मुखे नाम नाहि बाहिराय ।
नाम बाहिराय तबु नामत्व ना पाय ॥ ३.६९ ॥
मायावादी यदि करे नाम उच्चारण ।
नामके अनित्य बलि लभये पतन ॥ ३.७० ॥
नामेर निकटे भोगमोक्षेर प्रार्थना ।
नामेर निकटे शाठ्य फलेते यातना ॥ ३.७१ ॥
मायावादीर अपराध कखन छाडे
तबे यदि मायावादी भुक्ति मुक्ति आश ।
छाडिया करये नाम हये कृष्णदास ॥ ३.७२ ॥
तबे तारे छाडे मायावाद दुष्टमत ।
अनुताप सह हय नाम अनुगत ॥ ३.७३ ॥
साधु सङ्गे करे पुनः श्रवण कीर्तन ।
सुसम्बन्ध ज्ञान तार उदे तत क्षण ॥ ३.७४ ॥
अविश्रान्त नाम करे पडे चक्षु जल ।
नाम कृपा पाय चित्त हय त सबल ॥ ३.७५ ॥
भक्तिके अनित्य बलिया मायावाद अपराध हेयाछे
कृष्णरूप कृष्णदास्य जीवेर स्वभाव ।
मायावाद अनित्य कल्पित बले सब ॥ ३.७६ ॥
हेन मायावाद नाम अपरादे गणि ।
मायावाद हय सर्व विपदेर खनि ॥ ३.७७ ॥
मायावादी नामाभासे युक्त्य्आभासरूपे सायुज्य लाभ करे
नामाभास कल्पतरु मायावादिजने ।
अभीष्ट अर्पण करे सायुज्य निर्वाणे ॥ ३.७८ ॥
सर्वशक्ति नामे आछे ताइ नामाभासे ।
प्रतिबिम्ब हेले ओ देन मुक्त्य्आभासे ॥ ३.७९ ॥
पञ्चविध मुक्ति मध्ये सायुज्य आभास ।
भव क्लेश नाशे मात्र फले सर्वनाश ॥ ३.८० ॥
मायावादी नित्यसुख पाय ना
मायाय मोहित जन ताहे सुख माने ।
सुखाभास मात्र पाय सायुज्य निर्वाणे ॥ ३.८१ ॥
सच्चित्आनन्द सेवा परम निर्वृति ।
सायुज्य ना पाय कभु हतकृष्णस्मृति ॥ ३.८२ ॥
याङ्हा नाहि भक्ति प्रेम नित्यता विश्वास ।
नित्य सुख कैछे ताहे हेबे प्रकाश ॥ ३.८३ ॥
छाया नामाभासी दुष्टमते ना प्रवेश करिले क्रमे शुद्ध नाम पाइया थाकेन
छाया नामाभासी नाहि जाने दुष्टमत ।
मतवादे चित्तबले नहे तार हत ॥ ३.८४ ॥
से केवल नाहि जाने यथार्थ प्रभाव ।
से प्रभाव ज्ञानदान नामेर स्वभाव ॥ ३.८५ ॥
मेघाच्छन्ने सूर्यप्रभा प्रतीत ना हय ।
किन्तु मेघे नाशि सूर्य करेन उदय ॥ ३.८६ ॥
छाया नामाभासी धन्य सद्गुरु प्रभावे ।
अल्पदिने नाम प्रेम अनायासे पाबे ॥ ३.८७ ॥
भक्तेर मायावादीर सङ्ग अवश्य परित्याज्य
मायावादी सङ्ग तेङ्ह सतर्के छाडिया ।
शुद्ध नाम परायण तुषिबे सेविया ॥ ३.८८ ॥
एइ त तोमार आज्ञा श्रीकृष्णचैतन्य ।
सेइ आज्ञा येइ पाले सेइ जीव धन्य ॥ ३.८९ ॥
ये ना पाले तव आज्ञा सेइ जीव छार ।
कोटी जन्मे किछुते इ ना हबे उद्धार ॥ ३.९० ॥
कुसङ्ग छाडिये प्रभु राख तव पाय ।
तव पादपद्म विना ना देखि उपाय ॥ ३.९१ ॥
हरिदास पदद्वन्द्वे विनोद याहार ।
हरिनामचिन्तामणि सदा गान तार ॥ ३.९२ ॥
इति श्री हरिनामचिन्तामणौ नामाभासवर्णनं नाम
तृतीयः परिच्छेदः ।
(४)
चतुर्थ परिच्छेद
नाम अपराधसाधु निन्दा
सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते
यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हाम् ।
गदाधरप्राण जय जाह्नवाजीवन ।
जय सीतानाथ श्रीवासादि भक्तजन ॥ ४.१ ॥
प्रभु बले हरिदास एबे सविस्तारे ।
नाम अपराध व्याख्या कर अतःपर ॥ ४.२ ॥
हरिदास बले प्रभु मोरे या बलाबे ।
ताहाइ बलिब आमि तोमार प्रभावे ॥ ४.३ ॥
दशविध नामापराध
नाम अपराध दशविध शास्त्रे कय ।
सेइ अपराधे मोर बड हय भय ॥ ४.४ ॥
एक एक करि आमि बलिब सकल ।
अपराधे वाङ्चि याते देह मोरे बल ॥ ४.५ ॥
साधुनिन्दा अन्यदेव स्वातन्त्र्य मनन ।
नाम तत्त्व गुरु आर शास्त्र विनिन्दन ॥ ४.६ ॥
हरिनामे अर्थ वाद कल्पित मनन ।
नामबले पाप श्रद्धाहीने नामार्पण ॥ ४.७ ॥
अन्य शुभकर्मेर समान कृष्णनाम ।
ए कथा बलिले अपराध अविश्राम ॥ ४.८ ॥
नामेते अनवधान हय अपराध ।
ताहाके पुराण कर्ता बलेन प्रमाद ॥ ४.९ ॥
नामेर माहात्म्य जाने तबु नाहि भजे ।
अहं मम आसक्तिते संसारेते मजे ॥ ४.१० ॥
साधुनिन्दाइ प्रथम अपराध
साधुनिन्दा प्रथमापराध बलिऽ जानि ।
एइ अपराधे जीवेर हय सर्व हानि ॥ ४.११ ॥
स्वरूप ओ तटस्थ लक्षण भेदे साधु लक्षण द्वय विचार
साधुर लक्षण तुमि बलियाछ प्रभो ।
एकादशे उद्धवेरे कृष्णरूपे विभो ॥ ४.१२ ॥
दयालु सहिष्णु सम द्रोहशून्यव्रत ।
सत्यसार विशुद्धात्मा परहिते रत ॥ ४.१३ ॥
कामे अक्षुभित बुद्धि दान्त अकिञ्चन ।
मृदु शुचि परिमितभोजी शान्तमन ॥ ४.१४ ॥
अनीह धृतिमान् स्थिर कृष्णैकशरण ।
अप्रमत्त सुगम्भीर विजित षड्गुण ॥ ४.१५ ॥
अमानी मानद दक्ष अवञ्चक ज्ञानी ।
एइ सब लक्षणेते साधु बलि जानि ॥ ४.१६ ॥
एइ सब लक्षण प्रभो हय द्विप्रकार ।
स्वरूप तटस्थ भेदे करिब विचार ॥ ४.१७ ॥
स्वरूपलक्षणे प्रधान लक्षण, तद्आश्रये तटस्थ लक्षण उदय हय
कृष्णैकशरण हय स्वरूपलक्षण ।
तटस्थ लक्षणे अन्य गुणेर गणन ॥ ४.१८ ॥
कोन भाग्ये साधुसङ्गे नामे रुचि हय ।
कृष्णनाम गाय करे कृष्णपादाश्रय ॥ ४.१९ ॥
स्वरूप लक्षण सेइ हेत हेल ।
गाइते गाइते नाम अन्य गुण आइल ॥ ४.२० ॥
अन्य गुणगण ताइ तटस्थ गणन ।
अवश्य वैष्णव देहे हबे सङ्घटन ॥ ४.२१ ॥
वर्णाश्रम लिङ्ग, नानाप्रकार वेषद्वारा साधुत्व हय ना,
कृष्णैकशरणताइ साधुर लक्षण
वर्णाश्रम चिह्न नानावेषेर रचना ।
साधुर लक्षणे कभु ना हय गणना ॥ ४.२२ ॥
श्रीकृष्णशरणागति साधुर लक्षण ।
तार मुखे हय कृष्णनामसङ्कीर्तन ॥ ४.२३ ॥
गृही ब्रह्मचारी वानप्रस्थ न्यासिभेदे ।
शूद्र वैश्य क्षत्र विप्रगणेर प्रभेदे ॥ ४.२४ ॥
साधुत्व कखन नाहि हेबे निर्णीत ।
कृष्णैकशरण साधु शास्त्रेर विहित ॥ ४.२५ ॥
गृहिसाधुलक्षण
रघुनाथदासे लक्ष्ये करिया सेवार ।
गृहिसाधुजने शिखायेछ एइ सार ॥ ४.२६ ॥
स्थिर हये घरे याओ ना हओ बातुल ।
क्रमे क्रमे पाय लोक भवसिन्धुकुल ॥ ४.२७ ॥
मर्कट वैराग्य छाड लोक देखाइया ।
यथायोग्य विषय भुञ्ज अनासक्त हञा ॥ ४.२८ ॥
अन्तरे निष्ठा कर बाह्ये लोक व्यवहार ।
अचिरे श्रीकृष्ण तोमाय करिबे उद्धार ॥ ४.२९ ॥
गृहत्यागी साधुलक्षण
पुनः तुमि तार देखि वैराग्य ग्रहण ।
एइ मत शिक्षा दिले अपूर्व श्रवण ॥ ४.३० ॥
ग्राम्यकथा ना शुनिबे ग्राम्यवार्ता ना कहिबे ।
भाल ना खाइबे आर भाल ना परिबे ॥ ४.३१ ॥
अमानी मानद हञा कृष्णनाम सदा लबे ।
व्रजे राधाकृष्णसेवा मानसे करिबे ॥ ४.३२ ॥
गृही ओ गृहत्यागी उभयेरे स्वरूप लक्षण
स्वरूप लक्षण एक सर्वत्र समान ।
आश्रमादि भेदे पृथक्तटस्थ विधान ॥ ४.३३ ॥
अनन्यशरणे यदि देखि दुराचार ।
तथापि से साधु बलि सेव्य सबाकार ॥ ४.३४ ॥
एइ त श्रीकृष्णवाक्य गीताभागवते ।
इहाके पूजिब यत्ने सदा सर्व मते ॥ ४.३५ ॥
इहाते आछे त एक निगूढ सिद्धान्त ।
कृपा करि जानायेछ ताइ पाइ अन्त ॥ ४.३६ ॥
पूर्वपापेर गन्धावशेष ओ पूर्वपाप लक्ष्य करिया यिनि कृष्णैकशरण साधुर निन्दा करेन, तिनि नामापराधी
कृष्णनामे रुचि यबे हेबे उदय ।
एक नामे पूर्व पाप हेबेक क्षय ॥ ४.३७ ॥
पूर्वपाप गन्ध तबु थाके किछु दिन ।
नामेर प्रभावे क्रम हञा पडे क्षीण ॥ ४.३८ ॥
शीघ्र सेइ पापगन्ध विदूरित हय ।
परम धर्मात्मा बलि हय परिचय ॥ ४.३९ ॥
ये कयेक दिन सेइ गन्ध नाहि याय ।
साधारण जन चक्षे पाप बलि भाय ॥ ४.४० ॥
से पाप देखिया येइ साधुनिन्दा करे ।
पूर्वपाप लक्षि पुनः अवज्ञा आचरे ॥ ४.४१ ॥
सेइ त पाषण्डी वैष्णवेर निन्दा दोषे ।
नाम अपराध मजि पडे कृष्णरोषे ॥ ४.४२ ॥
कृष्णैकशरणताइ साधु लक्षण आपनाके साधु बलिया परिचय देओया दाम्भिकता
कृष्णैकशरण मात्र कृष्णनाम गाय ।
साधुनामे परिचित कृष्णेर कृपाय ॥ ४.४३ ॥
कृष्णभक्त व्यतीत नाहिक साधु आर ।
आमि साधु बलि हय दम्भ अवतार ॥ ४.४४ ॥
स्वल्पाक्षरे साधुनिर्णय
से बलिबे आमि दीन कृष्णैकशरण ।
कृष्णनाम यार मुखे साधु सेइ जन ॥ ४.४५ ॥
तृण हैते हीन बलि आपनाके जाने ।
सहिष्णु तरुर न्याय आपनाके माने ॥ ४.४६ ॥
निजे त अमानी आर सकले मानद ।
तार मुखे कृष्णनाम कृष्णरतिप्रद ॥ ४.४७ ॥
नामापराध वैष्णवे साधु, तद्देहे कृष्णशक्ति
हेन साधुमुखे यबे शुनि एक नाम ।
वैष्णव बलिया तारे करिब प्रणाम ॥ ४.४८ ॥
वैष्णव से जगद्गुरु जगतेर बन्धु ।
वैष्णव सकल जीवे सदा कृपा सिन्धु ॥ ४.४९ ॥
ए हेन वैष्णवनिन्दा येइ जन करे ।
नरके पडिबे से जन्मजन्मान्तरे ॥ ४.५० ॥
भक्ति लभिबारे आर नाहिक उपाय ।
भक्ति लभे सर्वजीव वैष्णव कृपाय ॥ ४.५१ ॥
वैष्णव देहेते थाके श्रीकृष्णेर शक्ति ।
सेइ देह स्पर्शे अन्ये हय कृष्णभक्ति ॥ ४.५२ ॥
वैष्णव अधरामृत आर पद जल ।
वैष्णवेर पदरजः तिन महाबल ॥ ४.५३ ॥
वैष्णवेर शक्ति सञ्चार
वैष्णवनिकटे यदि बैसे कतलक्षण ।
देह हैते हय कृष्णशक्ति निःसरण ॥ ४.५४ ॥
सेइ शक्ति श्रद्धावान् हृदये पशिया ।
भक्तिर उदय करे देह काङ्पाइया ॥ ४.५५ ॥
ये बसिल वैष्णवेर निकटे श्रद्धाय ।
ताहार हृदये भक्ति हेबे उदय ॥ ४.५६ ॥
प्रथमे आसिबे तार मुखे कृष्णनाम ।
नामेर प्रभावे पाबे सर्वगुणग्राम ॥ ४.५७ ॥
वैष्णवेर कि कि दोष धरिले वैष्णवनिन्दा हयजातिदोष पूर्वदोष नष्टप्राय अवशिष्ट दोष कादाचित्क दोष
वैष्णवेर जाति आर पूर्व दोष धरे ।
कादाचित्क दोष देखि येइ निन्दा करे ॥ ४.५८ ॥
नष्टप्राय दोष लये करे अपमान ।
यमदण्डे कष्ट पाय से सब अज्ञान ॥ ४.५९ ॥
वैष्णवेर मुखे नाममाहात्म्यप्रचार ।
से वैष्णवनिन्दा कृष्ण नाहि सहे आर ॥ ४.६० ॥
धर्म योग याग ज्ञानकाण्ड परिहरि ।
ये भजिल कृष्णनाम सेइ सर्वोपरि ॥ ४.६१ ॥
अन्य देव शास्त्र निन्दादिशून्य नामाश्रयी साधु
अन्यदेर अन्यशास्त्र ना करि निन्दन ।
नामेर आश्रय लय शुद्ध साधुजन ॥ ४.६२ ॥
से साधु गृहस्थ हो अथवा सन्न्यासी ।
ताहार चरणरेणु पाइते प्रयासी ॥ ४.६३ ॥
याब यत नामे रति से तत वैष्णव ।
वैष्णवेर क्रम एइ मते अनुभव ॥ ४.६४ ॥
इथे वर्णाश्रम धन पाण्डित्य यौवन ।
कोन कार्य नाहि करे रूप बल जन ॥ ४.६५ ॥
अतएव यिनि करिलेन नामाश्रय ।
साधुनिन्दा छाडिबेन ए धर्म निश्चय ॥ ४.६६ ॥
नामाश्रया शुद्धा भक्ति भक्त भक्तिरूपा ।
भक्त भक्तिविवर्जिता हेले विरूपा ॥ ४.६७ ॥
याङ्हा साधुनिन्दा ताङ्हा नाहि भक्ति स्थिति ।
अतएव अपराधे तथा परिणति ॥ ४.६८ ॥
साधुनिन्दा छाडि भक्त साधुभक्ति करे ।
साधुसङ्ग साधुसेवा एइ धर्माचरे ॥ ४.६९ ॥
असत्सङ्ग दुइ प्रकार, तन्मध्ये स्त्रीसङ्गी
असत्सङ्गत्यागे हय वैष्णवाचार ।
असत्सङ्गे हय साध्ववज्ञा अपार ॥ ४.७० ॥
असत्ये द्विप्रकार सर्वशास्त्रे कय ।
सेइ दुइयेर मध्ये योषित्सङ्गी एक हय ॥ ४.७१ ॥
योषित्सङ्गिसङ्गी पुनः तार मध्ये गण्य ।
तार सङ्गत्यागे जीव हेबेक धन्य ॥ ४.७२ ॥
योषित्सङ्गी काहाके बले
कृष्णेरे संसारे ये दाम्पत्य धर्म थाके ।
असत्बलिया शास्त्र ना बले ताहाके ॥ ४.७३ ॥
अधर्म संयोगे आर स्त्रैण भावे रत ।
योषित्सङ्गी जन दुष्ट शास्त्रेर सम्मत ॥ ४.७४ ॥
द्वितीय प्रकार असत्(कृष्णेते अभक्त) तिन प्रकार
कृष्णेते अभक्त असत्द्वितीय प्रकार ।
मायावादी धर्मध्वजी निरीश्वर आर ॥ ४.७५ ॥
यिनि बलेन, एइ सब लोकेर निन्दाके ओ साधुनिन्दा बले तिन्यो वर्ज्य
वर्जिले ए सब सङ्ग साधुनिन्दा नय ।
इहाके ये निन्दा बले सेइ वर्ज्य हय ॥ ४.७६ ॥
एइ सब सङ्ग छाडि अनन्यशरण ।
कृष्णनाम करि पाय कृष्णप्रेमधन ॥ ४.७७ ॥
वैष्णवाभास, प्राकृतवैष्णव, वैष्णवप्राय ओ कनिष्ठवैष्णवैइ सकल एके कथा
साधुसेवाहीन अर्चे लौकिक श्रद्धाय ।
प्राकृत वैष्णव हय वैष्णवेर प्राय ॥ ४.७८ ॥
वैष्णवाभास सेइ नहे तऽ वैष्णव ।
केमने पाइबे साधुसङ्गेर वैष्णव ॥ ४.७९ ॥
अतएव कनिष्ठ मध्येते तारे गणि ।
तारे कृपा करिबेन वैष्णव आपनि ॥ ४.८० ॥
मध्यम वैष्णव
कृष्णप्रेम कृष्णभक्ते मैत्री आचरण ।
बालिशेते कृपा आर द्वेषी उपेक्षण ॥ ४.८१ ॥
करिले मध्यम भक्त शुद्ध भक्त हन ।
कृष्णनाम्ने अधिकार करेन अर्जन ॥ ४.८२ ॥
उत्तम वैष्णव
सर्वत्र याङ्हार हय कृष्णदरशन ।
कृष्णे सकलेर स्थिति कृष्ण प्राण धन ॥ ४.८३ ॥
वैष्णवावैष्णवभेद नाहि थाके ताङ्र ।
वैष्णव उत्तम तिनि कृष्णनामसार ॥ ४.८४ ॥
मध्यम वैष्णवे साधु सेवा करेन
अतएव मध्यम वैष्णव महाशय ।
साधु सेवा रत सदा थाकेन निश्चय ॥ ४.८५ ॥
प्राकृत वैष्णव नामाभासेर अधिकारी
प्राकृत वैष्णव येइ वैष्णवेर प्राय ।
नामाभासे अधिकारी सर्वशास्त्र पाय ॥ ४.८६ ॥
मध्यम वैष्णव नामाधिकारी ओ नामापराध विचार करिबेन
मध्यम वैष्णव मात्र नामे अधिकारी ।
श्रीनामभजने अपराधेर विचारी ॥ ४.८७ ॥
उत्तम वैष्णवे अपराध असम्भव ।
सर्वत्र देखेन तिनि कृष्णेर वैभव ॥ ४.८८ ॥
निज निज अधिकार करिया विचार ।
साधुनिन्दा अपराध करि परिहार ॥ ४.८९ ॥
साधु सङ्ग साधु सेवा नाम सङ्कीर्तन ।
सर्व जीवे दया एइ भक्त आचरण ॥ ४.९० ॥
साधु निन्दा घटिले कि करा कर्तव्य ?
