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  • श्रीमद्भगवद्गीता हिन्दीभाषानूदिता

श्रीमद्भगवद्गीता हिन्दीभाषाऽऽनुवादसहिता
श्रीमद् भगवद्गीता
॥ॐ नमः भगवते वासुदेवाय॥
श्रीमद् भगवद्गीता (Srimad Bhagawad Gita - With Hindi Translation)
 सरल हिन्दी अनुवाद - पँकज चन्द गुप्ता कृत ।
श्रीमद् भगवत गीता के बहुत से अनुवाद हैं ॥ किसी को कोई अच्छा लगता है, किसी को कोई ॥ संस्कृत सबको नही् आती इसलिये मैं कोशिश कर रहा हूँ सीधी हिन्दी में लिखने की ॥ भगवान करें मैं ठीक ठीक लिख पाऊँ ॥ आप को प्रणाम है ॥ यह आप की ही है, इस अनुवाद को आप बिना झिझक कहीं भी डालें, किसी को भी भेजें, इसे किसी और फोरमैट में बदलना चाहें तो वह भी आप कर सकते हैं ।भगवान हम सब का भला करें । ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


पहला अध्याय
धृतराष्ट्र बोले:
 धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
 मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय  ॥१-१॥
हे संजय, धर्मक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुये मेरे और पाण्डव के पुत्रों ने क्या किया ।
संजय बोले:
 दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
 आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्  ॥१-२॥
हे राजन, पाण्डवों की सेना व्यवस्था देख कर दुर्योधन ने अपने आचार्य के पास जा कर उनसे कहा ।
 पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
 व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥१-३॥
हे आचार्य, आप के तेजस्वी शिष्य द्रुपदपुत्र द्वारा व्यवस्थित की इस विशाल पाण्डू सेना को देखिये ।
 अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
 युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥१-४॥
 धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
 पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥१-५॥
 युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
 सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः  ॥१-६॥
इसमें भीम और अर्जुन के ही समान बहुत से महान शूरवीर योधा हैं जैसे युयुधान, विराट और महारथी द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज तथा नरश्रेष्ट शैब्य । विक्रान्त युधामन्यु, वीर्यवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र (अभिमन्यु), और द्रोपदी के पुत्र - सभी महारथी हैं ।

 अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
 नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते  ॥१-७॥
हे द्विजोत्तम, हमारी ओर भी जो विशिष्ट योद्धा हैं उन्हें आप को बताता हूँ । हमारी सैन्य के जो प्रमुख नायक हैं उन के नाम मैं आप को बताता हूँ ।
 भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः ।
 अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च  ॥१-८॥
आप स्वयं, भीष्म पितामह, कर्ण, कृप, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सौमदत्त (सोमदत्त के पुत्र) - यह सभी प्रमुख योधा हैं ।
 अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
 नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः  ॥१-९॥
हमारे पक्ष में युद्ध में कुशल, तरह तरह के शस्त्रों में माहिर और भी अनेकों योद्धा हैं जो मेरे लिये अपना जीवन तक त्यागने को त्यार हैं ।
 अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
 पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्  ॥१-१०॥
भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी सेना का बल पर्याप्त नहीं है, परन्तु भीम द्वारा रक्षित पाण्डवों की सेना बल पूर्ण है ।
 अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
 भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि  ॥१-११॥
इसलिये सब लोग जिन जिन स्थानों पर नियुक्त हों वहां से सभी हर ओर से भीष्म पितामह की रक्षा करें ।
 तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
 सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्  ॥१-१२॥
तब कुरुवृद्ध प्रतापवान भीष्म पितामह ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च स्वर में सिंहनाद किया और शंख बजाना आरम्भ किया ।
 ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
 सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्  ॥१-१३॥
तब अनेक शंख, नगारे, ढोल, शृंगी आदि बजने लगे जिनसे घोर नाद उत्पन्न हुआ ।
 ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
 माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः  ॥१-१४॥
तब श्वेत अश्वों से वहित भव्य रथ में विराजमान भगवान माधव और पाण्डव पुत्र अर्जुन नें भी अपने अपने शंख बजाये ।
 पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
 पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः  ॥१-१५॥
भगवान हृषिकेश नें पाञ्चजन्य नामक अपना शंख बजाया और धनंजय (अर्जुन) ने देवदत्त नामक शंख बजाया । तथा भीम कर्मा भीम नें अपना पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया ।
 अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
 नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ  ॥१-१६॥
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर नें अपना अनन्त विजय नामक शंख, नकुल नें सुघोष और सहदेव नें अपना मणिपुष्पक नामक शंख बजाये ।
 काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
 धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः  ॥१-१७॥
 द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
 सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्  ॥१-१८॥
धनुधर काशिराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट तथा अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रोपदी के पुत्र तथा अन्य सभी राजाओं नें तथा महाबाहु सौभद्र (अभिमन्यु) नें - सभी नें अपने अपने शंख बजाये ।

 स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
 नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्  ॥१-१९॥
शंखों की उस महाध्वनि से आकाश और पृथिवि गूँजने लगीं तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय भिन्न गये ।
 अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।
 प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः  ॥१-२०॥
 हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
तब धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यवस्थित देख, कपिध्वज (जिनके ध्वज पर हनुमान जी विराजमान थे) श्री अर्जुन नें शस्त्र उठाकर भगवान हृषिकेश से यह वाक्य कहे ।
अर्जुन बोले:
 सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत  ॥१-२१॥
 यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्‌धुकामानवस्थितान् ।
 कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे  ॥१-२२॥
हे अच्युत, मेरा रथ दोनो सेनाओं के मध्य में स्थापित कर दीजिये ताकी मैं युद्ध की इच्छा रखने वाले इन योद्धाओं का निरीक्षण कर सकूं जिन के साथ मुझे युद्ध करना है ।

 योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
 धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः  ॥१-२३॥
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय चाहने वाले राजाओं को जो यहाँ युद्ध के लिये एकत्रित हुये हैं मैं देखूँ लूं ।
संजय बोले:
 एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
 सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्  ॥१-२४॥
हे भारत (धृतराष्ट्र), गुडाकेश के इन वचनों पर भगवान हृषिकेश नें उस उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में स्थापित कर दिया ।
 भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
 उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति  ॥१-२५॥
रथ को भीष्म पितामह, द्रोण तथा अन्य सभी प्रमुख राजाओं के सामने (उन दोनो सेनाओं के बीच में) स्थापित कर, कृष्ण भगवान नें अर्जुन से कहा की हे पार्थ इन कुरुवंशी राजाओं को देखो ।
 तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् ।
 आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा  ॥१-२६॥
 श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
 तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्  ॥१-२७॥
वहां पार्थ नें उस सेना में अपने पिता के भाईयों, पितामहों (दादा), आचार्यों, मामों, भाईयों, पुत्रों, मित्रों, पौत्रों, श्वशुरों (ससुर), संबन्धीयों को दोनो तरफ की सेनोओं में देखा ।

 कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
इस प्रखार अपने सगे संबन्धियों और मित्रों को युद्ध में उपस्थित देख अर्जुन का मन करुणा पूर्ण हो उठा और उसने विषाद पूर्वक कृष्ण भगवान से यह कहा ।
अर्जुन बोले:
 दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्  ॥१-२८॥
हे कृष्ण, मैं अपने लोगों को युद्ध के लिये तत्पर यहाँ खडा देख रहा हूँ ।
 सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
 वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते  ॥१-२९॥
इन्हें देख कर मेरे अंग ठण्डे पड रहे है, और मेरा मुख सूख रहा है, और मेरा शरीर काँपने लगा है ।
 गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
 न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः  ॥१-३०॥
मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष गिरने को है, और मेरी सारी त्वचा मानो आग में जल उठी है । मैं अवस्थित रहने में अशक्त हो गया हूँ, मेरा मन भ्रमित हो रहा है ।
 निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
 न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे  ॥१-३१॥
हे केशव, जो निमित्त है उसे में भी मुझे विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि हे केशव, मुझे अपने ही स्वजनों को मारने में किसी भी प्रकार का कल्याण दिखाई नहीं देता ।
 न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
 किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा  ॥१-३२॥
हे कृष्ण, मुझे विजय, या राज्य और सुखों की इच्छा नहीं है । हे गोविंद, (अपने प्रिय जनों की हत्या कर) हमें राज्य से, या भोगों से, यहाँ तक की जीवन से भी क्या लाभ है ।
 येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
 त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च  ॥१-३३॥
जिन के लिये ही हम राज्य, भोग तथा सुख और धन की कामना करें, वे ही इस युद्ध में अपने प्राणों की बलि चढने को त्यार यहाँ अवस्थित हैं ।
 आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
 मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनस्तथा  ॥१-३४॥
गुरुजन, पिता जन, पुत्र, तथा पितामहा, मातुल, ससुर, पौत्र, साले आदि सभी संबन्धि यहाँ प्रस्तुत हैं ।
 एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
 अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते  ॥१-३५॥
हे मधुसूदन । इन्हें हम त्रैलोक्य के राज के लिये भी नहीं मारना चाहेंगें, फिर इस धरती के लिये तो बात ही क्या है, चाहे ये हमें मार भी दें ।
 निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
 पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः  ॥१-३६॥
धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मार कर हमें भला क्या प्रसन्नता प्राप्त होगी हे जनार्दन । इन आततायिनों को मार कर हमें पाप ही प्राप्त होगा ।
 तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
 स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव  ॥१-३७॥
इसलिये धृतराष्ट्र के पुत्रो तथा अपने अन्य संबन्धियों को मारना हमारे लिये उचित नहीं है । हे माधव, अपने ही स्वजनों को मार कर हमें किस प्रकार सुख प्राप्त हो सकता है ।
 यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
 कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्  ॥१-३८॥
यद्यपि ये लोग, लोभ के कारण जिनकी बुद्धि हरी जा चुकी है, अपने कुल के ही क्षय में और अपने मित्रों के साथ द्रोह करने में कोई दोष नहीं देख पा रहे ।
 कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
 कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन  ॥१-३९॥
परन्तु हे जनार्दन, हम लोग तो कुल का क्षय करने में दोष देख सकते हैं, हमें इस पाप से निवृत्त क्यों नहीं होना चाहिये (अर्थात इस पाप करने से टलना चाहिये) ।
 कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
 धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत  ॥१-४०॥
कुल के क्षय हो जाने पर कुल के सनातन (सदियों से चल रहे) कुलधर्म भी नष्ट हो जाते हैं । और कुल के धर्म नष्ट हो जाने पर सभी प्रकार के अधर्म बढने लगते हैं ।
 अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
 स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः  ॥१-४१॥
अधर्म फैल जाने पर, हे कृष्ण, कुल की स्त्रियाँ भी दूषित हो जाती हैं । और हे वार्ष्णेय, स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण धर्म नष्ट हो जाता है ।
 संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
 पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः  ॥१-४२॥
कुल के कुलघाती वर्णसंकर (वर्ण धर्म के न पालन से) नरक में गिरते हैं । इन के पितृ जन भी पिण्ड और जल की परम्पराओं के नष्ट हो जाने से (श्राद्ध आदि का पालन न करने से) अधोगति को प्राप्त होते हैं (उनका उद्धार नहीं होता) ।
 दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
 उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः  ॥१-४३॥
इस प्रकार वर्ण भ्रष्ट कुलघातियों के दोषों से उन के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं ।
 उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
 नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम  ॥१-४४॥
हे जनार्दन, कुलधर्म भ्रष्ट हुये मनुष्यों को अनिश्चित समय तक नरक में वास करना पडता है, ऐसा हमने सुना है ।
 अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
 यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः  ॥१-४५॥
अहो ! हम इस महापाप को करने के लिये आतुर हो यहाँ खडे हैं । राज्य और सुख के लोभ में अपने ही स्वजनों को मारने के लिये व्याकुल हैं ।
 यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
 धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्  ॥१-४६॥
यदि मेरे विरोध रहित रहते हुये, शस्त्र उठाये बिना भी यह धृतराष्ट्र के पुत्र हाथों में शस्त्र पकडे मुझे इस युद्ध भूमि में मार डालें, तो वह मेरे लिये (युद्ध करने की जगह) ज्यादा अच्छा होगा ।
संजय बोले
 एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
 विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः  ॥१-४७॥
यह कह कर शोक से उद्विग्न हुये मन से अर्जुन अपने धनुष बाण छोड कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये ।