प्रमादे यद्यपि घटे साधुविगर्हण ।
तबे अनुतापे धरि से साधुचरण ॥ ४.९१ ॥
काङ्दिया बलिब प्रभो क्षमि अपराध ।
ए दुष्टनिन्दके कर वैष्णवप्रसाद ॥ ४.९२ ॥
साधु बड दयामय तबे आर्द्रमने ।
क्षमिबेन अपराध कृपा आलिङ्गने ॥ ४.९३ ॥
एइ त प्रथम अपराधेर विचार ।
श्रीचरणे निवेदिनु आज्ञा अनुसार ॥ ४.९४ ॥
हरिदास पादपद्मे भ्रर ये जन ।
हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन ॥ ४.९५ ॥
इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ साधुनिन्दापराधविचारो
नाम चतुर्थः परिच्छेदः ।
(५)
पञ्चम परिच्छेद
देवान्तरे स्वातन्त्र्यज्ञानापराध
शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुणनामादिसकलं
धिया भिन्नं पश्येत्स खलु हरिनामाहितकरः
जय गदाधरप्राण जाह्नवाजीवन ।
जय सीतानाथ जय गौर भक्तजन ॥ ५.१ ॥
हरिदास बले तबे करि योडहात ।
द्वितीयापराध एबे शुन जगन्नाथ ॥ ५.२ ॥
विष्णुतत्त्व
परम अद्वय ज्ञान विष्णु परतत्त्व ।
चित्स्वरूप जगदीश सदा शुद्धसत्त्व ॥ ५.३ ॥
गोलोकविहारी कृष्ण से तत्त्वेर सार ।
चतुःषष्ठि गुणे अलङ्कृत रसाधार ॥ ५.४ ॥
षष्ठिगुण नारायण स्वरूपे प्रकाश ।
सेइ षष्ठिगुण विष्णुसामान्यविलास ॥ ५.५ ॥
पुरुषावतारे आर स्वांश अवतारे ।
सेइ षष्ठिगुण स्पष्ट कार्य अनुसारे ॥ ५.६ ॥
विष्णुर विभिन्नांशेर प्रकार भेद जीवेर पञ्चाशद्गुण
विष्णुर ये विभिन्नांश दुइ त प्रकार ।
पञ्चाशत्गुण जीवे बिन्दु बिन्दु आर ॥ ५.७ ॥
गिरिशादि देवता विभिन्नांश हैयौ सामान्य जीव नन् ताङ्हारा पञ्चाशत्गुणविशिष्ट
गिरिशादि देवे एइ गुण पञ्चाशत् ।
तद्अधिक परिमाणे सर्वदा संयुत ॥ ५.८ ॥
तद्व्यतीत आर पञ्च गुण अंश माने ।
प्रकाशित आछे तबे विचित्रविधाने ॥ ५.९ ॥
षष्ठिगुणे विष्णुत्व
सेइ पञ्च पञ्चाशत्गुणपूर्ण ताय ।
विष्णुते विराजमान सर्व शास्त्रे गाय ॥ ५.१० ॥
तद्व्यतीत आर पञ्चगुण नारायणे ।
आछे तार सत्ता कभु नाहि अन्य जने ॥ ५.११ ॥
षष्ठिगुणे विष्णुतत्त्व परम ईश्वर ।
गिरिश आदि अन्यदेव ताङ्हार किङ्कर ॥ ५.१२ ॥
विभिन्नांश गिरिशादि जीव श्रेष्ठतर ।
विष्णु सर्वजीवेश्वर सर्वदेवेश्वर ॥ ५.१३ ॥
अज्ञानव्यक्ति अन्य देवतार सहित विष्णुके समान मने करे
अन्यदेव सह सम विष्णुके ये माने ।
से बड अज्ञान ईशतत्त्व नाहि जाने ॥ ५.१४ ॥
ए जड जगते विष्णु परम ईश्वर ।
गिरिशादि यत देव ताङ्र विधिकर ॥ ५.१५ ॥
केह बले मायार त्रिगुणे त्रिदिवेश ।
सर्वदा समान ब्रह्म तत्त्व सविशेष ॥ ५.१६ ॥
नानाविध वादानुवादेर सिद्धान्त
शास्त्रेर सिद्धान्ते तबु पूज्य नारायण ।
ब्रह्मा शिव सृष्टिलय कार्येर कारण ॥ ५.१७ ॥
वासुदेव छाडि येइ अन्यदेवे भजे ।
ईश्वर छाडिया सेइ संसारेते मजे ॥ ५.१८ ॥
केह बले, ष्विष्णु परतत्त्व बटे जानि ।
सर्वविष्णुमय विश्व वेदवाक्य मानि ॥ ५.१९ ॥
अतएव सर्वदेवे विष्णु अधिष्ठान ।
सर्व देवार्चने हय विष्णुर समान ॥ ५.२० ॥
एइ त निषेधपर वाक्य विधि नय ।
अन्य देव पूजार निषेध एइ हय ॥ ५.२१ ॥
सर्व विष्णुमय विश्व ए कथा बलिले ।
विष्णुपूजा कैले सब देवे पूजा मिले ॥ ५.२२ ॥
तरुमूले जल दिले शाखार उल्लास ।
पल्लवे ढालिले जल वृक्षेर विनाश ॥ ५.२३ ॥
अतएव पूजि विष्णु अन्यदेव त्यजि ।
ताहातेइ अन्यदेव काजे काजे पूजि ॥ ५.२४ ॥
एइ विधि देवेर सम्मत चिरदिन ।
दुर्विपाके एइ विधि छाडे अर्वाचीन ॥ ५.२५ ॥
मायावाददोषे जीव कलि आगमने ।
बहुदेव पूजे विष्णुसामान्यदर्शने ॥ ५.२६ ॥
एक एक देव एक एक फल दाता ।
सर्व फल दाता विष्णु सकलेर पाता ॥ ५.२७ ॥
कामि जन यदि तत्त्व जानिबारे पारे ।
विष्णु पूजि फल पाय छाडे देवान्तरे ॥ ५.२८ ॥
गृहस्थ वैष्णवेर कर्तव्य विधान
गृहस्थ हेया येइ विष्णुभक्त हय ।
सर्वकार्ये कृष्ण पूजे छाडिया संशय ॥ ५.२९ ॥
निषेकादि श्मशानान्त संस्कार यत ।
ताहाते पूजये कृष्ण वेद मन्त्र मत ॥ ५.३० ॥
विष्णु वैष्णवेर पूजा वेदेते विधान ।
देवपितृगणे कृष्ण निर्माल्य प्रदान ॥ ५.३१ ॥
मायावादिमते पितृश्राद्ध येइ करे ।
येवा अन्यदेव पूजे अपराधे मरे ॥ ५.३२ ॥
विष्णुतत्त्वे द्वैतबुद्धि नाम अपराध ।
सेइ अपराधे तार हय भक्ति बाध ॥ ५.३३ ॥
शिवादि देवता गणे पृथकीश्वर ।
मानिले नामापराध हय भयङ्कर ॥ ५.३४ ॥
विष्णुशक्ति परा शक्ति हैते देव यत ।
भिन्न शक्ति सिद्ध नय वेदेर सम्मत ॥ ५.३५ ॥
शिवब्रह्मागणपतिसूर्यदिक्पाल ।
कृष्णशक्तिबलेते ईश्वर चिरकाल ॥ ५.३६ ॥
अतएव परेश्वर एकमात्र जानि ।
आर सब देवे ताङ्र शक्तिमध्ये गणि ॥ ५.३७ ॥
अतएव सर्वकार्ये कर्म जड भाव ।
छाडिया गृहस्थ पाय भक्तिर सद्भाव ॥ ५.३८ ॥
कि रूप वैष्णव गार्हस्थ्य धर्म करिबेन्
भक्तिर सद्भावे थाकि सत्क्रिया करणे ।
देवपितृगणे तुषे निर्माल्य अर्पणे ॥ ५.३९ ॥
बहु देवदेवी पूजा करिबे वर्जन ।
कृष्णभक्त बलि सबे करिबे तर्पण ॥ ५.४० ॥
श्रीकृष्ण वैष्णवार्चने सर्व फल पाय ।
नामे अपराध नहे सदा नाम गाय ॥ ५.४१ ॥
वर्णचतुष्टयेर जीवन यात्रा विधि
जगते मानवगण वर्णधर्माचरि ।
करिबेक जीवनयात्रा धर्म पथ धरि ॥ ५.४२ ॥
अन्त्यजेर विधि
सङ्कर अन्त्यज सबे त्यजि नीचधर्म ।
शूद्राचार करे सदा संसारेर कर्म ॥ ५.४३ ॥
सङ्कर अन्त्यज थाकिबेक शूद्राचारे ।
चातुर्वर्ण विना धर्म नाहिक संसारे ॥ ५.४४ ॥
वर्णधर्मेर द्वारा जीवनयात्रा करिया संसारि व्यक्ति भक्तिपथे भावार्जन करिबेन्
चातुर्वर्ण वर्णधर्मे करिबे संसार ।
शुद्ध कृष्णभक्ति बले हबे सदाचार ॥ ५.४५ ॥
चातुर्वर्ण यद्यपि श्रीकृष्ण नाहि भजे ।
वर्णधर्माचारे थाकि रौरवेते मजे ॥ ५.४६ ॥
वर्ण विना गृहस्थेर नाहि आर धर्म ।
वर्ण धर्माचारे गृहस्थेर सब कर्म ॥ ५.४७ ॥
वर्णधर्मे ए संसार निर्वाह करिबे ।
यावदर्थ परिग्रहे श्रीकृष्ण भजिबे ॥ ५.४८ ॥
निसर्गतः विधिवाक्य ये पर्यन्त नर ।
वर्णधर्म स्वनिर्वाहे करिबे आदर ॥ ५.४९ ॥
भक्तियोगनामे एइ तत्त्वनिरूपण ।
भक्तियोगे भावोदय सिद्धान्तवचन ॥ ५.५० ॥
भावोदये विधिर प्रवृत्ति नाहि रय ।
भावोदित कार्ये देहयात्रा सिद्ध हय ॥ ५.५१ ॥
गृहिवैष्णवेर एइ अद्वयसाधन ।
श्रीविष्णु अद्वयतत्त्वे द्वैतनिवर्तन ॥ ५.५२ ॥
नामनामी ओ गुणगुणीर अभेदे विष्णुज्ञान शुद्ध हय
आर एक कथा आछे द्वैतनिवर्तने ।
विष्णुनाम विष्णुरूप विष्णुगुणगणे ॥ ५.५३ ॥
विष्णु हैते पृथग्रूपे ना मानिबे कभु ।
अद्वय अखण्ड विष्णु चिन्मयत्वे विभु ॥ ५.५४ ॥
अज्ञानेते यदि हय द्वैत उपद्रव ।
नामाभास हय तार प्रेम असम्भव ॥ ५.५५ ॥
सद्गुरुकृपाय सेइ अनर्थ विनाश ।
भजिते भजिते शुद्धनामेर प्रकाश ॥ ५.५६ ॥
मायावादीर कुतर्क ओ अपराध
मतवादज्ञाने द्वैत हैल प्रवर्तन ।
अपराध हय आर नहे निवर्तन ॥ ५.५७ ॥
मायावादी बले ब्रह्म हय परतत्त्व ।
निर्विशेष निर्विकार निराकार सत्त्व ॥ ५.५८ ॥
विष्णुरूप विष्णुनाम मायाय कल्पित ।
माया अन्तर्धाने विष्णु हन ब्रह्मगत ॥ ५.५९ ॥
ए सब कुतर्क मात्र सत्य शून्यवाद ।
परतत्त्वे सर्वशक्ति अभावप्रमाद ॥ ५.६० ॥
शक्तिमान् ब्रह्म येइ सेइ विष्णु हय ।
नामेर विवादमात्र वेदेर निर्णय ॥ ५.६१ ॥
विष्णु ओ ब्रह्मतत्त्वेर सम्बन्ध
विष्णु परतत्त्व ताङ्र निर्विशेष धर्म ।
सविशेष धर्म सह हय एक मर्म ॥ ५.६२ ॥
विष्णुर अचिन्त्यशक्ति विरोधभञ्जन ।
अनायासे करि करे सौन्दर्य स्थापन ॥ ५.६३ ॥
जीवबुद्धि सहजेते अति अल्पतर ।
अचिन्त्यशक्तिर भाव ना करे गोचर ॥ ५.६४ ॥
निजबुद्ध्ये चाहे एक स्थापिते ईश्वर ।
खण्डज्ञाने पाय ब्रह्मतत्त्वेते अवर ॥ ५.६५ ॥
विष्णुर परम पद छाडि देवार्चित ।
ब्रह्मे बद्ध हय नाहि बुझे हिताहित ॥ ५.६६ ॥
चिन्मयस्वरूपज्ञान ये बुझिते जाने ।
विष्णु विष्णुनामगुण एक करि माने ॥ ५.६७ ॥
एइ त विशुद्ध ज्ञान श्रीकृष्णस्वरूप ।
सम्बन्ध बुद्धिते लभि भजे नामरूप ॥ ५.६८ ॥
शिव ओ विष्णुर कि रूपे अभेदबुद्धि करिबे
जडनाम जडरूपगुणे येइ भेद ।
से भेद चित्तत्त्वे नाइ एइ त प्रभेद ॥ ५.६९ ॥
विष्णुतत्त्वे भेदज्ञान अनर्थ विकार ।
शिवेते विष्णुते भेद अति अविचार ॥ ५.७० ॥
भक्त ओ मायावादीर आचार ओ प्रवृत्ति भेद
नामैकशरण येइ भक्ति महाजन ।
एकेश्वर कृष्णे भजि छाडे अन्य जन ॥ ५.७१ ॥
अन्यदेव अन्यशास्त्र निन्दा नाहि करे ।
कृष्णदास बलि अन्ये पूजे समादरे ॥ ५.७२ ॥
प्रतिदिन गृहिभक्त निर्माल्य अर्पणे ।
देव पितृ सर्व जीवे करेन तर्पणे ॥ ५.७३ ॥
यथा यथा अन्य देवे करेन दर्शन ।
कृष्णदास बलि ताङ्रे करेन वन्दन ॥ ५.७४ ॥
मायावादिगण यदि विष्णुपूजा करे ।
प्रसाद निर्माल्य भक्त नाहि लय डरे ॥ ५.७५ ॥
मायावादी हरिनामे अपराधी हय ।
ताहार प्रदत्त पूजा हरि नाहि लय ॥ ५.७६ ॥
अन्यदेवनिर्माल्य ग्रहणे अपराध ।
शुद्ध भक्ति साधने सर्वदा साधे बाध ॥ ५.७७ ॥
तबे यदि शुद्ध भक्त श्रीकृष्ण पूजिया ।
अन्य देवे पूजा करे तत्प्रसाद दिया ॥ ५.७८ ॥
से प्रसाद ग्रहणेते नाहि अपराध ।
सेइ रूप देवार्चने नाहि भक्तिबाध ॥ ५.७९ ॥
शुद्धभक्त नाम अपराधी नाहि हय ।
नाम करिऽ प्रेम पाय नामे देय जय ॥ ५.८० ॥
एइ अपराधेर प्रतिकार
प्रमादे यद्यपि हय अन्ये विष्णुज्ञान ।
तबे अनुतापे करि विष्णुतत्त्वध्यान ॥ ५.८१ ॥
श्रीविष्णु स्मरिया करि अपराध क्षय ।
यत्ने देखि आर ना से अपराध हय ॥ ५.८२ ॥
पूर्व दोष क्षमा शील भक्तेर बान्धव ।
दयार सागर कृष्ण क्षमार अर्णव ॥ ५.८३ ॥
बहु देव सेवि सङ्ग करिब वर्जन ।
एकेश्वर वैष्णवेर करिब पूजन ॥ ५.८४ ॥
हरिदास पदे भक्तिविनोद ये जन ।
हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन ॥ ५.८५ ॥
इति श्री हरिनामचिन्तामणौ देवान्तरे स्वातन्त्र्यज्ञानआपराध
नाम पञ्चमः परिच्छेदः ।
(६)
षष्ठ परिच्छेद
गुर्व्अवज्ञा
गुरोरवज्ञा
पञ्चतत्त्व जय जय श्रीराधामाधव ।
जय नवद्वीप व्रज यमुना वैष्णव ॥ ६.१ ॥
हरिदास बले प्रभु करि निवेदन ।
तृतीयापराध नामे ये रूपे घटन ॥ ६.२ ॥
विस्तारि बलिब आमि तोमारि आज्ञाय ।
येइ सब अपराध गुरु अवज्ञाय ॥ ६.३ ॥
बहु योनि भ्रमि मानवशरीर
दुर्लभ शुभद अति ।
तथापि अनित्य पाइलेक येइ
यावत्जीवने स्थिति ॥ ६.४ ॥
परम मङ्गल लभिबारे तरे
यदि ना यतन करे ।
पुनराय भवे अनित्य शरीर
लभिया आबार मरे ॥ ६.५ ॥
सुबोध ये हय दुर्लभ नृदेह
लभिया भव संसारे ।
संसारी जीव अवश्य सद्गुरु आश्रय करिबे
गुरु कर्णधार समाश्रय करि
कृष्ण आनुकूल्ये तरे ॥ ६.६ ॥
शान्त कृष्णभक्त लक्षण ये गुरु
सदैन्य वचने ताङ्रे ।
सन्तोष करिया कृष्णदीक्सा लय
याय संसारेर पारे ॥ ६.७ ॥
सहजे जीवेर आछे कृष्णे मति
वृथा तर्के ताहा याय ।
वितर्क छाडिया सुमति आश्रये
गुरु हते मन्त्र पाय ॥ ६.८ ॥
गृही जीवगण वर्णाश्रमे थाकि
सद्गुरु आश्रय करे ।
ब्राह्मणादि उच्चवर्णे सत्पात्र थाकिले तिनि हैबार योग्य
ब्राह्मण आचार्य सर्ववर्णे हय
यदि कृष्ण भक्ति धरे ॥ ६.९ ॥
ब्राह्मण कुलेते सुपात्र अभावे
अन्य कुले दीक्षा पाय ।
उच्च वर्ण गुरु गृहीर उचित
गुरु शिष्य परीक्षाय ॥ ६.१० ॥
वर्णविचार अपेक्षा सुपात्रेर विचार अधिक श्रेयः
कृष्ण तत्त्व वेत्ता प्रकृत ये हय
से हेते पारे गुरु ।
किबा विप्र शूद्र कि गृही सन्न्यासी
गुरु हन कल्पतरु ॥ ६.११ ॥
वर्णेर मर्यादा पात्रेर विचारे
परमार्थे लघु अति ।
सुपात्र मिलन प्रयोजन सदा
यदि चाइ शुद्धा रति ॥ ६.१२ ॥
सुपात्रेर प्राप्ति मूल प्रयोजन
पवित्र सुवर्ण हेन ।
ताहे उच्च वर्ण लभिले संयोग
सोहागा सुवर्णे येन ॥ ६.१३ ॥
गृहत्यागी अगृहिगुर्वाश्रय करिते पारेन्
ये कोन कारणे सेइ गृहि धर्म
छाडि अन्याश्रम लय ।
ताहे परमार्थ ना पाइया शेषे
साधु गुरु अन्वेषय ॥ ६.१४ ॥
ताहार पक्षेते अगृही आचार्य
प्रशस्त सकल मते ।
ताङ्र दीक्षा शिक्षा पाइया से जन
भासे नामरसामृते ॥ ६.१५ ॥
गृहिभक्ति गृहत्याग करिले ओ पूर्वगुरु त्याग करिते हय ना
गृही भक्तजने विराग लभिले
छाडये संसार विधि ।
तबु पूर्वगुरु चरण आश्रय
करिबे जीवनावधि ॥ ६.१६ ॥
गृहि जन मध्ये गृहि गुरु शस्त
यदि शुद्ध भक्त हन ।
नतुवा अगृही सुयोग्य हेले
गुरुयोग्य सर्वक्षण ॥ ६.१७ ॥
सद्गुरु पाइया भजिए भजिते
भावेर उदय यबे ।
संसार विरक्ति संसार छाडिया
वैरागी हेबे तबे ॥ ६.१८ ॥
यिनि वैराग्य आश्रये लेबेन तिनि वैरागी गुरु करिबेन्
वैराग्य आश्रम ग्रहणेते त्यागी
पुरुष हेबे गुरु ।
ताङ्हार चरणे शिखिबे विराग
गुरु शिक्षा कल्प तरु ॥ ६.१९ ॥
दीक्षा ओ शिक्षा गुरु उभयके इ समान सम्मान करा आवश्यक
दीक्षा शिक्षा भेदे गुरु दुऽ प्रकार
उभये समान मान ।
अर्पिबे सुजन परमार्थ धन
अनायासे यदि चान् ॥ ६.२० ॥
कृष्णनाम मन्त्र देन दीक्षा गुरु
शिक्षा गुरु तत्त्व दाता ।
वैष्णव सकल शिक्षा गुरु हन
सर्व शुभ जनयिता ॥ ६.२१ ॥
सम्प्रदायेर आदिगुरुर शिक्षा अवलम्बन करिया आचरण करिबे
साधु सम्प्रदाये आचार्य सकल
शिक्षा गुरु प्रतिष्ठित ।
आद्याचार्य यिनि गुरु शिरोमणि
पूजि ताङ्रे यथोचित ॥ ६.२२ ॥
ताङ्र सुसिद्धान्त अनुगत हये
ना मानिब अन्य शिक्षा ।
ताङ्हार आदेश पालिब यतने
ना लेब अन्य दीक्षा ॥ ६.२३ ॥
सम्प्रदाय गुरु वरण करा कर्तव्य
सम्प्रदाय गुरुगणे शिक्षा गुरु जानि ।
अन्यमत पण्डितेर शिक्षा नाहि मानि ॥ ६.२४ ॥
सेइ मते सुशिक्षित साधु सुचरित ।
दीक्षा गुरु योग्य सदा जाने सुपण्डित ॥ ६.२५ ॥
मायावादीर निकट कृष्णमन्त्र लेले परमार्थ हय ना
मायावादिमते थाके कृष्ण मन्त्र लय ।
तार परमार्थ लाभ कभु नाहि हय ॥ ६.२६ ॥
शुद्धभक्त व्यतीत अन्यके गुरु करिबे ना
ये अन्याय शिखे येइ शिक्षा देय आर ।
उभये नरके याय ना पाय उद्धार ॥ ६.२७ ॥
शुद्ध भक्ति छाडि यिनि शिखिलेन बाद ।
ताङ्हार जीवन मात्र वाद विसंवाद ॥ ६.२८ ॥
से केमने गुरु हबे उद्धारिबे जीवे ।
आपनि असिद्ध अन्ये किबा शुभ दिबे ॥ ६.२९ ॥
अतएव शुद्ध भक्त ये से केने नय ।
उपयुक्त गुरु हय सर्वशास्ते कय ॥ ६.३० ॥
गुरु तत्त्व
दीक्षा गुरु शिक्षा गुरु दुङ्हे कृष्ण दास ।
दुङ्हे व्रज जन कृष्ण शक्तिर प्रकाश ॥ ६.३१ ॥
गुरुके सामान्य जीव ना जानिबे कभु ।
गुरु कृष्ण शक्ति कृष्णप्रेष्ठ नित्य प्रभु ॥ ६.३२ ॥
एइ बुद्धि सह सदा गुरु भक्ति करे ।
सेइ गुरुभक्ति बले संसारेते तरे ॥ ६.३३ ॥
गुरु पूजा
अग्रे गुरु पूजा परे श्री कृष्ण पूजन ।
गुरुदेवे श्रीकृष्ण प्रसाद समर्पण ॥ ६.३४ ॥
गुरु आज्ञा लये कृष्ण पूजिबे यतने ।
श्री गुरु स्मरिया कृष्ण बलिबे वदने ॥ ६.३५ ॥
गुरुते कि रूपे श्रद्धा करा उचित
गुरुते अवज्ञा यार तार अपराध ।
सेइ अपराधे तार हय भक्ति बाध ॥ ६.३६ ॥
गुरु कृष्ण वैष्णवेते सम भक्ति करि ।
नामाश्रये शुद्ध भक्त शीघ्र याय तरि ॥ ६.३७ ॥
गुरुते अचला श्रद्धा करे येइ जन ।
शुद्ध नाम बले सेइ पाय प्रेम धन ॥ ६.३८ ॥
कोन् स्थाने गुरु त्याग करिते हेबे
तबे यदि ए रूप घटना कभु हय ।
असत्सङ्गे गुरुर योग्यता हय क्षय ॥ ६.३९ ॥
प्रथमे छिलेन तिनि सद्गुरु प्रधान ।
परे नाम अपराधे हञा हत ज्ञान ॥ ६.४० ॥
वैष्णवे विद्वेष करि छाडे नाम रस ।
क्रमे क्रमे हन अर्थ कामिनीर वश ॥ ६.४१ ॥
सेइ गुरु छाडि शिष्य श्रीकृष्णकृपाय ।
सद्गुरु लभिया पुनः शुद्ध नाम गाय ॥ ६.४२ ॥
गुरु शिष्य सम्बन्धेर पूर्वेई परस्परेर परीक्षा
अयोग्य शिष्येरे गुरु करिबेन् दण्ड ।
भजिया अयोग्य गुरु शिष्य हय पण्ड ॥ ६.४३ ॥
दुङ्हेर योग्यता यत दिन स्थिर रय ।
परस्पर सम्बन्ध कखन त्यज्य नय ॥ ६.४४ ॥
शुद्ध गुरु परीक्षा करिया वरण करिबे
सद्गुरुर प्रति येइ अवज्ञा आचरे ।
से पापिष्ठ अपराधी सर्वत्र संसारे ॥ ६.४५ ॥
अतएव प्रथमे विशेष यत्न करि ।
शुद्ध भक्ते लेबेन गुरुरूपे वरि ॥ ६.४६ ॥
गुरु त्याग क्लेश येन कभु नाहि घटे ।
ए रूप चिन्तिले कभु ना पडे सङ्कटे ॥ ६.४७ ॥
गुरु यथा भक्तिहीन शिष्य तार प्राय ।
अतएव शुद्ध गुरु लबे परीक्षाय ॥ ६.४८ ॥
सद्गुरु अवज्ञा अपराध भयङ्कर ।
एइ अपराधे नष्ट हय देव नर ॥ ६.४९ ॥
गुरु सेवार प्रक्रिया
गुरु शय्यासन आर पादुकादि यान ।
पाद पीठ स्नानोदक छायार लङ्घन ॥ ६.५० ॥
गुरुर अग्रेते अन्य पूजा द्वैत ज्ञान ।
दीक्षा व्याख्या प्रभुत्वादि करिबे वन्दन ॥ ६.५१ ॥
यथा यथा गुरुर पाइबे दरशन ।
दण्डवत्पडि भूमे करिबे वन्दन ॥ ६.५२ ॥
गुरु नाम भक्तिते करिबे उच्चारण ।
गुरु आज्ञा हेला ना करिबे कदाचन ॥ ६.५३ ॥
गुरुर प्रसाद सेवा अवश्य करिबे ।
गुरुर अप्रिय वाक्य कभु ना कहिबे ॥ ६.५४ ॥
गुरुर चरणे दैन्ये लेबे शरण ।
करिबे गुरुर सदा प्रिय आचरण ॥ ६.५५ ॥
ए रूप आचारे कृष्ण नाम सङ्कीर्तने ।
सर्व सिद्धि हय प्रभो बले श्रुति गणे ॥ ६.५६ ॥
नाम गुरु प्रति यदि अवज्ञा घटये ।
दुष्ट सङ्गे दुष्ट शास्त्र मत समाश्रये ॥ ६.५७ ॥
तबे सेइ सङ्ग सेइ शास्त्र दूर करि ।
विलाप करिब सेइ गुरु पदे धरि ॥ ६.५८ ॥
कृपा करि गुरुदेव हेबे सदय ।
नामे प्रेम दिबे से वैष्णव दयामय ॥ ६.५९ ॥
हरिदास पद रेणु भरसा याहार ।
नाम चिन्तामणि गाय तृणाधिक छार ॥ ६.६० ॥
इति श्री हरिनामचिन्तामणौ गुर्व्अवज्ञाविचारो
नाम षष्ठः परिच्छेदः ।
(७)
सप्तम परिच्छेद
श्रुतिशास्त्रनिन्दनम्
जय जय गदाइ गौराङ्ग नित्यानन्द ।
जय सीतापति जय गौरभक्तवृन्द ॥ ७.१ ॥
हरिदास बले प्रभु चतुर्थापराध ।
श्रुतिशास्त्रविनिन्दन भक्तिरसबाध ॥ ७.२ ॥
आम्नाये एकमात्र प्रमाण
श्रुतिशास्त्र वेद उपनिषत्पुराण ।
कृष्णनिश्वसित हय सर्वत्र प्रमाण ॥ ७.३ ॥
विशेषतः अप्राकृततत्त्वे ज्ञान यत ।
सकलि आम्नाय सिद्ध ताहे हे रत ॥ ७.४ ॥
जडातीत वस्तु इन्द्रियेर अगोचर ।
कृष्णकृपा विना ताहा ना हय गोचर ॥ ७.५ ॥
करणापटव भ्रम विप्रलिप्सा आर ।
प्रमाद सर्वत्र नर ज्ञाने दोष एइ चार ॥ ७.६ ॥
सेइ सब दोष शून्य वेद चतुष्टय ।
वेद विना परमार्थे गति नाहि हय ॥ ७.७ ॥
माया बद्ध जीवे कृष्ण बहु कृपा करि ।
वेद पुराणादि दिल आर्ष ज्ञान धरि ॥ ७.८ ॥
आम्नाय हैते दश मूल शिक्षा प्रमेय नयटा
सेइ श्रुति शास्त्रे जानि कर्म ज्ञान छार ।
निर्मल भक्तिते मात्र पाइ सर्व सार ॥ ७.९ ॥
माया मूढ जीवे कर्म ज्ञाने शुद्ध करि ।
शुद्ध भक्ति अधिकार शिखाइला हरि ॥ ७.१० ॥
प्रमाण से वेद वाक्य नयटी प्रमेय ।
शिखाय सम्बन्ध प्रयोजन अभिधेय ॥ ७.११ ॥
एइ दश मूल सार अविद्या विनाश ।
करिया जीवेर करे सुविद्या प्रकाश ॥ ७.१२ ॥
१. हरि एक पर तत्त्व, २. तिनि सर्व शक्तिमान्, ३. तिनि रस मूर्ति
प्रथमे शिखाय पर तत्त्व एक हरि ।
श्याम सर्वशक्तिमान् रसमूर्तिधारी ॥ ७.१३ ॥
जीवेर परमानन्द करेन विधान ।
संव्योम धामेते तार नित्य अधिष्ठान ॥ ७.१४ ॥
ए तिन प्रमेय हय श्रीकृष्णविसये ।
वेदशास्त्र शिक्षा देन जीवेर हृदये ॥ ७.१५ ॥
४. जीवतत्त्व
द्वितीये शिखाय विभिन्नांश जीव तत्त्व ।
अनन्त सङ्ख्यक चित्परमाणु सत्त्व ॥ ७.१६ ॥
५. नित्यबद्ध ओ ६. नित्य मुक्त भेदे जीव दुइ प्रकार
नित्य बद्ध नित्य मुक्त भेदे जीव द्विप्रकार ।
संव्योम ब्रह्माण्ड भरि संस्थिति ताहार ॥ ७.१७ ॥
बद्ध जीव
बद्ध जीव माया भजि कृष्ण बहिर्मुख ।
अनन्त ब्रह्माण्डे भोग करे दुःख सुख ॥ ७.१८ ॥
मुक्त जीव
नित्य मुक्त कृष्ण भजि कृष्ण पारिषद ।
पर व्योमे भोग करे प्रेमेर सम्पद ॥ ७.१९ ॥
तिनटी प्रमेय एइ जीवेर विषये ।
श्रुति शास्त्र शिक्षा देन कृष्ण दासी हये ॥ ७.२० ॥
७. अचिन्त्य भेदाभेद सम्बन्ध
चिद्व्यापार आर यत जडेर व्यापार ।
सकलि अचिन्त्य भेदाभेद प्रकार ॥ ७.२१ ॥
जीव जड सर्व वस्तु कृष्ण शक्ति मय ।
अविचिन्त्य भेदाभेद श्रुति शास्त्रे कय ॥ ७.२२ ॥
एइ ज्ञाने जीव जाने आमि कृष्ण दास ।
कृष्ण मोर नित्य प्रभु चित्सूर्य प्रकाश ॥ ७.२३ ॥
शक्ति परिणाम मात्र वेद शास्त्र बले ।
विवर्तादि दुष्टमते वेद निन्दे छले ॥ ७.२४ ॥
सातटी प्रमेय सम्बन्ध ज्ञान
एइ त सम्बन्ध ज्ञान सातटी प्रमेय ।
श्रुतिशास्त्र शिक्षा देन अति उपादेय ॥ ७.२५ ॥
वेद पुनः शिक्षा देन अभिधेय सार ।
नव विध कृष्ण भक्ति विधि राग आर ॥ ७.२६ ॥
८. अभिधेय नव विध भक्ति
श्रवण कीर्तन स्मृति पूजन वन्दन ।
परिचर्या दास्य सख्य आत्मनिवेदन ॥ ७.२७ ॥
भक्तिर प्रकार मध्ये नाम सर्वसार ।