 


।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाय ।।


दूसरा अध्याय
संजय बोले
 तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
 विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥२- १॥
तब चिंता और विशाद में डूबे अर्जुन को, जिसकी आँखों में आँसू भर आऐ थे, मधुसूदन ने यह वाक्य कहे ॥

श्रीभगवान बोले
 कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
 अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२- २॥
हे अर्जुन, यह तुम किन विचारों में डूब रहे हो जो इस समय गलत हैं और स्वर्ग और कीर्ती के बाधक हैं ॥

 क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
 क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥२- ३॥
तुम्हारे लिये इस दुर्बलता का साथ लेना ठीक नहीं । इस नीच भाव, हृदय की दुर्बलता, का त्याग करके उठो हे परन्तप ॥

अर्जुन बोले
 कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
 इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥२- ४॥
हे अरिसूदन, मैं किस प्रकार भीष्म, संख्य और द्रोण से युध करुँगा । वे तो मेरी पूजा के हकदार हैं ॥

 गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
 हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥२- ५॥
इन महानुभाव गुरुयों की हत्या से तो भीख माँग कर जीना ही बेहतर होगा । इन को मारकर जो भोग हमें प्राप्त होंगे वे सब तो खून से रँगे होंगे ॥

 न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
 यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥२- ६॥
हम तो यह भी नहीं जानते की हम जीतेंगे याँ नहीं, और यह भी नहीं की दोनो में से बेहतर क्या है, उनका जीतना या हमारा, क्योंकि जिन्हें मार कर हम जीना भी नहीं चाहेंगे वही धार्तराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़ें हैं ॥

 कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
 यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥२- ७॥
इस दुख चिंता ने मेरे स्वभाव को छीन लिया है और मेरा मन शंका से घिरकर सही धर्म को नहीं हेख पा रहा है । मैं आप से पूछता हूँ, जो मेरे लिये निष्चित प्रकार से अच्छा हो वही मुझे बताइये ॥ मैं आप का शिष्य हूँ और आप की ही शरण लेता हूँ ॥

 न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
 अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥२- ८॥
मुझे नहीं दिखता कैसे इस दुखः का, जो मेरी इन्द्रीयों को सुखा रहा है, अन्त हो सकता है, भले ही मुझे इस भूमी पर अति समृद्ध और शत्रुहीन राज्य यां देवतायों का भी राज्यपद क्यों न मिल जाऐ ॥
संजय बोले
 एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
 न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥२- ९॥
हृषिकेश, श्री गोविन्द जी को परन्तप अर्जुन, गुडाकेश यह कह कर चुप हो गये कि मैं युध नहीं करुँगा ॥
 तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
 सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥२- १०॥
हे भारत, दो सेनाओं के बीच में शोक और दुख से घिरे अर्जुन को प्रसन्नता से हृषीकेश ने यह बोला ॥

श्रीभगवान बोले
 अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
 गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥२- ११॥
जिन के लिये शोक नहीं करना चाहिये उनके लिये तुम शोक कर रहे हो और बोल तुम बुद्धीमानों की तरहँ रहे हो । ज्ञानी लोग न उन के लिये शोक करते है जो चले गऐ और न उन के लिये जो हैं ॥

 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
 न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥२- १२॥
न तुम्हारा न मेरा और न ही यह राजा जो दिख रहे हैं इनका कभी नाश होता है ॥ और यह भी नहीं की हम भविष्य मे नहीं रहेंगे ॥
 देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
 तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥२- १३॥
आत्मा जैसे देह के बाल, युवा यां बूढे होने पर भी वैसी ही रहती है उसी प्रकार देह का अन्त होने पर भी वैसी ही रहती है ॥ बुद्धीमान लोग इस पर व्यथित नहीं होते ॥

 मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
 आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥२- १४॥
हे कौन्तेय, सरदी गरमी सुखः दुखः यह सब तो केवल स्पर्श मात्र हैं । आते जाते रहते हैं, हमेशा नहीं रहते, इन्हें सहन करो, हे भारत ॥

 यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
 समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥२- १५॥
हे पुरुषर्षभ, वह धीर पुरुष जो इनसे व्यथित नहीं होता, जो दुख और सुख में एक सा रहता है, वह अमरता के लायक हो जाता है ॥

 नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
 उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥२- १६॥
न असत कभी रहता है और सत न रहे ऐसा हो नहीं सकता । इन होनो की ही असलीयत वह देख चुके हैं जो सार को देखते हैं ॥

 अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
 विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥२- १७॥
तुम यह जानो कि उसका नाश नहीं किया जा सकता जिसमे यह सब कुछ स्थित है । क्योंकि जो अमर है उसका नाश करना किसी के बस में नहीं ॥

 अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
 अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥२- १८॥
यह देह तो मरणशील है, लेकिन शरीर में बैठने वाला अन्तहीन कहा जाता है । इस आत्मा का न तो अन्त है और न ही इसका कोई मेल है, इसलिऐ युद्ध करो हे भारत ॥

 य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
 उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥२- १९॥
जो इसे मारने वाला जानता है या फिर जो इसे मरा मानता है, वह दोनों ही नहीं जानते । यह न मारती है और न मरती है ॥

 न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
 अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२- २०॥
यह न कभी पैदा होती है और न कभी मरती है । यह तो अजन्मी, अन्तहीन, शाश्वत और अमर है । सदा से है, कब से है । शरीर के मरने पर भी इसका अन्त नहीं होता ॥

 वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
 कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥२- २१॥
हे पार्थ, जो पुरुष इसे अविनाशी, अमर और जन्महीन, विकारहीन जानता है, वह किसी को कैसे मार सकता है यां खुद भी कैसे मर सकता है ॥

 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
 तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥२- २२॥
जैसे कोई व्यक्ती पुराने कपड़े उतार कर नऐ कपड़े पहनता है, वैसे ही शरीर धारण की हुई आत्मा पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर प्राप्त करती है ॥