प्रणवमाहात्म्य वेद करेन प्रचार ॥ ७.२८ ॥
९. प्रयोजन कृष्ण प्रेम
शुद्ध भक्ति समाश्रय करिया मानव ।
कृष्ण कृपा बले पाय प्रेमेर वैभव ॥ ७.२९ ॥
एइ श्रुति शिक्षा निन्दा अपराध
ए नव प्रमेय श्रुति करेन प्रमाण ।
श्रुति तत्त्वाभिज्ञ गुरु करेन सन्धान ॥ ७.३० ॥
ए हेन श्रुतिर येइ करे विनिन्दन ।
नाम अपराधी सेइ नराधम जन ॥ ७.३१ ॥
वेद विरुद्ध वाद समूह
जैमिनि कपिल नग्न नास्तिक सुगत ।
गौतम ए छय जन हेतु वादे रत ॥ ७.३२ ॥
वेद माने मुखे तबु ईश नाहि माने ।
कर्म काण्ड श्रेष्ठ बलि जैमिन् बाखाने ॥ ७.३३ ॥
ईश्वर असिद्ध कपिलेर कल्पनाय ।
तबु योग माने अर्थ बुझा नाहि याय ॥ ७.३४ ॥
नग्न से तामस तत्त्व करय विस्तार ।
वेदेर विरुद्ध धर्म करये प्रचार ॥ ७.३५ ॥
नास्तिक चार्वाक कभु वेद नाहि माने ।
सुगत बौद्धेरा एक प्रकार बाखाने ॥ ७.३६ ॥
गौतम न्यायेर कर्ता ईश्वर ना भजे ।
तार हेतु वाद मते नर मात्र मजे ॥ ७.३७ ॥
एइ सब मतवाद द्वारा श्रुतिनिन्दा हय
एइ सब दुष्ट मते श्रुतिर निन्दन ।
कभु स्पष्ट कभु गुप्त बुझे विज्ञ जन ॥ ७.३८ ॥
एइ सब मते थाकि अपराधी हय ।
अतएव एइ सबे त्यजिबे निश्चय ॥ ७.३९ ॥
मायावादी अति दुष्ट मत वेद विरुद्ध
एइ सब कुमत छाडि आर मायावाद ।
शुद्ध भक्ति अनुभवि हय निर्विवाद ॥ ७.४० ॥
मायावाद असत्शास्त्र गुप्त बौद्ध मत ।
वेदार्थ विकृति कलि कालेते सम्मत ॥ ७.४१ ॥
उमापति ब्राह्मण रूपेते प्रकाशिल ।
तोमार आज्ञाय तेङ्ह आचार्य हेल ॥ ७.४२ ॥
जैमिनि ये रूप मुखे वेद मात्र माने ।
श्रुतिर विकृत अर्थ जगते बाखाने ॥ ७.४३ ॥
मायावादी गुरु सेइ रूप बौद्ध धर्म ।
वेद वाक्ये स्थापि आच्छादिल भक्ति मर्म ॥ ७.४४ ॥
एइ सब मतवादे भक्ति दूरे याय ।
श्रीकृष्णनामेते जीव अपराध पाय ॥ ७.४५ ॥
श्रुतिविचारे शुद्ध प्रक्रिया
श्रुतिर अभिधा वृत्ति करि संयोजन ।
शुद्ध भक्ति जीव पाय प्रेम धन ॥ ७.४६ ॥
श्रुतिते लक्षणा करे अयथा प्रकारे ।
नित्य सत्य दूरे याय अपराधे मरे ॥ ७.४७ ॥
सर्व वेद सम्मत प्रणव कृष्ण नाम ।
सेइ नामे जीव सब पाय नित्य धाम ॥ ७.४८ ॥
प्रणव से महावाक्य हय कृष्ण नाम ।
ताहाते इ श्रीभक्तेर सतत विश्राम ॥ ७.४९ ॥
वेद बले नाम चित्स्वरूप जगते ।
नामेर आभासे सिद्ध हय सर्व मते ॥ ७.५० ॥
वेद केवल शुद्ध नाम भजन शिक्षा देन
एइ सब वेद शिक्षा अभागा ना माने ।
नामे अपराध करे वेदेर निन्दने ॥ ७.५१ ॥
शुद्ध नाम परायण येइ महाजन ।
वेदाश्रये पाय नाम रस प्रेम धन ॥ ७.५२ ॥
सर्व वेद बले गाओ हरिनाम सार ।
पाइबे परमा प्रीति आनन्द अपार ॥ ७.५३ ॥
वेद पुनः बले यत मुक्त महाजन ।
परव्योमे सदा करे नाम सङ्कीर्तन ॥ ७.५४ ॥
तामसतन्त्र शिक्षा वेद विरुद्ध
कलि युगे महा जन माया शक्ति भजे ।
चिदात्मा पुरुष कृष्ण नाम रस त्याजे ॥ ७.५५ ॥
तामसिक तन्त्र धरि श्रुति निन्दा करे ।
मद्यमांसे प्रीति करि अधर्मेते मरे ॥ ७.५६ ॥
से सब निन्दुक नाहि पाय कृष्ण नाम ।
कभु नाहि पाय कृष्णेर वृन्दावन धाम ॥ ७.५७ ॥
माया देवीर निष्कपट कृपे प्रयोजन
माया देवी से सब पाषण्डे अधोगति ।
दिया नामामृत आर नाहि देन मति ॥ ७.५८ ॥
तबे यदि साधु सेवाय तुष्ट हन माया ।
अकपटे देन तबे कृष्ण पद छाया ॥ ७.५९ ॥
माया कृष्ण दासी बहिर्मुख जीवे दण्डे ।
माया पूजिले ओ शुभ नाहि पाय भण्डे ॥ ७.६० ॥
कृष्ण नाम करे येइ माया देवी तारे ।
निष्कपटे कृपा करि लय भव पारे ॥ ७.६१ ॥
अतएव श्रुतिनिन्दा अपराध त्यजि ।
अहरहः नाम सङ्कीर्तन रसे मजि ॥ ७.६२ ॥
तद्अपराधेर प्रतिकार
प्रमादे यद्यपि हय से श्रुतिनिन्दन ।
अनुतापे करि पुनः से श्रुति वन्दन ॥ ७.६३ ॥
कुसम तुलसी दिया सेइ श्रुति गणे ।
भागवत सह सदा पूजिब यतने ॥ ७.६४ ॥
भागवत श्रुति सार कृष्ण अवतार ।
अवश्य करिबे मोरे करुणा अपार ॥ ७.६५ ॥
हरिदास पद रजः भरसा याहार ।
नामचिन्तामणि हार गलाय ताहार ॥ ७.६६ ॥
इति श्री हरिनामचिन्तामणौ श्रुतिनिन्दा अपराध विचारो
नाम सप्तमः परिच्छेदः ।
(८)
अष्टम परिच्छेद
तथार्थवादो हरिनाम्नि कल्पनम्
जय गौर गदाधर श्रीराधामाधव ।
जय गौरलीलास्थली जाह्नवी वैष्णव ॥ ८.१ ॥
हरि नामे अर्थ वाद कल्पना चिन्तन ।
पञ्चमापराध प्रभो श्री शचीनन्दन ॥ ८.२ ॥
नाम महिमा
स्मृति कहे हेलाय श्रद्धाय नाम लय ।
कृष्ण तारे कृपा करि हयेन सदय ॥ ८.३ ॥
नामेर सदृश ज्ञान नाहिक निर्मल ।
नामेर सदृश व्रत नाहिक प्रबल ॥ ८.४ ॥
नामेर सदृश ध्यान नाहि ए जगते ।
नामेर सदृश फल नाहि कोन मते ॥ ८.५ ॥
नामेर सदृश त्याग कोन रूपे नय ।
नामेर सदृश सम कभु नाहि हय ॥ ८.६ ॥
नामेर सदृश पुण्य नाहि ए संसारे ।
नामेर सदृश गति ना देखि विचारे ॥ ८.७ ॥
नामे परम मुक्ति नाम उच्च गति ।
नामे परम शान्ति नाम उच्च स्थिति ॥ ८.८ ॥
नामे परम भक्ति नाम शुद्धा मति ।
नामे परम प्रीति नाम परा स्मृति ॥ ८.९ ॥
नामे कारण तत्त्व नाम सर्व प्रभु ।
परम आराध्य नाम गुरुरूपे विभु ॥ ८.१० ॥
कृष्णनामेर सर्वोत्तमता
सहस्र विष्णु नामेर तुल्य हय एक राम नाम ।
तिन राम नाम तुल्य एक कृष्ण नाम ॥ ८.११ ॥
नामेर अर्थ वाद नरक गमन अवश्य घटे
श्रुति गण नामेर माहात्म्य सदा गाय ।
नामेर चित्तत्त्व बलि जगते जानाय ॥ ८.१२ ॥
श्रुति स्मृति प्रदर्शित नामेर ये फल ।
ताहे अर्थ वाद करे पाषण्ड प्रबल ॥ ८.१३ ॥
हरिनामे अर्थ वाद ये अधम करे ।
से पापिष्ठ नरकेते पचिऽ पचिऽ मरे ॥ ८.१४ ॥
ये बले नामेर फलश्रुति सत्य नय ।
नामे रुचि दिते मात्र तत फल कय ॥ ८.१५ ॥
शास्त्रेर तात्पर्य आर जीव हिताहित ।
से अधम नाहि जाने बुझे विपरीत ॥ ८.१६ ॥
नामेर फल सत्य । ताहाते अर्थ वादेर प्रयोजन नाइ
कर्म काण्ड आछे त कैतव स्वार्थ ज्ञान ।
भक्ति तत्त्वे नामे ताहा नहे विद्यमान ॥ ८.१७ ॥
कर्म काण्ड फल श्रुति रोचनार्थ जानि ।
भक्ति तत्त्वे फल श्रुति नित्य सत्य मानि ॥ ८.१८ ॥
नाम तत्त्वे शाठ्य नाहि पाय कभु स्थान ।
निजेर नाहिक स्वार्थ नाम करि दान ॥ ८.१९ ॥
कर्मफलेर अर्थवाद अपरित्याज्य
नाम दान श्रद्दावाने येइ जन करे ।
कृष्ण दास्य करे सेइ स्वार्थ परिहारे ॥ ८.२० ॥
कर्म कराइले याजकेर अर्थ लाभ ।
अतएव ताहे कैतवेर त प्रभाव ॥ ८.२१ ॥
वेद स्मृति नाम फल अनन्त बाखाने ।
स्वार्थ बुद्धि शून्य से ये ताहा नाहि माने ॥ ८.२२ ॥
कर्म सब शुभाशुभ जडेर आश्रये ।
जडमयफल याचे यजमान चये ॥ ८.२३ ॥
कर्म फल दूरे फेलिऽ येबा करे कर्म ।
हृदय विशुद्ध तार हय एइ मर्म ॥ ८.२४ ॥
विशुद्ध हृदये आत्म रति सुनिर्मल ।
उदय हेया हय क्रमशः प्रबल ॥ ८.२५ ॥
नाम चिन्मय, ताहाते अर्थवाद हेते पारे ना
नाम सेइ आत्मरति निजे उपस्थित ।
साधन कालेते साध्य वस्तुर विहित ॥ ८.२६ ॥
कर्मेर चरम फल नामरस हय ।
साधुरूपे अनुष्ठित कर्मेते निश्चय ॥ ८.२७ ॥
अतएव चौद्द लोक भ्रमिया ब्राह्मण ।
येइ फल नाहि पान नाम ताहा हन ॥ ८.२८ ॥
नाम फल सर्वोपरि अवश्य हेबे ।
कर्मी ज्ञानी हिंसा करिऽ नामे कि करिबे ॥ ८.२९ ॥
नामाभासे सर्व कर्म ओ ब्रह्मज्ञानेर फल हेया थाके
सर्वकर्मफल नामाभासे लब्ध हय ।
सर्वज्ञानफल नामाभासेते मिलय ॥ ८.३० ॥
आभासे मिलिल यदि एत उच्च फल ।
नाम वस्तु ततोऽधिक प्रदाने प्रबल ॥ ८.३१ ॥
अतएव शास्त्रे यत नाम फल गाय ।
शुद्ध नामाश्रित जन निश्चय ता पाय ॥ ८.३२ ॥
नाम फले याहार सन्देह, ताहार मङ्गल नाइ
इहाते सन्देह यार से अधम जन ।
नाम अपराधे तार अवश्य पतन ॥ ८.३३ ॥
वेदे रामायणे आर भारते पुराणे ।
आदि अन्त्ये मध्ये हरिनामेरे बाखाने ॥ ८.३४ ॥
नाम फल श्रुति वाक्य अनादि निश्चल ।
ताहे अर्थ वाद कल्पनार किबा फल ॥ ८.३५ ॥
कर्मज्ञानेर शक्ति अपेक्षा नामे अनन्तगुण शक्ति आछे
नाम नामी एक नामे दिया सर्व शक्ति ।
सर्वोपरि करियाछ तव नाम शक्ति ॥ ८.३६ ॥
तुमि त स्वतन्त्र तत्त्व सर्व शक्तिमान् ।
तोमार इच्छाय यत विधिर विधान ॥ ८.३७ ॥
कर्मके करेछ जड आर ब्रह्म ज्ञाने ।
दियाछ निर्वाण शक्ति स्वतन्त्र विधाने ॥ ८.३८ ॥
इच्छामय तुमि प्रभु स्वीय नामाक्षरे ।
अर्पियाछ सब शक्ति आर के कि करे ॥ ८.३९ ॥
अतएव तव नाम सर्व शक्तिमान् ।
नामे अर्थवाद नाहि करिबे विद्वान् ॥ ८.४० ॥
तद्अपराधेर प्रतिकार
नामे अर्थवाद अपराध घटे यदि ।
दन्ते तृण धरि याइ वैष्णवसंसदि ॥ ८.४१ ॥
अपराध जानाइया वैष्णवचरणे ।
क्षमा मागि काकुति करिया ऋजुमने ॥ ८.४२ ॥
नामेर महिमा ज्ञाता भागवत जन ।
क्षमा करि कृपा करि दिबे आलिङ्गन ॥ ८.४३ ॥
नामे अर्थ वाद आर कल्पनमनन ।
कभु नाहि हबे चित्ते माया विडम्बन ॥ ८.४४ ॥
अर्थवादकारी सह हैले सम्भाषण ।
सचेले जाह्नवीजले करिब मज्जन ॥ ८.४५ ॥
कृष्ण प्रिया वंशी कृपा भरसा याहार ।
हरिनाम चिन्तामणि तार अलङ्कार ॥ ८.४६ ॥
इति श्री हरिनामचिन्तामणौ अर्थवादापराधविचारो
नाम अष्टमः परिच्छेदः ।
(९)
नवम परिच्छेद
नामबले पापबुद्धि
नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर्
न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः
गौर गदाधर जय जाह्नवाजीवन ।
जय जय सीताद्वैत जय भक्तगण ॥ ९.१ ॥
नामग्रहणे समस्त अनर्थ दूर हय
हरिदास बले नाम शुद्ध सत्त्व मय ।
भाग्यवान् जीव करे नामेर आश्रय ॥ ९.२ ॥
अति शीघ्र ताहार अनर्थ दूरे याय ।
हृदयदौर्बल्य आर स्थान नाहि पाय ॥ ९.३ ॥
नामे दृढ हैले नाहि हय पापे मति ।
पूर्व पाप दग्ध हय चित्त शुद्ध अति ॥ ९.४ ॥
पाप आर पापबीज पापेर वासना ।
अविद्या ताहार मूल ए तिन यन्त्रना ॥ ९.५ ॥
सर्व जीवे दया आसि हेबे उदय ।
जीवेर मङ्गल चेष्टा सतत करय ॥ ९.६ ॥
जीवेर सन्ताप कभु सहिते ना पारे ।
याहे परताप याय तार चेष्टा करे ॥ ९.७ ॥
विषयपिपासा अति तुच्छ मने हय ।
इन्द्रियलालसा तार चित्ते नाहि रय ॥ ९.८ ॥
कनककामिनी चेष्टा प्रति घृणा करे ।
यथा धर्म लाभे तुष्ट थाकि प्राण धरे ॥ ९.९ ॥
भक्ति अनुकूल सब करये स्वीकार ।
भक्ति प्रतिकूल नाहि करे अङ्गीकार ॥ ९.१० ॥
कृष्ण रक्षा कर्ता एक मात्र बलि जाने ।
जीवने पालनकर्ता कृष्ण इहा माने ॥ ९.११ ॥