 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
 न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥२- २३॥
न शस्त्र इसे काट सकते हैं और न ही आग इसे जला सकती है । न पानी इसे भिगो सकता है और न ही हवा इसे सुखा सकती है ॥

 अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
 नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२- २४॥
यह अछेद्य है, जलाई नहीं जा सकती, भिगोई नहीं जा सकती, सुखाई नहीं जा सकती । यह हमेशा रहने वाली है, हर जगह है, स्थिर है, अन्तहीन है ॥

 अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
 तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥२- २५॥
यह दिखती नहीं है, न इसे समझा जा सकता है । यह बदलाव से रहित है, ऐसा कहा जाता है । इसलिये इसे ऐसा जान कर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ ॥

 अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
 तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥२- २६॥
हे महाबाहो, अगर तुम इसे बार बार जन्म लेती और बार बार मरती भी मानो, तब भी, तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ ॥

 जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
 तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२- २७॥
क्योंकि जिसने जन्म लिया है, उसका मरना निष्चित है । मरने वाले का जन्म भी तय है । जिसके बारे में कुछ किया नहीं जा सकता उसके बारे तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ ॥

 अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
 अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥२- २८॥
हे भारत, जीव शुरू में अव्यक्त, मध्य में व्यक्त और मृत्यु के बाद फिर अव्यक्त हो जाते हैं । इस में दुखी होने की क्या बात है ॥


 आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
 आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥२- २९॥
कोई इसे आश्चर्य से देखता है, कोई इसके बारे में आश्चर्य से बताता है, और कोई इसके बारे में आश्चर्यचित होकर सुनता है, लेकिन सुनने के बाद भी कोई इसे नहीं जानता ॥


 देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
 तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२- ३०॥
हे भारत, हर देह में जो आत्मा है वह नित्य है, उसका वध नहीं किया जा सकता । इसलिये किसी भी जीव के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये ॥

 स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
 धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥२- ३१॥
अपने खुद के धर्म से तुम्हें हिलना नहीं चाहिये क्योंकि न्याय के लिये किये गये युद्ध से बढकर ऐक क्षत्रीय के लिये कुछ नहीं है ॥


 यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
 सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥२- ३२॥
हे पार्थ, सुखी हैं वे क्षत्रिय जिन्हें ऐसा युद्ध मिलता है जो स्वयंम ही आया हो और स्वर्ग का खुला दरवाजा हो ॥


 अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
 ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥२- ३३॥
लेकिन यदि तुम यह न्याय युद्ध नहीं करोगे, को अपने धर्म और यश की हानि करोगे और पाप प्राप्त करोगे ॥


 अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
 सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥२- ३४॥
तुम्हारे अन्तहीन अपयश की लोग बातें करेंगे । ऐसी अकीर्ती एक प्रतीष्ठित मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ कर है ॥


 भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
 येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥२- ३५॥
महारथी योद्धा तुम्हें युद्ध के भय से भागा समझेंगें । जिनके मत में तुम ऊँचे हो, उन्हीं की नजरों में गिर जाओगे ॥


 अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
 निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥२- ३६॥
अहित की कामना से बहुत ना बोलने लायक वाक्यों से तुम्हारे विपक्षी तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करेंगें । इस से बढकर दुखदायी क्या होगा ॥


 हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
 तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥२- ३७॥
यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि जीतते हो तो इस धरती को भोगोगे । इसलिये उठो, हे कौन्तेय, और निश्चय करके युद्ध करो ॥


 सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
 ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥२- ३८॥
सुख दुख को, लाभ हानि को, जय और हार को ऐक सा देखते हुऐ ही युद्ध करो । ऍसा करते हुऐ तुम्हें पाप नहीं मिलेगा ॥


 एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
 बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥२- ३९॥
यह मैने तुम्हें साँख्य योग की दृष्टी से बताया । अब तुम कर्म योग की दृष्टी से सुनो । इस बुद्धी को धारण करके तुम कर्म के बन्धन से छुटकारा पा लोगे ॥


 नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
 स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥२- ४०॥
न इसमें की गई मेहनत व्यर्थ जाती है और न ही इसमें कोई नुकसान होता है । इस धर्म का जरा सा पालन करना भी महान डर से बचाता है ॥


 व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
 बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥२- ४१॥
इस धर्म का पालन करती बुद्धी ऐक ही जगह स्थिर रहती है । लेकिन जिनकी बुद्धी इस धर्म में नहीं है वह अन्तहीन दिशाओं में बिखरी रहती है ॥


 यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
 वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥२- ४२॥
 कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
 क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥२- ४३॥
हे पार्थ, जो घुमाई हुईं फूलों जैसीं बातें करते है, वेदों का भाषण करते हैं और जिनके लिये उससे बढकर और कुछ नहीं है, जिनकी आत्मा इच्छायों से जकड़ी हुई है और स्वर्ग जिनका मकस्द है वह ऍसे कर्म करते हैं जिनका फल दूसरा जनम है । तरह तरह के कर्मों में फसे हुऐ और भोग ऍश्वर्य की इच्छा करते हऐ वे ऍसे लोग ही ऐसे भाषणों की तरफ खिचते हैं ॥

 भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
 व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥२- ४४॥
भोग ऍश्वर्य से जुड़े जिनकी बुद्धी हरी जा चुकी है, ऍसी बुद्धी कर्म योग मे स्थिरता ग्रहण नहीं करती ॥


 त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
 निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥२- ४५॥
वेदों में तीन गुणो का व्यखान है । तुम इन तीनो गुणों का त्याग करो, हे अर्जुन । द्वन्द्वता और भेदों से मुक्त हो । सत में खुद को स्थिर करो । लाभ और रक्षा की चिंता छोड़ो और खुद में स्थित हो ॥


 यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके ।
 तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥२- ४६॥
हर जगह पानी होने पर जितना सा काम ऐक कूँऐ का होता है, उतना ही काम ज्ञानमंद को सभी वेदों से है ॥ मतलब यह की उस बुद्धिमान पुरुष के लिये जो सत्य को जान चुका है, वेदों में बताये भोग प्राप्ती के कर्मों से कोई मतलब नहीं है ॥


 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
 मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥२- ४७॥
कर्म करना तो तुम्हारा अधिकार है लेकिन फल की इच्छा से कभी नहीं । कर्म को फल के लिये मत करो और न ही काम न करने से जुड़ो ॥


 योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
 सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥२- ४८॥
योग में स्थित रह कर कर्म करो, हे धनंजय, उससे बिना जुड़े हुऐ । काम सफल हो न हो, दोनो में ऐक से रहो । इसी समता को योग कहते हैं ॥


 दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
 बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥२- ४९॥
इस बुद्धी योग के द्वारा किया काम तो बहुत ऊँचा है । इस बुद्धि की शरण लो । काम को फल कि इच्छा से करने वाले तो कंजूस होते हैं ॥


 बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
 तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥२- ५०॥
इस बुद्धि से युक्त होकर तुम अच्छे और बुरे कर्म दोनो से छुटकारा पा लोगे । इसलिये योग को धारण करो । यह योग ही काम करने में असली कुशलता है ॥


 कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
 जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥२- ५१॥
इस बुद्धि से युक्त होकर मुनि लोग किये हुऐ काम के नतीजों को त्याग देते हैं । इस प्रकार जन्म बन्धन से मुक्त होकर वे दुख से परे स्थान प्राप्त करते हैं ॥


 यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
 तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥२- ५२॥
जब तुम्हारी बुद्धि अन्धकार से ऊपर उठ जाऐगी तब क्या सुन चुके हो और क्या सुनने वाला है उसमे तुमहें कोई मतलब नहीं रहेगा ॥


 श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
 समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥२- ५३॥
ऐक दूसरे को काटते उपदेश और श्रुतियां सुन सुन कर जब तुम अडिग स्थिर रहोगे, तब तुम्हारी बुद्धी स्थिर हो जायेगी और तुम योग को प्राप्त कर लोगे ॥


अर्जुन बोले
 स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
 स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥२- ५४॥
हे केशव, जिसकी बुद्धि ज्ञान में स्थिर हो चुकि है, वह कैसा होता है । ऍसा स्थिरता प्राप्त किया व्यक्ती कैसे बोलता, बैठता, चलता, फिरता है ॥

श्रीभगवान बोले
 प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
 आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥२- ५५॥
हे पार्थ, जब वह अपने मन में स्थित सभी कामनाओं को निकाल देता है, और अपने आप में ही अपनी आत्मा को संतुष्ट रखता है, तब उसे ज्ञान और बुद्धिमता में स्थित कहा जाता है ॥


 दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
 वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥२- ५६॥
जब वह दुखः से विचलित नहीं होता और सुख से उसके मन में कोई उमंगे नहीं उठतीं, इच्छा और तड़प, डर और गुस्से से मुक्त, ऐसे स्थित हुऐ धीर मनुष्य को ही मुनि कहा जाता है ॥


 यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
 नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ५७॥
किसी भी ओर न जुड़ा रह, अच्छा या बुरा कुछ भी पाने पर, जो ना उसकी कामना करता है और न उससे नफरत करता है उसकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है ॥


 यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
 इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ५८॥
जैसे कछुआ अपने सारे अँगों को खुद में समेट लेता है, वैसे ही जिसने अपनी इन्द्रीयाँ को उनके विषयों से निकाल कर खुद में समेट रखा है, वह ज्ञान में स्थित है ॥

 विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
 रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥२- ५९॥
विषयों का त्याग के देने पर उनका स्वाद ही बचता है । परम् को देख लेने पर वह स्वाद भी मन से छूट जाता है ॥


 यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
 इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥२- ६०॥
हे कौन्तेय, सावधानी से संयमता का अभयास करते हुऐ पुरुष के मन को भी उसकी चंचल इन्द्रीयाँ बलपूर्वक छीन लिती हैं ॥


 तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
 वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ६१॥
उन सब को संयम कर मेरा धयान करना चाहिये, क्योंकि जिसकी इन्द्रीयाँ वश में है वही ज्ञान में स्थित है ॥


 ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
 सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥२- ६२॥
चीजों के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उन से लगाव हो जाता है । इससे उसमे इच्छा पौदा होती है और इच्छाओं से गुस्सा पैदा होता है ॥


 क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
 स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥२- ६३॥
गुस्से से दिमाग खराब होता है और उस से यादाश्त पर पड़दा पड़ जाता है । यादाश्त पर पड़दा पड़ जाने से आदमी की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने पर आदमी खुद ही का नाश कर बौठता है ॥


 रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
 आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥२- ६४॥
इन्द्रीयों को राग और द्वेष से मुक्त कर, खुद के वश में कर, जब मनुष्य विषयों को संयम से ग्रहण करता है, तो वह प्रसन्नता और शान्ती प्राप्त करता है ॥


 प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
 प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥२- ६५॥
शान्ती से उसके सारे दुखों का अन्त हो जाता है क्योंकि शान्त चित मनुष्य की बुद्धि जलदि ही स्थिर हो जाती है ॥


 नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
 न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥२- ६६॥
जो संयम से युक्त नहीं है, जिसकी इन्द्रीयाँ वश में नहीं हैं, उसकी बुद्धि भी स्थिर नही हो सकती और न ही उस में शान्ति की भावना हो सकती है । और जिसमे शान्ति की भावना नहीं है वह शान्त कैसे हो सकता है । जो शान्त नहीं है उसे सुख कैसा ॥


 इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ।
 तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥२- ६७॥
मन अगर विचरती हुई इन्द्रीयों के पीछे कहीं भी लग लेता है तो वह बुद्धि को भी अपने साथ वैसे ही खीँच कर ले जाता है जैसे एक नाव को हवा खीच ले जाती है ॥


 तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
 इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥२- ६८॥
इसलिये हे महाबाहो, जिसकी सभी इन्द्रीयाँ अपने विषयों से पूरी तरह हटी हुई हैं, सिमटी हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है ॥


 या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
 यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥२- ६९॥
जो सब के लिये रात है उसमें संयमी जागता है, और जिसमे सब जागते हैं उसे मुनि रात की तरह देखता है ॥


 आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
 तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥२- ७०॥
नदियाँ जैसे समुद्र, जो एकदम भरा, अचल और स्थिर रहता है, में आकर शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार जिस मनुष्य में सभी इच्छाऐं आकर शान्त हो जाती हैं, वह शान्ती प्राप्त करता है । न कि वह जो उनके पीछे भागता है ॥


 विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
 निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥२- ७१॥
सभी कामनाओं का त्याग कर, जो मनुष्य स्पृह रहित रहता है, जो मै और मेरा रूपी अहंकार को भूल विचरता है, वह शान्ती को प्राप्त करता है ॥


 एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
 स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥२- ७२॥
ब्रह्म में स्थित मनुष्य ऍसा होता है, हे पार्थ । इसे प्राप्त करके वो फिर भटकता नहीं । अन्त समय भी इसी स्थिति में स्थित वह ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता है ॥

 


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
तीसरा अध्याय
अर्जुन बोले

 ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
 तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥३- १॥
हे केशव, अगर आप बुद्धि को कर्म से अधिक मानते हैं तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों न्योजित कर रहे हैं ॥

 व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में ।
 तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥३- २॥
मिले हुऐ से वाक्यों से मेरी बुद्धि शंकित हो रही है । इसलिये मुझे वह एक रस्ता बताईये जो निष्चित प्रकार से मेरे लिये अच्छा हो ॥

श्रीभगवान बोले

 लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
 ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३- ३॥
हे नि़ष्पाप, इस लोक में मेरे द्वारा दो प्रकार की निष्ठाऐं पहले बताई गयीं थीं । ज्ञान योग सन्यास से जुड़े लोगों के लिये और कर्म योग उनके लिये जो कर्म योग से जुड़े हैं ॥

 न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
 न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥३- ४॥
कर्म का आरम्भ न करने से मनुष्य नैष्कर्म सिद्धी नहीं प्राप्त कर सकता अतः कर्म योग के अभ्यास में कर्मों का करना जरूरी है । और न ही केवल त्याग कर देने से सिद्धी प्राप्त होती है ॥

 न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
 कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥३- ५॥
कोई भी एक क्षण के लिये भी कर्म किये बिना नहीं बैठ सकता । सब प्रकृति से पैदा हुऐ गुणों से विवश होकर कर्म करते हैं ॥

 कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
 इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥३- ६॥
कर्म कि इन्द्रीयों को तो रोककर, जो मन ही मन विषयों के बारे में सोचता है उसे मिथ्या अतः ढोंग आचारी कहा जाता है ॥

 यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
 कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥३- ७॥
हे अर्जुन, जो अपनी इन्द्रीयों और मन को नियमित कर कर्म का आरम्भ करते हैं, कर्म योग का आसरा लेते हुऐ वह कहीं बेहतर हैं ॥

 नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
 शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥३- ८॥
जो तुम्हारा काम है उसे तुम करो क्योंकि कर्म से ही अकर्म पैदा होता है, मतलब कर्म योग द्वारा कर्म करने से ही कर्मों से छुटकारा मिलता है । कर्म किये बिना तो यह शरीर की यात्रा भी संभव नहीं हो सकती । शरीर है तो कर्म तो करना ही पड़ेगा ॥

 यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
 तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥३- ९॥
केवल यज्ञा समझ कर तुम कर्म करो हे कौन्तेय वरना इस लोक में कर्म बन्धन का कारण बनता है । उसी के लिये कर्म करते हुऐ तुम संग से मुक्त रह कर समता से रहो ॥

 सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।  
 अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥३- १०॥
यज्ञ के साथ ही बहुत पहले प्रजापति ने प्रजा की सृष्टि की और कहा की इसी प्रकार कर्म यज्ञ करने से तुम बढोगे और इसी से तुम्हारे मन की कामनाऐं पूरी होंगी ॥

 देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
 परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥३- ११॥
तुम देवताओ को प्रसन्न करो और देवता तुम्हें प्रसन्न करेंगे, इस प्रकार परस्पर एक दूसरे का खयाल रखते तुम परम श्रेय को प्राप्त करोगे ॥

 इष्टान्भोगान्हि वह देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
 तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥३- १२॥
यज्ञों से संतुष्ट हुऐ देवता तुम्हें मन पसंद भोग प्रदान करेंगे । जो उनके दिये हुऐ भोगों को उन्हें दिये बिना खुद ही भोगता है वह चोर है ॥

 यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
 भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात् ॥३- १३॥
जो यज्ञ से निकले फल का आनंद लेते हैं वह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं लेकिन जो पापी खुद पचाने को लिये ही पकाते हैं वे पाप के भागीदार बनते हैं ॥

 अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
 यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥३- १४॥
जीव अनाज से होते हैं । अनाज बिरिश से होता है । और बिरिश यज्ञ से होती है । यज्ञ कर्म से होता है ॥ (यहाँ प्राकृति के चलने को यज्ञ कहा गया है)

 कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
 तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३- १५॥
कर्म ब्रह्म से सम्भव होता है और ब्रह्म अक्षर से होता है । इसलिये हर ओर स्थित ब्रह्म सदा ही यज्ञ में स्थापित है ।

 एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
 अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥३- १६॥
इस तरह चल रहे इस चक्र में जो हिस्सा नहीं लेता, सहायक नहीं होता, अपनी ईन्द्रीयों में डूबा हुआ वह पाप जीवन जीने वाला, व्यर्थ ही, हे पार्थ, जीता है ॥

 यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
 आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥३- १७॥
लेकिन जो मानव खुद ही में स्थित है, अपने आप में ही तृप्त है, अपने आप में ही सन्तुष्ट है, उस के लिये कोई भी कार्य नहीं बचता ॥

 नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
 न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥३- १८॥
न उसे कभी किसी काम के होने से कोई मतलब है और न ही न होने से । और न ही वह किसी भी जीव पर किसी भी मतलब के लिये आश्रय लेता है ॥

 तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
 असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥३- १९॥
इसलिये कर्म से जुड़े बिना सदा अपना कर्म करते हुऐ समता का अचरण करो ॥ बिना जुड़े कर्म का आचरण करने से पुरुष परम को प्राप्त कर लेता है ॥

 कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
 लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥३- २०॥
कर्म के द्वारा ही जनक आदि सिद्धी में स्थापित हुऐ थे । इस लोक समूह, इस संसार के भले के लिये तुम्हें भी कर्म करना चाहिऐ ॥

 यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
 स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३- २१॥
क्योंकि जो ऐक श्रेष्ठ पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वही करते हैं । वह जो करता है उसी को प्रमाण मान कर अन्य लोग भी पीछे वही करते हैं ॥

 न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
 नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥३- २२॥
हे पार्थ, तीनो लोकों में मेरे लिये कुछ भी करना वाला नहीं है । और न ही कुछ पाने वाला है लेकिन फिर भी मैं कर्म में लगता हूँ ॥

 यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
 मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥३- २३॥
हे पार्थ, अगर मैं कर्म में नहीं लगूँ तो सभी मनुष्य भी मेरे पीछे वही करने लगेंगे ॥

 उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
 संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥३- २४॥
अगर मै कर्म न करूँ तो इन लोकों में तबाही मच जायेगी और मैं इस प्रजा का नाशकर्ता हो जाऊँगा ॥

 सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
 कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥३- २५॥
जैसे अज्ञानी लोग कर्मों से जुड़ कर कर्म करते हैं वैसे ही ज्ञानमन्दों को चाहिये कि कर्म से बिना जुड़े कर्म करें । इस संसार चक्र के लाभ के लिये ही कर्म करें ।

 न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
 जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥३- २६॥
जो लोग कर्मो के फलों से जुड़े है, कर्मों से जुड़े हैं ज्ञानमंद उनकी बुद्धि को न छेदें । सभी कामों को कर्मयोग बुद्धि से युक्त होकर समता का आचरण करते हुऐ करें ॥

 प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
 अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥३- २७॥
सभी कर्म प्रकृति में स्थित गुणों द्वारा ही किये जाते हैं । लेकिन अहंकार से विमूढ हुआ मनुष्य स्वय्म को ही कर्ता समझता है ॥

 तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
 गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥३- २८॥
हे महाबाहो, गुणों और कर्मों के विभागों को सार तक जानने वाला, यह मान कर की गुण ही गुणों से वर्त रहे हैं, जुड़ता नहीं ॥

 प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
 तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥३- २९॥
प्रकृति के गुणों से मूर्ख हुऐ, गुणों के कारण हुऐ उन कर्मों से जुड़े रहते है । सब जानने वाले को चाहिऐ कि वह अधूरे ज्ञान वालों को विचलित न करे ॥

 मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
 निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥३- ३०॥
सभी कर्मों को मेरे हवाले कर, अध्यात्म में मन को लगाओ । आशाओं से मुक्त होकर, "मै" को भूल कर, बुखार मुक्त होकर युद्ध करो ॥

 यह में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
 श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३- ३१॥
मेरे इस मत को, जो मानव श्रद्धा और बिना दोष निकाले सदा धारण करता है और मानता है, वह कर्मों से मु्क्ती प्राप्त करता है ॥

 यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम् ।
 सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥३- ३२॥
जो इसमें दोष निकाल कर मेरे इस मत का पालन नहीं करता, उसे तुम सारे ज्ञान से वंचित, मूर्ख हुआ और नष्ट बुद्धी जानो ॥

 सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
 प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३- ३३॥
सब वैसा ही करते है जैसी उनका स्वभाव होता है, चाहे वह ज्ञानवान भी हों । अपने स्वभाव से ही सभी प्राणी होते हैं फिर सयंम से क्या होगा ॥

 इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
 तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३- ३४॥
इन्द्रियों के लिये उन के विषयों में खींच और घृणा होती है । इन दोनो के वश में मत आओ क्योंकि यह रस्ते के रुकावट हैं ॥

 श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
 स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३- ३५॥
अपना काम ही अच्छा है, चाहे उसमे कमियाँ भी हों, किसी और के अच्छी तरह किये काम से । अपने काम में मृत्यु भी होना अच्छा है, किसी और के काम से चाहे उसमे डर न हो ॥
अर्जुन बोले
 अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
 अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥३- ३६॥
लेकिन, हे वार्ष्णेय, किसके जोर में दबकर पुरुष पाप करता है, अपनी मरजी के बिना भी, जैसे कि बल से उससे पाप करवाया जा रहा हो ॥

श्रीभगवान बोले
 काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
 महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥३- ३७॥
इच्छा और गुस्सा जो रजो गुण से होते हैं, महा विनाशी, महापापी इसे तुम यहाँ दुश्मन जानो ॥

 धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
 यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३- ३८॥
जैसे आग को धूआँ ढक लेता है, शीशे को मिट्टी ढक लेती है, शिशू को गर्भ ढका लेता है, उसी तरह वह इनसे ढका रहता है ॥
(क्या ढका रहता है, अगले श्लोक में है )

 आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
 कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥३- ३९॥
यह ज्ञान को ढकने वाला ज्ञानमंद पुरुष का सदा वैरी है, इच्छा का रूप लिऐ, हे कौन्तेय, जिसे पूरा करना संभव नहीं ॥

 इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
 एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥३- ४०॥
इन्द्रीयाँ मन और बुद्धि इसके स्थान कहे जाते हैं । यह देहधिरियों को मूर्ख बना उनके ज्ञान को ढक लेती है ॥

 तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
 पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥३- ४१॥
इसलिये, हे भरतर्षभ, सबसे पहले तुम अपनी इन्द्रीयों को नियमित करो और इस पापमयी, ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाली इच्छा का त्याग करो ॥

 इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
 मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥३- ४२॥
इन्द्रीयों को उत्तम कहा जाता है, और इन्द्रीयों से उत्तम मन है, मन से ऊपर बुद्धि है और बुद्धि से ऊपर आत्मा है ॥

 एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
 जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥३- ४३॥

इस प्रकार स्वयंम को बुद्धि से ऊपर जान कर, स्वयंम को स्वयंम के वश में कर, हे महाबाहो, इस इच्छा रूपी शत्रु, पर जीत प्राप्त कर लो, जिसे जीतना कठिन है ॥