अहं मम बुद्ध्य्आसक्ति ना राखे हृदये ।
दीनभावे नाम लय सकल समये ॥ ९.१२ ॥
स्वभावतः यार एइ रूप नामाश्रय ।
पापे मति पापाचार ताहार कि हय ॥ ९.१३ ॥
पूर्वपाप ओ पापगन्ध शीघ्र दूर हय
पूर्व दृष्टभाव तार क्रमे हय क्षीण ।
पवित्र स्वभाव शीघ्र हेबे प्रवीण ॥ ९.१४ ॥
एइ सन्धि काले पूर्व पापेर सम्बन्ध ।
थाकिते ओ पारे किछु दिन पाप गन्ध ॥ ९.१५ ॥
नामेर संसर्गे यत सुमति उदय ।
हये सेइ पाप गन्ध शीघ्र करे क्षय ॥ ९.१६ ॥
प्रतिज्ञा करेछ नाथ अर्जुन निकटे ।
मोर भक्त कभु नाहि पडिबे सङ्कटे ॥ ९.१७ ॥
सङ्कट समये आमि हेब सहाय ।
अतएव पाप याय तोमार कृपाय ॥ ९.१८ ॥
ज्ञान मार्गी कष्टे पाप करिया दमन ।
तवाश्रय छाडि शीघ्र हय त पतन ॥ ९.१९ ॥
तव पदाश्रय यार सेइ महाजन ।
विघ्न ना पाइबे कभु सिद्धान्त वचन ॥ ९.२० ॥
प्रमादे पाप उपस्थित हेले ताहार प्रायश्चित्तेर प्रयोजन नाइ
यदि कभु प्रमादे घटय कोन पाप ।
भक्त तबु नाहि सहे प्रायश्चित्त ताप ॥ ९.२१ ॥
से पाप क्षणिक नाहि पाय अवस्थिति ।
नाम रसे भेसे याय ना देय दुर्गति ॥ ९.२२ ॥
नामबले पापाचरणकारीर परिणाम
किन्तु यदि कोन जन नामे करि बल ।
आचरे नूतन पाप, से जन चञ्चल ॥ ९.२३ ॥
से केवल कपटता करिया आश्रय ।
नामापराध पाय शोकमृतिभय ॥ ९.२४ ॥
प्रमाद ओ विचारित कर्मेर भेद
प्रमाद घटना आर विचारित कर्मे ।
सम्पूर्ण प्रभेद आछे भक्तिशास्त्र मर्मे ॥ ९.२५ ॥
नामाश्रयीर पाप करा दूरे थाकुक, पापे मति हेले इ नामापराध हय
संसारी मानव येबा आचरये पाप ।
प्रायश्चित्त आछे तार आर अनुताप ॥ ९.२६ ॥
किन्तु नामबले यदि पापे करे मति ।
प्रायश्चित्त नाहि तार बडे दुर्गति ॥ ९.२७ ॥
बहु यम यातनादि पाइले ओ तार ।
सेइ अपराध हेते ना हय उद्धार ॥ ९.२८ ॥
पाप मतिमात्रे हय एरूप यन्त्रना ।
पापाचारे यत दोषे तार कि गणना ॥ ९.२९ ॥
प्रवञ्चक शठेर नामभरसाय पापक्रिया मर्कटवैराग्य मात्र
शास्त्रे शुनियाछे नाम यत पाप हरे ।
कोटि जन्मे महा पापी करिते ना पारे ॥ ९.३० ॥
पञ्च विध पाप महा पातक अवधि ।
नामाभासे याय शास्त्र गाय निरवधि ॥ ९.३१ ॥
सेइ त भरसा करि प्रवञ्चक जन ।
शठता करिया नाम करये ग्रहण ॥ ९.३२ ॥
कष्टेर संसार छाडि वैरागीर वेशे ।
कनक कामिनी आशे फिरे देशे देशे ॥ ९.३३ ॥
तुमि त बलेछ प्रभु मर्कट वैरागी ।
कामिनी सम्भाषि फिरे धर्म गृह त्यागी ॥ ९.३४ ॥
निष्कपट नामाश्रय ना करिले एइ अपराध अनिर्वार्य
वैराग्येर छले केह गृहे काटे काल ।
सम्भाष्य ना हय सब विश्वेर जञ्जाल ॥ ९.३५ ॥
गृहे थाकु वने याउ ताते नाहि दोष ।
निष्पापे करुक्नाम पाइया सन्तोष ॥ ९.३६ ॥
नाम बले पाप मति महा अपराध ।
ताहाते मजिले हय भक्ति तत्त्वे बाध ॥ ९.३७ ॥
नामाभासिव्यक्तिगण एइ कपट लोकेर सङ्गे अपराधी हन
नामाभासी जनेर कुसङ्ग यदि हय ।
तबे एइ अपराध घटिबे निश्चय ॥ ९.३८ ॥
शुद्ध नामोदय यार हृदये हेबे ।
एइ नाम अपराध तार ना घटिबे ॥ ९.३९ ॥
शुद्ध नामाश्रित व्यक्तिर दश विध अपराध स्पर्श करे ना
शुद्धनामाश्रित जने अपराध दश ।
कोन रूपे कोन काले ना करे परश ॥ ९.४० ॥
नामाश्रित जने नाम सदा रक्षा करे ।
अपराध कभु तार ना हेते पारे ॥ ९.४१ ॥
यत दिन शुद्ध नाम ना हय उदय ।
तत दिन अपराध आक्रमणे भय ॥ ९.४२ ॥
अतएव नामाभासी यदि भाल चाय ।
नाम बले पाप बुद्धि हेते पलाय ॥ ९.४३ ॥
कत दिन सावधाने अपराध परित्याग करा चाइ ?
शुद्धनामाश्रितजनसङ्गबल धरिऽ ।
अपराध सतर्कता सर्वदा आचरिऽ ॥ ९.४४ ॥
शुद्धनाम यार मुखे तार दृढ मन ।
कृष्ण हैते विचलित नहे एक क्षण ॥ ९.४५ ॥
अतएव नाम बल यत दिन नय ।
तत दिन अपराधे करिबेक भय ॥ ९.४६ ॥
विशेष यतने पाप बुद्धि दूर करिऽ ।
अहर्निशि मुखे बलिबेक हरि हरि ॥ ९.४७ ॥
श्रीगुरुकृपाय हबे सुसम्बन्धज्ञान ।
कृष्णभक्ति कृष्णनाम ताहाते विधान ॥ ९.४८ ॥
एइ अपराध हेले ताहार प्रतिकार
यद्यपि प्रमादे नामबले पापबुद्धि ।
शुद्ध वैष्णवेर सङ्गे करि तार शुद्धि ॥ ९.४९ ॥
पापस्पृहा बाटपाड पथे आसिऽ धरे ।
विशुद्ध वैष्णव गण पथ रक्षा करे ॥ ९.५० ॥
उच्चैःस्वरे डाकि रक्षकेर नाम धरिऽ ।
पलाइबे बाटपाड आसिबे प्रहरी ॥ ९.५१ ॥
आदरे बलिबे भाइ नाहि कर भय ।
आमि त रक्षक तव शुन महाशय ॥ ९.५२ ॥
केवल वैष्णवपददास्यव्रत यार ।
हरिनामचिन्तामणि पाय सेइ छार ॥ ९.५३ ॥
इति श्री हरिनामचिन्तामणौ नामबले पापबुद्धिर्
नाम नवमः परिच्छेदः ।
(१०)
दशम परिच्छेद
अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति
यश्चोपदेशः शिवनामापराधः
गौर गदाधर जय जाह्नवाजीवन ।
जय जय सीताद्वैत जय भक्तगण ॥ १०.१ ॥
कर युडिऽ हरिदास बलेन वचन ।
आर नाम अपराध करह श्रवण ॥ १०.२ ॥
नामे दृढ विश्वासके श्रद्धा बलि, ताहा हेले इ नामे अधिकार हय
याहार हृदये श्रद्धा ना हेल उदय ।
नाम नाहि शुने बहिर्मुख दुराशय ॥ १०.३ ॥
ना जन्मे से जनार नामे अधिकार ।
श्रद्धा मात्र अधिकार एइ तत्त्वसार ॥ १०.४ ॥
सज्जाति, सत्कुल, ज्ञान, बल, विद्या धन ।
नामे अधिकार दिते ना हय कारण ॥ १०.५ ॥
नामेर माहात्म्य येइ सुदृढ विश्वास ।
शास्त्रमते श्रद्धा सेइ सर्वत्र प्रकाश ॥ १०.६ ॥
श्रद्धाहीन जनके नाम दिले नामापराधी हय
श्रद्धा नाहि जन्मे यार हरि नाम तारे ।
साधु जन नाहि देन वैष्णव आचारे ॥ १०.७ ॥
श्रद्धा हीन जन यदि हरि नाम पाय ।
अवज्ञा करिबे मात्र सर्व शास्त्रे गाय ॥ १०.८ ॥
शूकरके दिले रत्न से चूर्ण करिबे ।
बानरके दिले वस्त्र छिङ्डिया फेलिबे ॥ १०.९ ॥
श्रद्धा हीन पेये नाम अपराध मरे ।
सङ्गे सङ्गे गुरुके अभक्त शीघ्र करे ॥ १०.१० ॥
श्रद्धा हीन व्यक्ति नाम पाइते प्रार्थना करिले ताहार सहित कि रूपे व्यवहार करा उचित
श्रद्धा विरहित जन शठता करिया ।
हरि नाम मागे वैष्णवेर काछे गिया ॥ १०.११ ॥
ताहार वञ्चना वाक्य बुझि साधु जन ।
हरि नाम नाहि देन तारे कदाचन ॥ १०.१२ ॥
साधु बले ओहे भाइ शाठ्य परिहर ।
प्रतिष्ठाशा दूरे राखि नामे श्रद्धा कर ॥ १०.१३ ॥
नामे श्रद्धा हैले नाम अनायासे पाबे ।
नामेर प्रभावे ए संसारे तरे याबे ॥ १०.१४ ॥
यत दिन नाहि तव नामे श्रद्धा भाइ ।
नाम लैते तोमार त अधिकार नाइ ॥ १०.१५ ॥
श्री नाम माहात्म्य साधु शास्त्र मुखे शुन ।
प्रतिष्ठाशा छाडि दैन्य करह ग्रहण ॥ १०.१६ ॥
नामे श्रद्धा हले तबे गुरु महाजन ।
नाम अर्पिबेन भाइ नाम महा धन ॥ १०.१७ ॥
श्रद्धा हीन जने अर्थ लोभे नाम दिया ।
नरकेते याय नामापराध मजिया ॥ १०.१८ ॥
एइ अपराधेर प्रतिकार
प्रमादे यद्यपि नाम उपदेश हय ।
श्रद्धा हीने तबे गुरु पाय महा भय ॥ १०.१९ ॥
वैष्णव समाजे ताहा करि विज्ञापन ।
सेइ दुष्ट शिष्य त्याग करे महा जन ॥ १०.२० ॥
ताहा ना करिले गुरु अपराध क्रमे ।
भक्ति हीन दुराचार हय माया भ्रमे ॥ १०.२१ ॥
अतएव प्रभु यारे आदेश करिले ।
नाम प्रचारिते तारे एइ आज्ञा दिले ॥ १०.२२ ॥
ए विषये प्रभुर आज्ञा
श्रद्धावान् जने कर नाम उपदेश ।
नाम महिमाय पूर्ण कर सर्वदेश ॥ १०.२३ ॥
उच्च सङ्कीर्तने कर श्रद्धार प्रचार ।
श्रद्धा लभि जीव करे सद्गुरु विचार ॥ १०.२४ ॥
सद्गुरु निकटे करे श्री नाम ग्रहण ।
अनायासे पाय तबे कृष्ण प्रेम धन ॥ १०.२५ ॥
चोर वेश्या शठ आदि पापासक्त जने ।
छाडाइया पाप मति दिबे श्रद्धा धने ॥ १०.२६ ॥
सुश्रद्ध हैले दिबे नाम उपदेश ।
एइ रूपे नाम दिया तार सर्व देश ॥ १०.२७ ॥
एइ रूप अपराधेर फल
इहा ना करिया यिनि देन नाम धन ।
सेइ अपराधे ताङ्र नरके पतन ॥ १०.२८ ॥
नाम पेये शिष्य करे नाम अपराध ।
ताहाते गुरुर हय भक्ति रस बाध ॥ १०.२९ ॥
एइ नाम अपराधे दुङ्हे शिष्य गुरु ।
नरकेते याय एइ अपराध उरु ॥ १०.३० ॥
अग्रे श्रद्धा दिया नाम उपदेश दिबे
जगा माधा प्रति तुमि महा कृपा करि ।
नामे श्रद्धा दिया नाम दिले गौर हरि ॥ १०.३१ ॥
अद्भुत चरित्र तव सर्व जन गण ।
श्रद्धाय करुक अनुकरण चरण ॥ १०.३२ ॥
भक्त पाद भक्तिते विनोद याहार ।
हरिनामचिन्तामणि अलङ्कार तार ॥ १०.३३ ॥
(११)
एकादश परिच्छेद
अन्य शुभकर्मेर सहित नामके तुल्यज्ञान
धर्मव्रतत्यागहुतादिसर्व
शुभक्रियासाम्यमपि प्रमादः ।
जय जय गौरचन्द्र नाम अवतार ।
जय जय हरिनाम सर्वतत्त्वसार ॥ ११.१ ॥
नामेर उपायत्व सत्त्वेओ उपेयत्व
कृष्णनाम हय प्रभु पूर्णानन्द तत्त्व ।
उपेय वा सिद्धि बलि याहार महत्त्व ॥ ११.२६ ॥
उपाय हेया आविर्भूत धरातले ।
उपेय उपाय ऐक्य सर्व शास्त्रे बले ॥ ११.२७ ॥
अधिकारभेदे यिनि उपाय स्वरूप ।
तिनी उपेय अन्ये बड अपरूप ॥ ११.२८ ॥
शुभकर्म गौणोपाय नाम मुख्योपाय
अतएव उपाय द्विविध गुण धाम ।
गौणोपाय शुभ कर्म मुख्योपाय नाम ॥ ११.२९ ॥
नामेर अतीन्द्रियत्व
अतएव शास्त्रे यत अन्य शुभ कर्म ।
नाम सह नहे एइ सर्व शास्त्र मर्म ॥ ११.३० ॥
सरल हृदये यबे कृष्णनाम गाय ।
अतीन्द्रियसुख आसि चित्तके नाचाय ॥ ११.३१ ॥
सेइ सुख कृष्णनामस्वभाव तत्पर ।
आत्मरति आत्मक्रीडा नाहि यार पर ॥ ११.३२ ॥
सायुज्य कैवल्य सुख आनन्द सुखेर छाया मात्र
ब्रह्म ज्ञाने योगे ये आनन्द वैभव ।
जडेर विच्छेद सुख छाया अनुभव ॥ ११.३३ ॥
अभेद्य कैवल्य सुख स्वल्प बलिऽ जानि ।
कृष्णनामानन्दसुख भूमा बलिऽ मानि ॥ ११.३४ ॥
अन्य शुभ कर्म हेते नामेर वैलक्षण्य
साधनकालेते नाम उपाय स्वरूप ।
सिद्धिकाले उपेय से एइ अपरूप ॥ ११.३५ ॥
उपाय स्वरूप नामे उपेयत्व सिद्ध ।
अन्य शुभ कर्मे ऐछे नहे त प्रसिद्ध ॥ ११.३६ ॥
अन्य शुभ कर्म यत सब जडाश्रित ।
नाम त चिन्मय सदा स्वतः सिद्धोदित ॥ ११.३७ ॥
साधन कालेओ नाम शुद्ध सुनिर्मल ।
साधकेर अनर्थेते देखाय समल ॥ ११.३८ ॥
साधुसङ्गे नाम लैते जडबुद्धि याय ।
अनर्थ निःशेष हैले शुद्ध नाम भाय ॥ ११.३९ ॥
अन्य शुभ कर्मी करे त्यजिया उपाय ।
उपेय परम भाव चरमे आश्रय ॥ ११.४० ॥
किन्तु नामाश्रयी जन नाम नाहि त्यजे ।
नामेर शुद्धता मात्र सिद्धिकाले भजे ॥ ११.४१ ॥
अन्य शुभ कर्म हैते अति विलक्षण ।
नामेर स्वरूप हय अपूर्व लक्षण ॥ ११.४२ ॥
साधन दशाय एइ विलक्षण ज्ञान ।
गुरु कृपा हैते हय वेदेर प्रमाण ॥ ११.४३ ॥
साधन दशाय यिनि एइ ज्ञान हीन ।
नाम अपराधी तिंह अति अर्वाचीन ॥ ११.४४ ॥
नाम सर्वोपरि नामतुल्य किछु नय ।
ए दृढ विश्वास करि येइ नाम लय ॥ ११.४५ ॥
अचिरे ताङ्हाते हय शुद्धनामोदय ।
पूर्णानन्द नामरस करेन आश्रय ॥ ११.४६ ॥
एइ अपराधेर प्रतिकार
काहारो यद्यपि अन्य शुभ कर्म सने ।
नामे सम बुद्धि हय दुष्कृति बन्धने ॥ ११.४७ ॥
से दुष्कृति क्षय लागि करिबे यतन ।
नामे शुद्ध बुद्धि पाबे प्रेम धन ॥ ११.४८ ॥
अन्त्यज गृहस्थ शुद्ध नाम परायण ।
ताङ्र पद धूलि देहे करिबे मृक्षण ॥ ११.४९ ॥
खाइबे अधरामृत पिबे पदजल ।
तबे शुद्ध नामे मति हेबे निर्मल ॥ ११.५० ॥
कालि दासे एइ रूपे दुष्कृति खण्डन ।
पुनः तव कृपाप्राप्ति गाय जगज्जन ॥ ११.५१ ॥
आमि जड बुद्धि नाथ एक मात्र गाइ ।
नामचिन्तामणितत्त्व कभु नाहि पाइ ॥ ११.५२ ॥
हरिदास ठाकुरेर नामविषये निष्ठा
कृपा करिऽ नामरूपे आमार जिह्वाय ।
निरन्तर नाच प्रभु धरि तव पाय ॥ ११.५३ ॥
राख इङ्हा लओ ताङ्हा तव इच्छा मत ।
याङ्हा राख देह मोरे कृष्णनामामृत ॥ ११.५४ ॥
जगज्जने नाम दिते तव अवतार ।
जगज्जनमाझे मोरे कर अङ्गीकार ॥ ११.५५ ॥
आमि त अधम तुमि अधम तारण ।
उभये सम्बन्ध एइ पतित पावन ॥ ११.५६ ॥
अच्छेद्य सम्बन्ध एइ तोमाय आमाय ।
यार बले नामामृत ए अधम चाय ॥ ११.५७ ॥
कलियुगे नामे केन युगधर्म हेलेन
कलियुगे सुदुःसाध्य अन्य शुभ कर्म ।
अतएव नाम आसिऽ हेल युग धर्म ॥ ११.५८ ॥
हरिदासदास भक्तिविनोद से जन ।
हरिनामचिन्तामणि गाय अकिञ्चन ॥ ११.५९ ॥
(१२)
द्वादश परिच्छेद
नामापराध प्रमाद
प्रमादः
जय जय महाप्रभु जय भक्तगण ।
जाङ्देर प्रसादे करि नामसङ्कीर्तन ॥ १२.१ ॥
प्रमादनामक अपराध
हरिदास बले प्रभु हेथा सनातने ।
आर त गोपाल भट्ट दक्षिण भ्रमणे ॥ १२.२ ॥
शिखाइले अप्रमादे श्रीकृष्णभजने ।
प्रमादके अपराधे करिले गणन ॥ १२.३ ॥
अन्य अपराध त्ज्यजि सदा नाम लय ।
तबु नामे प्रेम नाहि हय त उदय ॥ १२.४ ॥
तबे जानि प्रमाद नामेते अपराध ।
प्रेम भक्ति साधनेते करितेछे बाध ॥ १२.५ ॥
अनवधानकेइ प्रमाद बले
प्रमाद अनवधान एइ मूल अर्थ ।
इहा हैते घटे प्रभु सकल अनर्थ ॥ १२.६ ॥
तिन प्रकार अनवधान
औदासीन्य जाड्य आर विक्षेप ए तिन ।
प्रकार अनवधान बुझिबे प्रवीण ॥ १२.७ ॥
अनुराग ना हओआ पर्यन्त नाम ग्रहणे यत्नेर आवश्यक
कोन भाग्ये कोन जीवेर श्रद्धा यदि हय ।
तबे तिङ्ह हरिनाम ग्रहण करय ॥ १२.८ ॥
यत्न करि स्मरे नाम सङ्ख्यार सहित ।
तबे नामे अनुराग हय त उदित ॥ १२.९ ॥
ये पर्यन्त अनुराग ना हय उदय ।
से पर्यन्त यत्न करि नाम सदा लय ॥ १२.१० ॥
यत्नाभावे साधकेर चित्त स्थिर हय ना
निसर्गतः लोक सब विषये आसक्त ।
स्मृतिकाले विषय अन्तरे अनुरक्त ॥ १२.११ ॥
रुचि याय अन्य स्थाने नामे उदासीन ।
नामे चित्त मग्न नहे जपे प्रतिदिन ॥ १२.१२ ॥
चित्त एक दिके आर अन्य दिके नाम ।
ताहार मङ्गल किसे हय गुण धाम ॥ १२.१३ ॥
लक्ष नाम हैले पूर्ण सङ्ख्या माला गणि ।
हृदये नहिल रस बिन्दु गुण मणि ॥ १२.१४ ॥
एइ त अनवधान दोषेर प्रकार ।
विषयी हृदये प्रभु बड दुर्निवार ॥ १२.१५ ॥
यत्न करिबार विधि
साधु सङ्गे स्वल्प काल छाडिया विषय ।
निर्जने लेले नाम एइ दोष क्षय ॥ १२.१६ ॥
क्रमे क्रमे कृष्ण नामे चित्त हय स्थिर ।
निरन्तर नाम रसे हय त अधीर ॥ १२.१७ ॥
तुलसीर सन्निकटे कृष्ण लीला स्थाने ।
साधु सन्निधाने बसिऽ सात्वतविधाने ॥ १२.१८ ॥
क्रमे काल वृद्धि करि सेइ नाम स्मरे ।
अति शीघ्र विषयेर छन्द हेते तरे ॥ १२.१९ ॥
अन्य प्रक्रिया । एइ रूप करिले औदासीन्य रूप अनवधान हय ना
अथवा निर्जने बसिऽ स्मरि साधुरीति ।
इन्द्रिय पिधान करिऽ नामे करे मति ॥ १२.२० ॥
सत्वरे नामेते निष्ठा रुचि क्रमे हय ।
औदासीन्य दोषे तार क्रमे हय क्षय ॥ १२.२१ ॥
जाड्यजनित अनवधान लक्षण
जाड्ये ये अनवधानअ अलसेर मने ।
ताहे रुचि नाहि हय श्रीनामग्रहणे ॥ १२.२२ ॥
स्मृतिकाले पुनः शीघ्र विरामे प्रयास ।
एइ दोषे नामरस ना हय प्रकाश ॥ १२.२३ ॥
अन्य कार्ये वृथा काल ना हय यापन ।
साधु गण इहा चिन्तिऽ स्मरे अनुक्षण ॥ १२.२४ ॥
नाम स्मरे रसे मजे अन्य नाहि चाय ।
सेइ रूप साधु सङ्गे एइ दोस याय ॥ १२.२५ ॥
अन्वेषिया सेइ रूप साधुसङ्ग करे ।
तद्अनुकरणे चित्त जाड्य परिहरे ॥ १२.२६ ॥
अव्यर्थ कालत्व धर्म साधुर चरित ।
देखिले ताहाते रुचि हेबे निश्चित ॥ १२.२७ ॥
मने हबे आहा कबे इहार समान ।
स्मरिब गाइब नाम हये भाग्यवान् ॥ १२.२८ ॥
सेइ त उत्साह आसि अलसेर मने ।
जाड्य दूर करे कृष्णनामेर स्मरणे ॥ १२.२९ ॥
मने हबे आज लक्ष नाम ये करिब ।
क्रमे क्रमे तिन लक्ष नाम ये स्मरिब ॥ १२.३० ॥
महाग्रह हबे चित्ते नामेर सङ्ख्याय ।
अचिरे याइबे जाड्य साधुर कृपाय ॥ १२.३१ ॥
विक्षेप जनित अनवधान लक्षण
विक्षेप हेते येइ प्रमाद उदय ।
बहु यत्ने सेइ अपराध हय क्षय ॥ १२.३२ ॥
कनक कामिनी आर जय पराजय ।
प्रतिष्ठाशा शाठ्यवृत्ति ताहार निलय ॥ १२.३३ ॥
ए सब आकृष्टि हृदे हेले उदय ।
नामेते अनवधान स्वभावतः हय ॥ १२.३४ ॥
विक्षेपत्यागेर उपाय
क्रमे क्रमे सेइ सब चिन्ता परिहारे ।
यतिबे सौभाग्यवान् वैष्णव आचारे ॥ १२.३५ ॥
प्रथमेते हरिदिने भोगचिन्ता त्यजिऽ ।
साधु सङ्गे रात्रदिन हरिनाम भजि ॥ १२.३६ ॥
हरिक्षेत्रे हरि दास हरि शास्त्रे लये ।
उत्सवे मजिबे सुखे परम निर्भये ॥ १२.३७ ॥
क्रमे भक्तिकाल मन करिबे वर्धन ।
हरिकथा महोत्सवे मजाइया मन ॥ १२.३८ ॥
श्रेष्ठ रस क्रमे चित्ते हेबे उदय ।
जडेर निकृष्ट रस छाडिबे निश्चय ॥ १२.३९ ॥
महाजन मुखे हरिसङ्गीत श्रवणे ।
मुग्ध हबे मनः कर्ण रस आस्वादने ॥ १२.४० ॥
निकृष्ट विषयस्पृहा हेबे विगत ।
नाम गाने चित्त स्थिर हबे अविरत ॥ १२.४१ ॥
अतएव बहु यत्ने ए प्रमाद त्यजे ।
स्थिर चित्ते नाम रसे चिर दिन मजे ॥ १२.४२ ॥
आग्रह
सङ्कल्पित नाम सङ्ख्या पूर्ण करिबारे ।
ना हय अयत्न नामे देखि बारे बारे ॥ १२.४३ ॥
सतर्क हेया करि नाम सङ्कीर्तन ।
प्रमाद छाडिया करि नामेर भजन ॥ १२.४४ ॥
सङ्ख्याधिक स्पृहा एकाग्रमानसे ।
निरन्तर करिऽ नाम तव कृपाबले ॥ १२.४५ ॥
एइ कृपा कर प्रभु नामेते प्रमाद ।
ना बाधे आमार चित्ते नाम रसास्वाद ॥ १२.४६ ॥
प्रक्रिया
एकाग्र मानसे निर्जनेते स्वल्प क्षण ।
नाम स्मृति अभ्यास करिबे भक्त जन ॥ १२.४७ ॥
अतएव स्पष्ट नाम भाव लग्न मने ।
सदा हय ए प्रार्थना तोमार चरणे ॥ १२.४८ ॥
आपन यत्नेते केह नाहि पारे ।
तोमार प्रसाद विना ए भवसंसारे ॥ १२.४९ ॥
यत्नाग्रहेर आवश्यकता ।
निष्कपट नाम ग्रहणे ताहा अवश्य थाके, नतुवा अपराध
यत्न करि कृपा मागि व्याकुल अन्तरे ।
तुमि कृपामय कृपा कर अतःपरे ॥ १२.५० ॥
तव कृपा लाभे यदि ना करि यतन ।
तबे आमि भाग्य हीन हे शचीनन्दन ॥ १२.५१ ॥
हरिनामचिन्तामणि अलङ्कार यार ।
हरिदासपदयुग भरसा ताहार ॥ १२.५२ ॥
(१३)
त्रयोदश परिच्छेद
श्रुतेऽपि नाममाहात्म्ये
यः प्रीतिरहितो नरः ।
अहंममादिपरमो
नाम्नि सोऽप्यपराधकृत् ॥ १३.
गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन ।
सीताद्वैत जय जय गौरभक्तजन ॥ १३.१ ॥
प्रेमे गद गद हरिदास महाशय ।
शेष नाम अपराध प्रभु पदे कय ॥ १३.२ ॥
शुन प्रभु एइ अपराध सर्वाधम ।
एइ दोषे नाम प्रेम ना हय उद्गम ॥ १३.३ ॥
नामे शरणापत्तिर प्रयोजनीयता
अन्य नय अपराध करिया वर्ज्जन ।
नामेते शरणापन्न हेबे सज्जन ॥ १३.४ ॥
षड्विध शरणागति सर्व शास्त्रे कय ।
विस्तारित बलिते आमार साध्य नय ॥ १३.५ ॥
शरणापत्तिर प्रकार
संक्षेपे चरणे तव करि निवेदन ।
आनुकूल्ये सङ्कल्प प्रातिकूल्य विसर्जन ॥ १३.६ ॥
कृष्णे रक्षाकारी बुद्धि पालक भावन ।
निजे दीन बुद्धि आर आत्मनिवेदन ॥ १३.७ ॥
ए जीवन ना रहिले ना हय भजन ।
जीवन रक्षाय मात्र विषय ग्रहण ॥ १३.८ ॥
भक्ति अनुकूल ये विषय अनुक्षण ।
ताहे रोचमान वृत्त्ये जीवन यापन ॥ १३.९ ॥
भक्ति प्रतिकूल ये विषये यबे हय ।
ताहाते अरुचि ताहा वर्जिबे निश्चय ॥ १३.१० ॥
कृष्ण विना रक्षाकर्ता नाहि केह आर ।
कृष्ण से पालक मात्र जानिबे आमार ॥ १३.११ ॥
आमि दीन अकिञ्चन सकलेर छार ।
अधम दुर्गत किछु नाहिक आमार ॥ १३.१२ ॥
कृष्णेर संसारे आमि आछि चिर दास ।
कृष्ण इच्छा मत क्रिया आमार प्रयास ॥ १३.१३ ॥
आमि कर्ता आमि दाता आमि पालयिता ।
आमार ए देह गेह सन्तान वनिता ॥ १३.१४ ॥
आमि विप्र आमि शूद्र आमि पिता पति ।
आमि राजा आमि प्रजा सन्तानेर गति ॥ १३.१५ ॥
एइ सब बुद्धि छाडि कृष्णे करि मति ।
कृष्ण कर्ता कृष्ण इच्छा मात्र बलवती ॥ १३.१६ ॥
कृष्णेर ये हय इच्छा ताहाइ करिब ।
निज इच्छा अनुसारे किछु ना चिन्तिब ॥ १३.१७ ॥
कृष्ण इच्छा मते हय आमार संसार ।
कृष्ण इच्छा मते आमि हे भवपार ॥ १३.१८ ॥
दुःखे थाकि सुखे थाकि आमि कृष्ण दास ।
कृष्णेच्छाय सर्व जीवे दयार प्रकाश ॥ १३.१९ ॥
मम भोग कर्मभोग कृष्ण इच्छा मत ।
आमार वैराग्य कृष्ण इच्छा अनुगत ॥ १३.२० ॥
शरणापत्ति हेले आत्मनिवेदन हय
सरल भावेते यबे एइ भाव हय ।
आत्म निवेदन तारे बलि महाशय ॥ १३.२१ ॥
शरणापत्ति व्यतीत नामाश्रये याहा हय
षड्विध शरणागति नाहिक याहार ।
से अधम अहं मम बुद्धि दोषे छार ॥ १३.२२ ॥
से बले आमि त कर्ता संसार आमार ।
निज कर्म फल भोग सुख दुःख आर ॥ १३.२३ ॥
आमार रक्षक आमि, आमि त पालक ।
आमार वनिता भ्राता बालिका बालक ॥ १३.२४ ॥
आमि त अर्जन करि आमार चेष्टाय ।
सर्व कार्य्य सिद्ध हय सर्व शोभा पाय ॥ १३.२५ ॥
अहं मम बुद्धि क्रमे बहिर्मुख जन ।
निज ज्ञान बले बहु करये मानन ॥ १३.२६ ॥
सेइ ज्ञान बले शिल्प विज्ञान विस्तारे ।
ईश्वरेर ईशिता ना माने दुष्टाचारे ॥ १३.२७ ॥
श्रीनाममाहात्म्य शुनि विश्वास ना करे ।
लोक व्यवहारे कभु कृष्णनामोच्चारे ॥ १३.२८ ॥
कृष्ण नाम करे तबु नाहि पाय प्रीति ।
धर्म ध्वजी शठ जन जीवने ए रीति ॥ १३.२९ ॥
हेलाय उच्चारे नाम किछु पुण्य हय ।
प्रीति फल नाहि फले सर्व शास्त्रे कय ॥ १३.३० ॥
इहार मूल कि ?
माया बद्ध हैते एइ अपराध हय ।
इहाते निष्कृति लाभ कठिन निश्चय ॥ १३.३१ ॥
शुद्ध भक्ति फले याङ्र विरक्ति हेल ।
संसार छाडिया सेइ नामाश्रय निल ॥ १३.३२ ॥
एइ दोष त्यागेर उपाय
निष्किञ्चन भावे भजे श्री कृष्ण चरण ।
विषय छाडिया करे नाम सङ्कीर्तन ॥ १३.३३ ॥
सेइ साधु जने अन्वेषिया ताङ्र सङ्ग ।
करिबे सेविबे छाडि विषय तरङ्ग ॥ १३.३४ ॥
क्रमे क्रमे नामे मति हेबे सञ्चार ।
अहंता ममता याबे माया हबे पार ॥ १३.३५ ॥
नामेर माहात्म्य शुनि अहं मम भाव ।
छाडिया शरणातै भक्तेर स्वभाव ॥ १३.३६ ॥
नामेर शरणागत येइ महाजन ।
कृष्ण नाम करे पाय प्रेम महा धन ॥ १३.३७ ॥
दशापराध शून्य व्यक्तिर लक्षण
अतएव साधु निन्दा यतने छाडिया ।
पर तत्त्व विष्णु शुद्ध मनेते जानिया ॥ १३.३८ ॥
नाम गुरु नाम शास्त्र सर्वोत्तम जानि ।
विशुद्ध चिन्मय नाम हृदयेते मानि ॥ १३.३९ ॥
पाप स्पृहा पाप बीज त्यजिया यतने ।
प्रचारिया शुद्ध नाम श्रद्धान्वित जने ॥ १३.४० ॥
अन्य शुभ कर्म हैते लेया विराम ।
स्मरे ये शरणागत अप्रमादे नाम ॥ १३.४१ ॥
निरपराधे नामे लेले अल्प दिने भावोदय हय
सेइ धन्य त्रिजगते सेइ भाग्यवान् ।
कृष्ण कृपा योग्य सेइ गुणेर निदान ॥ १३.४२ ॥
अति अल्प दिने ताङ्र श्रीनामग्रनणे ।
भावोदय हय आर पाय प्रेम धने ॥ १३.४३ ॥
उन्नति क्रम
एवम्भूत जनेर साधन दशा प्राय ।
अति स्वल्प दिने याय कृष्णेर इच्छाय ॥ १३.४४ ॥
भाव दशा हैते हैते प्रेम दशा हय ।
प्रेम दशा सर्व सिद्धि सर्व शास्त्र कय ॥ १३.४५ ॥
तुमि बलियाछ नाम येइ महाजन ।
लेबे निरपराधे पाबे प्रेम धन ॥ १३.४६ ॥
व्यतिरेक भावे इहार चिन्ता
अपराध नाहि छाडिऽ नाम यदि लय ।
सहस्र साधने तार भक्ति नाहि हय ॥ १३.४७ ॥
ज्ञाने मुक्ति कर्मे भुक्ति ज्ञानी कर्मी जने ।
सुदुर्लभा कृष्ण भक्ति निर्मल साधने ॥ १३.४८ ॥
भुक्ति मुक्ति भक्ति सम भक्ति मुक्ता फल ।
जीवेर महिमा भकि प्राप्ति सुनिर्मल ॥ १३.४९ ॥
साधने नैपुण्य योगे अत्यल्प साधने ।
भक्ति लता प्रेम फल देन भक्त जने ॥ १३.५० ॥
भजन नैपुण्य
दश अपराध छाडि नामेर ग्रहण ।
इहाइ नैपुण्य हय साधन भजन ॥ १३.५१ ॥
नामापराधेर गुरुता
अतएव भक्ति लाभे यदि लोभ हय ।
दश अपराध छाडि करि नामाश्रय ॥ १३.५२ ॥
एक एक अपराध सतर्क हेया ।
यतनेते छाडि चित्ते विलाप करिया ॥ १३.५३ ॥
नामेर चरणे करि दृढ निवेदन ।
नाम कृपा हले अपराध विध्वंसन ॥ १३.५४ ॥
अन्य शुभ कर्मे नाम अपराध क्षय ।
कोन प्रायश्चित्त योगेकभु नाहि हय ॥ १३.५५ ॥
नामापराध परित्यागेर उपाय
अविश्रान्त नामे नाम अपराध याय ।
ताहे अपराध कभु स्थान नाहि पाय ॥ १३.५६ ॥
दिवारात्र नाम लय अनुताप करे ।
तबे अपराध याय नाम फल धरे ॥ १३.५७ ॥
अपराध गते शुद्ध नामेर उदय ।
शुद्ध नाम भावमय आर प्रेम मय ॥ १३.५८ ॥
दश अपराध येन हृदये ना पशे ।
कृपा कर महाप्रभु मजि नाम रसे ॥ १३.५९ ॥
ए भक्तिविनोद हरिदास कृपा बले ।
हरिनामचिन्तामणि गाय कुतूहले ॥ १३.६० ॥
(१४)
चतुर्दश परिच्छेद
सेवापराध
जय गौरगदाधर जाह्नवा जीवन ।
जय सीतापति श्रीवासादिभक्तजन ॥ १४.१ ॥
नामतत्त्वे श्रीहरिदास ठाकुरके आचार्य बलिया उक्ति करियाछेन्
महाप्रभु बले शुन भक्त हरिदास ।
नाम अपराध तत्त्व करिले प्रकाश ॥ १४.२ ॥
इहाते कलिर जीव लभिबे मङ्गल ।
नामतत्त्वे तुमि हओ आचार्य प्रबल ॥ १४.३ ॥
तव मुखे नामतत्त्व करिते श्रवण ।
आमार उल्लास बड शुन महाजन ॥ १४.४ ॥
आचारे आचार्य तुमि प्रचारे पण्डित ।
तोमार चरित नामरत्ने विभूषित ॥ १४.५ ॥
रामानन्द शिखाइल मोरे रसतत्त्व ।
तुमि शिखाइले मोरे नामेर महत्त्व ॥ १४.६ ॥
एबे बल सेवा अपराध कि प्रकार ।
शुनिया घुचिबे जीवेर चित्त अन्धकार ॥ १४.७ ॥
हरिदास बले से सेवक जन जाने ।
आमि नामाश्रये थाकि जानिब केमने ॥ १४.८ ॥
तबु तव आज्ञा आमि लङ्घिबारे नारि ।
याहा बलाइबे ताहा बलिब विस्तारि ॥ १४.९ ॥
सेवापराध सङ्ख्या
सेवा अपराध हय अनन्त प्रकार ।
श्रीमूर्ति सम्बन्धे सब शास्त्रेर विचार ॥ १४.१० ॥
कोन शास्त्रे द्वात्रिंशतपराध गणि ।
कोन शास्त्रे पञ्चाशत्गञे गुणमणि ॥ १४.११ ॥
चतुर्विध
सेइ अपराध चतुर्विधादि प्रकारे ।
विभाग करेन बुध गण शास्त्रे द्वारे ॥ १४.१२ ॥
श्रीमूर्तिसेवक निष्ठ कतगुलि तार ।
श्री मूर्ति स्थापक निष्ठ अपराध आर ॥ १४.१३ ॥
श्रीमूर्ति दर्शक निष्ठ आर कतिपय ।
सर्व निष्ठ अपराध कतिविध हय ॥ १४.१४ ॥
सेवापराध द्वात्रिंश प्रकार
पादुका सहित याय ईश्वर मन्दिरे ।
याने चडिऽ याय तथा स्वच्छन्द शरीरे ॥ १४.१५ ॥
उत्सवे ना सेवे आर प्रगति ना करे ।
उच्छिष्ठ अशौच देहे वन्दन आचरे ॥ १४.१६ ॥
एक हस्ते प्रणाम सम्मुखे प्रदक्षिण ।
देवाग्रे प्रसारे पद हय वीरासीन ॥ १४.१७ ॥
देवाग्रे शयन आर भक्षण करय ।
मिथ्या कथा उच्च भाषा जल्पना निचय ॥ १४.१८ ॥
निग्रहानुग्रह युद्ध अभक्ति रोदन ।
क्रूर भाषा पर निन्दा कम्बलावरण ॥ १४.१९ ॥
पर स्तुति, अश्लीलता, वायुविमोक्षण ।
शक्ति सत्त्वे गौण उपचारेर योजन ॥ १४.२० ॥
देवानिवेदित द्रव्य भक्षणे स्वीकार ।
कालोदित फलादिर अनर्पण आर ॥ १४.२१ ॥
अन्य भुक्त अवशिष्ट खाद्य निवेदन ।
देव प्रति पृष्ठ करि सम्मुखे आसन ॥ १४.२२ ॥
देवाग्रे अन्येर अभिवादन पूजन ।
गुरु प्रति मौन निज स्तोत्र आलोचन ॥ १४.२३ ॥
देवता निन्दन एइ द्वात्रिंश प्रकार ।
सेवा अपराध महा पुराणे प्रचार ॥ १४.२४ ॥
अन्य शास्त्र मते प्रकार वर्णन
अन्यत्र आछये अपराध अन्यतम ।
संक्षेपे बलिब प्रभु तव इच्छा मत ॥ १४.२५ ॥
राजान्न भोजन आर अन्धकार घरे ।
प्रवेशिया देव मूर्ति संस्पर्शन करे ॥ १४.२६ ॥
अविधि पूर्वक हरि मृत्यु समर्पण ।
विना वाद्ये मन्दिरेर द्वार उद्घाटन ॥ १४.२७ ॥
सारमेय दृष्ट खाद्य देवे समर्पण ।
अर्चन समये मौन भङ्ग अकारणे ॥ १४.२८ ॥
बहिर्देशे गमनादि पूजार समये ।
गन्ध माल्य नाहि दिया धूपन करये ॥ १४.२९ ॥
अनर्हपुष्पेते कृष्ण पूजादि करण ।
अधौत वदने कृष्ण पूजा आरम्भन ॥ १४.३० ॥
स्त्री सङ्ग करिया किम्बा रजःस्वला नारी ।
दीप, शब स्पर्शिया, अयोग्य वस्त्र परिऽ ॥ १४.३१ ॥
शब हेरिऽ, अधोवायु करिया मोक्षण ।
क्रोध करिऽ श्मशानेते करिया गमन ॥ १४.३२ ॥
अजीर्ण उदरे आर कुसुम्भ पैनाक ।
सेवन करिया आर ताम्बुल गुवाक ॥ १४.३३ ॥
तैल माखि करि हरिश्रीमूर्तिस्पर्शन ।
एरण्डपत्रस्थ पुष्पे करय अर्चन ॥ १४.३४ ॥
आसुरिक काले पूजे पीठे भूमे बसि ।
स्नपन समये मूर्ति वाम हस्ते स्पर्शिऽ ॥ १४.३५ ॥
वासि वा याचित फुले देवता अर्चन ।
पूजा काले गर्व उक्ति अयथा ष्ठीवन ॥ १४.३६ ॥
तिर्यक्पुण्ड्र धरे आर अधौत चरणे ।
मन्दिरे प्रवेश करे पूजार कारणे ॥ १४.३७ ॥
अवैष्णव पक्व करे देवे निवेदन ।
अवैष्णवे देखाइया करये पूजन ॥ १४.३८ ॥
विश्वक्सेने ना पूजिया कापालि देखिया ।
हरि पूजे नख जले श्री मूर्ति स्मरिया ॥ १४.३९ ॥
घर्माम्बुसंस्पृष्ट जले करये अर्चन ।
कृष्णेर शपथ करे निर्माल्य लङ्घन ॥ १४.४० ॥
एइ सब कार्य्ये हय सेवा अपराध ।
सेवाकारी जनेर याहाते भक्ति बाध ॥ १४.४१ ॥
सेवापराध याहार पक्षे याहा, ताहा तिनि वर्ज्जन करिबेन
श्रीमूर्ति सम्बन्धे यार भजन पूजन ।
सेवा अपराध तेङ्ह करुन् वर्ज्जन ॥ १४.४२ ॥
वैष्णव सर्वदा नाम सेवा अपराध ।
वर्जिया श्रीकृष्णसेवा करुन आस्वाद ॥ १४.४३ ॥
एइ सब अपराध मध्ये याङ्र याहा ।
सम्बन्धे पडिबे ताङ्र वर्ज्जनीय ताहा ॥ १४.४४ ॥
नामापराध सकल वैष्णवमात्रेरे वर्ज्जनीय
किन्तु नाम अपराध सकल वैष्णव ।
सर्व काल त्यजिऽ लभे भक्तिर वैभव ॥ १४.४५ ॥
भावसेवाय सेवापराध विचार स्वल्प
श्रीमूर्ति विरहे यिनि निर्ज्जनेते बसिऽ ।
भजनकारणे भाव मार्गे अहर्निशि ॥ १४.४६ ॥
नाम अपराध सदा वर्ज्जनीय ताङ्र ।
नाम अपराध दश सर्व क्लेशाधार ॥ १४.४७ ॥
नाम अपराध गते भाव सेवा हय ।
अतएव अपराध ताहे नाहि रय ॥ १४.४८ ॥
नाम स्मरण कारीदेर भावसेवाइ कर्तव्य
श्री नाम स्मरणे भाव सेवार उदय ।
तोमार कृपाय प्रभु जीवे भाग्योदय ॥ १४.४९ ॥
भक्तिर साधन यत आछय प्रकार ।
से सब चरमे देय नामे प्रेम सार ॥ १४.५० ॥
अतएव नाम लय नाम रसे मजे ।
अन्य ये प्रकार सब ताहा नाहि भजे ॥ १४.५१ ॥
हरिदास आज्ञा बले अकिञ्चन जन ।
हरिनामचिन्तामणि करिला कीर्तन ॥ १४.५२ ॥
(१५)
पञ्चदश परिच्छेद
भजनप्रणाली
गदाइ गौराङ्ग जय जय नित्यानन्द ।
जय सीतानाथ जय गौरभक्तवृन्द ॥ १५.१ ॥
सब छाडि हरिनाम जे करे भजन ।
जय जय भाग्यवान् सेइ महाजन ॥ १५.२ ॥
प्रभु बले हरिदास तुमि भक्तिबले ।
पेयेछ सकल ज्ञान ए जगतीतले ॥ १५.३ ॥
सर्ववेद नाचे देखि तोमार जिह्वाय ।
सकल सिद्धान्त देखि तोमार कथाय ॥ १५.४ ॥
नामरसजिज्ञासा
एबे स्पष्ट बल नामरस कि प्रकार ।
कि रूपे लभिबे जीव ताहे अधिकार ॥ १५.५ ॥
हरिदास महाप्रेमे करे निवेदन ।
तोमार प्रेरणाबले करिब वर्णन ॥ १५.६ ॥
रसतत्त्व
शुद्धतत्त्व परतत्त्व येइ वस्तु सिद्ध ।
रस नामे सर्ववेदे ताहाइ प्रसिद्ध ॥ १५.७ ॥
सेइ से अखण्ड रस परब्रह्म तत्त्व ।
अनन्त आनन्दधाम चरम महत्त्व ॥ १५.८ ॥
शक्ति शक्तिमान् रूपे विशेष ताहाय ।
भेद नाइ भेद सम दर्शनेते भाय ॥ १५.९ ॥
शक्तिमान् सुदुर्लक्ष्य शक्ति प्रकाशिनी ।
त्रिविध शक्तिर क्रिया विश्वविकाशिनी ॥ १५.१० ॥
चिच्छक्तिद्वारा वस्तुप्रकाश
चिच्छक्तिस्वरूपे प्रकाशये वस्तु रूप ।
वस्तु नाम वस्तु धाम तत्क्रिया स्वरूप ॥ १५.११ ॥
कृष्ण से परम वस्तु श्याम तार रूप ।
कृष्णधाम गोलोकादि लीलार स्वरूप ॥ १५.१२ ॥
नाम धाम रूप गुण लीला आदि यत ।
सकले अखण्डाद्वय ज्ञान अन्तर्गत ॥ १५.१३ ॥
विचित्रता यत सब परा शक्ति कर्म ।
कृष्ण धर्मी परा शक्ति कृष्ण नित्य कर्म ॥ १५.१४ ॥
धर्मधर्मी भेद नाइ अखण्ड अद्वये ।
विचित्र विशेष मात्र सच्चिन्निलये ॥ १५.१५ ॥
मायाशक्तिर स्वरूप
सेइ शक्तिछाया एक माया संज्ञा पाय ।
बहिरङ्ग विश्व सृजे कृष्णेर इच्छाय ॥ १५.१६ ॥
जीवशक्ति
भेदाभेदमयी जीवशक्ति जीवगणे ।
ताटस्थ्ये प्रकाशे कृष्ण सेवार कारणे ॥ १५.१७ ॥
दुइ प्रकार दशा विशिष्ट जीव
नित्यबद्ध नित्यमुक्त जीव द्विप्रकार ।
नित्य मुक्ते नित्य कृष्ण सेवा अधिकार ॥ १५.१८ ॥
नित्य बद्ध माया गुणे करये संसार ।
बहिर्मुख अन्तर्मुख भेदे द्विप्रकार ॥ १५.१९ ॥
अन्तर्मुख साधुसङ्गे कृष्णनाम पाय ।
कृष्णनामप्रभावेते कृष्णधामे याय ॥ १५.२० ॥
रस नामस्वरूप
नाम त अखण्ड रस कलिका ताहार ।
कृष्ण आदि संज्ञारूपे विश्वेते प्रचार ॥ १५.२१ ॥
रस रूपस्वरूप
स्वल्प स्फुट कलिका से रूप मनोहर ।
श्रीगोलोके वृन्दावने श्रीश्यामसुन्दर ॥ १५.२२ ॥
रस गुणस्वरूप
सौरभित कलिका से चतुःषष्ठिगुण ।
प्रकाशे नामेर तत्त्व जानेन निपुण ॥ १५.२३ ॥
रस लीलास्वरूप
पूर्ण प्रस्फुटित नाम कुसुम सुन्दर ।
अष्टकाल नित्यलीला प्रकृतिर पर ॥ १५.२४ ॥
भक्तिस्वरूप
जीवे नाम कृपोदये स्वरूप ह्लादिनी ।
संवितेर सारयुता भक्तिस्वरूपिणी ॥ १५.२५ ॥
भक्तिक्रिया
आविर्भूत हये नामे प्रस्फुटित करि ।
रसेर सामग्री प्रकाशये सर्वेश्वरी ॥ १५.२६ ॥
विशुद्ध चिन्मय जीव लभिया स्वरूप ।
सेइ रसे प्रवेशे एइ अपरूप ॥ १५.२७ ॥
रसेर विभाव आलम्बन
रसेर विभाव सेइ तत्त्व आलम्बन ।
तद्आश्रय भक्त, तद्विषय कृष्णधन ॥ १५.२८ ॥
नाम करे अविरत भक्त महाशय ।
कृपा करि रूपगुणलीलार उदय ॥ १५.२९ ॥
रसेर विभाव उद्दीपन
उद्दीपन कृष्णरूप गुणादिक यत ।
आलम्बन उद्दीपन विभावे संयुत ॥ १५.३० ॥
विभाव हैते अनुभाव
विभाव सम्पूर्ण हैले अनुभाव हय ।
प्रेमेर विकार सब शुद्ध प्रेममय ॥ १५.३१ ॥
सञ्चारिभाव ओ सात्त्विकमिश्रे विभाव क्रिया करे, स्थायीभावे रस हय
सञ्चारी सात्त्विक क्रमे उदित हेले ।
स्थायीभाव रस हय सर्वशास्त्र बले ॥ १५.३२ ॥
ताहा पाइबार क्रम
सेइ रस सर्वसार सिद्धिसार जानि ।
परम पुरुष अर्थ सर्वशास्त्रे मानि ॥ १५.३३ ॥
भक्त्य्उन्मुख जीव शुद्धगुरुर कृपाय ।
श्रीयुगल ब्रह्मनाम सौभाग्येते पाय ॥ १५.३४ ॥
तुलसीमालाय नाम सङ्ख्या करि स्मरे ।
अथवा कीर्तन करे परम आदरे ॥ १५.३५ ॥
एक ग्रन्थ सङ्ख्या करि आरम्भिबे नाम ।
क्रमे तिन लक्ष स्मरि पूरे मनस्काम ॥ १५.३६ ॥
सङ्ख्या मध्ये किछु नाम करिबे कीर्तन ।
ताते सर्वेन्द्रिय स्फूर्ति आनन्दनर्तन ॥ १५.३७ ॥
नाम नवविध अङ्ग करय आश्रय ।
तथापि कीर्तन स्मृति सर्वश्रेष्ठ हय ॥ १५.३८ ॥
अर्चनमार्ग ओ श्रवणकीर्तनेर अधिकारभेदे क्रियाभेद
अर्चनमार्गेते गाढतर रुचि याङ्र ।
श्रवणकीर्तनसिद्धि ताहाते ताङ्हार ॥ १५.३९ ॥
नामे ऐकान्तिकी रति हेबे याङ्हार ।
श्रवणकीर्तनस्मृति केवल ताङ्हार ॥ १५.४० ॥
नाम श्रवणकीर्तनस्मरणे ये क्रम
सेवा नति दास्य सख्य आत्मनिवेदन ।
सहजे नामेर सङ्गे हय प्रवर्तन ॥ १५.४१ ॥
नामनामी एक तत्त्व विश्वास करिया ।
दश अपराध छाडि निर्जने बसिया ॥ १५.४२ ॥
अति स्वल्प दिने नाम हेया सदय ।
श्रीश्यामसुन्दररूपे हयेन उदय ॥ १५.४३ ॥
यबे नामरूपे ऐक्य हयत साधने ।
नाम लैते रूप आइसे चित्ते सर्वक्षणे ॥ १५.४४ ॥
तार किछु दिने रूपे गुण करि योग ।
श्रीनाम स्मरणे गुण करय सम्भोग ॥ १५.४५ ॥
नामरूपगुणेर एकता
स्वल्पदिने नाम रूप गुण एक हय ।
नाम लैते सर्वक्षणे तिनेर उदय ॥ १५.४६ ॥
उपासना मन्त्र ध्यान मयी
मन्त्र ध्यान मयी एइ नाम उपासना ।
प्राथमिक धारा जानि करे विभावना ॥ १५.४७ ॥
स्मृति काले योग पीठे कल्पद्रुमतले ।
गोपगोपीवृते कृष्णे देखे कुतूहले ॥ १५.४८ ॥
सात्त्विकविकार सब हय प्रस्फुटित ।
भजन आनन्दे भक्त हय पुलकित ॥ १५.४९ ॥
क्रमे यबे नाम स्वसौरभे प्रफुल्लित ।
अष्टकाल कृष्णलीला हेबे उदित ॥ १५.५० ॥
स्वारसिकी उपासना
स्वारसिकी उपासना हेबे उदय ।
लीलोचित पीठे कृष्णे दर्शन करय ॥ १५.५१ ॥
सङ्गे सङ्गे गुरुकृपा सिद्धस्वरूपेते ।
लीलाय प्रवेशे भक्त सखीर सङ्गेते ॥ १५.५२ ॥
महाभाव स्वरूपिणी वृषभानुसुता ।
ताङ्र अनुगत भक्ति सदा प्रेमयुता ॥ १५.५३ ॥
सखी आज्ञा मते करे युगलसेवन ।
महाप्रेमे मग्न हय से रसिक जन ॥ १५.५४ ॥
लिङ्गभङ्गे वस्तुसिद्धि
साधनभजनसिद्धि लागालागि ताय ।
लिङ्गभङ्गे वस्तुसिद्धि तोमार कृपाय ॥ १५.५५ ॥
तद्उत्तरावस्था वर्णन हय ना, केवल अनुभूत हय
इहार अधिक आर वाक्य नाहि चले ।
तदुत्तर अनुभव लभि कृपाबले ॥ १५.५६ ॥
एइ त उज्ज्वल रस परम साधन ।
इहाते निश्चय मिले कृष्ण प्रेम धन ॥ १५.५७ ॥
साधने एकादश भाव
साधिते उज्ज्वलरस आछे भाव एकादश
सम्बन्ध वयस नाम रूप ।
यूथ वेश आज्ञावास सेवा पराकाष्ठाश्वास
पाल्यदासी एइ अपरूप ॥ १५.५८ ॥
भाव साधने पञ्चदशा
एइ एकादश भाव सम्पूर्ण साधने ।
पञ्च दशा लक्ष्य हय साधक जीवने ॥ १५.५९ ॥
श्रवण वरण आर स्मरण आपन ।
सम्पत्ति ए पञ्चविध दशाय गणन ॥ १५.६० ॥
प्रथम श्रवण दशा
निजापेक्षा श्रेष्ठ शुद्धभावुक ये जन ।
भावमार्गे गुरुदेव सेइ महाजन ॥ १५.६१ ॥
ताङ्हार श्रीमुखे भावतत्त्वेर श्रवण ।
हेले श्रवणदशा हय प्रकटन ॥ १५.६२ ॥
भावतत्त्व
भावतत्त्व द्विप्रकार करह विचार ।
निज एकादश भाव कृष्णलीला आर ॥ १५.६३ ॥
क्रमे वरण दशा प्राप्ति
राधाकृष्ण अष्टकाल येइ लीला करे ।
ताहार श्रवणे लोभ हय अतःपरे ॥ १५.६४ ॥
लोभ हेले गुरुपदे जिज्ञासा उदय ।
केमने पाइब लीला कह महाशय ॥ १५.६५ ॥
गुरुदेव कृपा करि करिबे वर्णन ।
लीलातत्त्वे एकादश भावसङ्घटन ॥ १५.६६ ॥
प्रसन्न हेया प्रभु करिबे आदेश ।
एइ भावे लीलामध्ये करह प्रवेश ॥ १५.६७ ॥
शुद्ध रूपे सिद्ध भाव करिया श्रवण ।
सेइ भाव स्वीय चित्ते करिबे वरण ॥ १५.६८ ॥
निजरुचि श्रीगुरुदेवके बलिबे
वरण कालेते निज रुचि विचारिया ।
गुरुपदे जानाइबे सरल हेया ॥ १५.६९ ॥
प्रभु तुमि कृपा करि येइ परिचय ।
दिले मोरे ताहे मोर पूर्ण प्रीति हय ॥ १५.७० ॥
स्वभावतः मोर एइ भावे आछे रुचि ।
अतएव आज्ञा शिरे धरि ह्ये शुचि ॥ १५.७१ ॥
अन्यरुचि हेले गुरुदेव अन्यभाव दिबेन
रुचि यदि नहे तबे अकपट मने ।
निवेदिबे निजरुचि श्रीगुरुचरणे ॥ १५.७२ ॥
विचारिया गुरुदेव दिबे अन्यभाव ।
ताहे रुचि हेले प्रकाशिबे निजभाव ॥ १५.७३ ॥
निजसिद्धभाव गुरुदेवके जानाइबे
एइ रूपे गुरु शिष्य संवादे घटने ।
निजसिद्धभाव स्थिर हेबे ये क्षणे ॥ १५.७४ ॥
शिष्य गुरुपदे पडि करिबे मिनति ।
मागिबे भावेर सिद्धि करिया काकुति ॥ १५.७५ ॥
कृपा करि गुरुदेव करिबे आदेश ।
शिष्य सेइ भावे तबे करिबे प्रवेश ॥ १५.७६ ॥
दृढ वरण
श्रीगुरुचरणे पडि बलिबे तखन ।
तवादिष्ट भाव आमि करिमु वरण ॥ १५.७७ ॥
ए भाव कखन आमि ना छाडिब आर ।
जीवने मरणे एइ सङ्गी ये आमार ॥ १५.७८ ॥
भजने प्रतिबन्धक विचार
निज सिद्ध एकादश भावे व्रती हये ।
स्मरिबे सुदृढचित्ते निजभावचये ॥ १५.७९ ॥
स्मरणे विचार एक आछे त सुन्दर ।
आपनेर योग्यस्मृति कर निरन्तर ॥ १५.८० ॥
आपनेर अयोग्य स्मरण यदि हय ।
बहु युग साधिले ओ सिद्धि कभु नय ॥ १५.८१ ॥
आपनदशा
आपनसाधने स्मृति यबे हये व्रती ।
अचिरे आपनदशा हय शुद्ध अति ॥ १५.८२ ॥
निज शुद्धभावेर ये निरन्तर स्मृति ।
ताहे दूर हय शीघ्र जडबद्धमति ॥ १५.८३ ॥
बद्धजीव ये क्रमे भाव प्राप्त हन
जडबद्धजीव भुलि निज सिद्धसत्त्व ।
जड अभिमाने हय जडदेहे मत्त ॥ १५.८४ ॥
तबे यदि कृष्णलीला करिया श्रवण ।
लोभ हय पाइबारे निज सिद्धधन ॥ १५.८५ ॥
तबे भावतत्त्वस्मृति अनुक्षण करे ।
भाव यत बाडे तार भ्रान्ति तत हरे ॥ १५.८६ ॥
स्मरण दशा । ताहाते वैध ओ रागानुगता भावेर भेद । शेषटीरे प्रयोजन
स्मरण द्विविध वैध रागानुग आर ।
रागानुगा स्मृति युक्तिशास्त्र हैते पार ॥ १५.८७ ॥
माधुर्य आकृष्ट हये करये स्मरण ।
अचिराते प्राप्त हय दशा भावापन ॥ १५.८८ ॥
वैधभक्तेर उन्नतिक्रमे
वैधभक्त स्मृतिकाले सदा विचारय ।
अनुकूल युक्तिशास्त्र यखन ये हय ॥ १५.८९ ॥
भावापने हय भाव आविर्भावकाल ।
शास्त्रयुक्ति छाडे तबे जानिया जञ्जाल ॥ १५.९० ॥
श्रद्धा निष्ठा रुच्य्आसक्तिक्रमे येइ भाव ।
आपन समये ताहा हय आविर्भाव ॥ १५.९१ ॥
आपनदशाय रागानुग ओ वैधभक्तेर भेद नाइ
भावापने रागानुगा वैधभक्त भेद ।
नाहि थाके कोन मते गाय स्मृति वेद ॥ १५.९२ ॥
पञ्चविध स्मरण
स्मरण धारणा ध्यान अनुस्मृति आर ।
समाधि ए पञ्चविध स्मरण प्रकार ॥ १५.९३ ॥
भावापन दशार उदय काल
समाधि स्वरूप स्मृति ये समये हय ।
भावापन दशा आसि हेबे उदय ॥ १५.९४ ॥
से समये ये अवस्था हय
सेइ काले निज सिद्धदेह अभिमान ।
पराजिया जडदेह हबे अधिष्ठान ॥ १५.९५ ॥
तखन स्वरूपे व्रजवास क्षणे क्षण ।
भावापने स्वस्वरूपे हेरि व्रजवन ॥ १५.९६ ॥
आपने स्वरूपसिद्धि, वस्तुसिद्धि लिङ्गभङ्गे
आपने स्वरूपसिद्धि लभे भाग्यवान् ।
लिङ्गभङ्गे वस्तुसिद्धि सम्पत्ति विधान ॥ १५.९७ ॥
साधनसिद्धिर फल
हेया साधनसिद्धा नित्यसिद्धा सह ।
समता लभिया कृष्णसेवे अहरहः ॥ १५.९८ ॥
नामद्वारा सिद्धिलाभ
सेवाभङ्ग आर तार कभु नाहि हय ।
परम उज्ज्वल रसे सतत मातय ॥ १५.९९ ॥
नाम से परम धन नामेर आश्रये ।
एत सिद्धि पाय जीव शुद्धसत्त्व हये ॥ १५.१०० ॥
संक्षेपे क्रम परिचय
अतएव भक्त्य्उन्मुखजन साधुसङ्गे ।
निर्जने करिबे नाम क्रमेर अभङ्गे ॥ १५.१०१ ॥
क्रमे क्रमे अल्पकाले सर्वसिद्धि हय ।
कुसङ्ग वर्जिया साधुसङ्गे फलोदय ॥ १५.१०२ ॥
(१) साधुसङ्ग, (२) सुनिर्जन, (३) दृढभाव
साधुसङ्ग सुनिर्जन निज दृढभाव ।
एइ तिन बले लभि महिमा स्वभाव ॥ १५.१०३ ॥
आमि हीन क्षुद्रमति विषये विभोर ।
साधुसङ्ग विवर्जित सदा आत्मचोर ॥ १५.१०४ ॥
अहैतुकी कृपा कभु करिया विस्तार ।
भक्तिरसे गति देह प्रार्थना आमार ॥ १५.१०५ ॥
एत बलि हरिदास प्रेमे अचेतन ।
श्रीगौराङ्ग पदे करे देह समर्पण ॥ १५.१०६ ॥
प्रेमे गद्गद प्रभु ताङ्हारे उठाय ।
आलिङ्गन दिया चित्तकथा बले ताय ॥ १५.१०७ ॥
प्रभुर आज्ञा
शुन हरिदास एइ लीला संगोपने ।
विश्व अन्धकार करिबेक दुष्ट जने ॥ १५.१०८ ॥
सेइ काले तोमार ए चरमोपदेश ।
अवशिष्ट साधुजने बुझिबे विशेष ॥ १५.१०९ ॥
एइ तत्त्व नामाश्रये निष्किञ्चन जन ।
निर्जने बसिया कृष्ण करिबे भजन ॥ १५.११० ॥
निज निज भाग्यबले जीव पाय भक्ति ।
भक्ति लभिबारे सकलेर नाहि शक्ति ॥ १५.१११ ॥
सुकृति जनेर भक्ति दृढ करिबारे ।
आइलाम युगधर्म नामेर प्रचारे ॥ १५.११२ ॥
हरिदास ठाकुर नामप्रचारेर सहाय
तुमि त सहाय मोर ए कार्य साधने ।
तव मुखे नामतत्त्व शुनि ए कारणे ॥ १५.११३ ॥
हरिनाम चिन्तामणि अखिल अमृत खनि
कृष्णकृपा बले ये पाइल ।
कृतार्थ से महाशय सदा पूर्णानन्दमय
रागभावे श्रीकृष्ण भजिल ॥ १५.११४ ॥
ताङ्हार चरण धरि सदा काकुति करि
काङ्दे एइ अकिञ्चन छार ।
ए अमृतरसलेश पियाइया अवशेष
कर सार आनन्द विस्तार ॥ १५.११५ ॥
इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ भजनप्रणालीप्रदर्शनं नाम
पञ्चदशः परिच्छेदः
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