 


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

चौथा अध्याय
श्रीभगवानुवाच
 इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
 विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥४-१॥
इस अव्यय योगा को मैने विवस्वान को बताया । विवस्वान ने इसे मनु को कहा । और मनु ने इसे इक्ष्वाक को बताया ॥

 एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
 स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥४-२॥
हे परन्तप, इस तरह यह योगा परम्परा से राजर्षीयों को प्राप्त होती रही । लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, बहुत समय बाद, इसका ज्ञान नष्ट हो गया ॥

 स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
 भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥४-३॥
वही पुरातन योगा को मैने आज फिर तुम्हे बताया है । तुम मेरे भक्त हो, मेरे मित्र हो और यह योगा एक उत्तम रहस्य है ॥

अर्जुन उवाच
 अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
 कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥४-४॥
आपका जन्म तो अभी हुआ है, विवस्वान तो बहुत पहले हुऐ हैं । कैसे मैं यह समझूँ कि आप ने इसे शुरू मे बताया था ॥
श्रीभगवानुवाच
 बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
 तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥४-५॥
अर्जुन, मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं और तुम्हारे भी । उन सब को मैं तो जानता हूँ पर तुम नहीं जानते, हे परन्तप ॥
 अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
 प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥४-६॥
यद्यपि मैं अजन्मा और अव्यय, सभी जीवों का महेश्वर हूँ, तद्यपि मैं अपनी प्रकृति को अपने वश में कर अपनी माया से ही संभव होता हूँ ॥
 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
 अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥
हे भारत, जब जब धर्म का लोप होता है, और अधर्म बढता है, तब तब मैं सवयंम सवयं की रचना करता हूँ ॥
 परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
 धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥
साधू पुरुषों के कल्याण के लिये, और दुष्कर्मियों के विनाश के लिये, तथा धर्म कि स्थापना के लिये मैं युगों योगों मे जन्म लेता हूँ ॥
 जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
 त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥४-९॥
मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं, इसे जो सारवत जानता है, देह को त्यागने के बाद उसका पुनर्जन्म नहीं होता, बल्कि वो मेरे पास आता है, हे अर्जुन ॥

 वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
 बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥४-१०॥
लगाव, भय और क्रोध से मुक्त, मुझ में मन लगाये हुऐ, मेरा ही आश्रय लिये लोग, ज्ञान और तप से पवित्र हो, मेरे पास पहुँचते हैं ॥

 ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
 मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥४-११॥
जो मेरे पास जैसे आता है, मैं उसे वैसे ही मिलता हूँ । हे पार्थ, सभी मनुष्य हर प्रकार से मेरा ही अनुगमन करते हैं ॥
 काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
 क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥४-१२॥
जो किये काम मे सफलता चाहते हैं वो देवताओ का पूजन करते हैं । इस मनुष्य लोक में कर्मों से सफलता शीघ्र ही मिलती है ॥
 चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
 तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥४-१३॥
ये जारों वर्ण मेरे द्वारा ही रचे गये थे, गुणों और कर्मों के विभागों के आधार पर । इन कर्मों का कर्ता होते हुऐ भी परिवर्तन रहित मुझ को तुम अकर्ता ही जानो ॥
 न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
 इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥४-१४॥
न मुझे कर्म रंगते हैं और न ही मुझ में कर्मों के फलों के लिये कोई इच्छा है । जो मुझे इस प्रकार जानता है, उसे कर्म नहीं बाँधते ॥
 एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
 कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥४-१५॥
पहले भी यह जान कर ही मोक्ष की इच्छा रखने वाले कर्म करते थे । इसलिये तुम भी कर्म करो, जैसे पूर्वों ने पुरातन समय में किये ॥

 किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
 तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥४-१६॥
कर्म कया है और अकर्म कया है, विद्वान भी इस के बारे में मोहित हैं । तुम्हे मैं कर्म कया है, ये बताता हूँ जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्ति पा लोगे ॥
 कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
 अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥४-१७॥
कर्म को जानना जरूरी है और न करने लायक कर्म को भी । अकर्म को भी जानना जरूरी है, क्योंकि कर्म रहस्यमयी है ॥
 कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
 स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥४-१८॥
कर्म करने मे जो अकर्म देखता है, और कर्म न करने मे भी जो कर्म होता देखता है, वही मनुष्य बुद्धिमान है और इसी बुद्धि से युक्त होकर वो अपने सभी कर्म करता है ॥
 यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
 ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥४-१९॥
जिसके द्वारा आरम्भ किया सब कुछ इच्छा संकल्प से मुक्त होता है, जिसके सभी कर्म ज्ञान रूपी अग्नि में जल कर राख हो गये हैं, उसे ज्ञानमंद लोग बुद्धिमान कहते हैं ॥
 त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
 कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥४-२०॥
कर्म के फल से लगाव त्याग कर, सदा तृप्त और आश्रयहीन रहने वाला, कर्म मे लगा हुआ होकर भी, कभी कुछ नहीं करता है ॥

 निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
 शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥४-२१॥
मोघ आशाओं से मुक्त, अपने चित और आत्मा को वश में कर, घर सम्पत्ति आदि मिनसिक परिग्रहों को त्याग, जो केवल शरीर से कर्म करता है, वो कर्म करते हुऐ भी पाप नहीं प्राप्त करता ॥

 यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
 समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥४-२२॥
सवयंम ही चल कर आये लाभ से ही सन्तुष्ट, द्विन्द्वता से ऊपर उठा हुआ, और दिमागी जलन से मुक्त, जो सफलता असफलता मे एक सा है, वो कार्य करता हुआ भी नहीं बँधता ॥
 गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
 यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥४-२३॥
संग छोड़ जो मुक्त हो चुका है, जिसका चित ज्ञान में स्थित है, जो केवल यज्ञ के लिये कर्म कर रहा है, उसके संपूर्ण कर्म पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं ॥

 ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
 ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥४-२४॥
ब्रह्म ही अर्पण करने का साधन है, ब्रह्म ही जो अर्पण हो रहा है वो है, ब्रह्म ही वो अग्नि है जिसमे अर्पण किया जा रहा है, और अर्पण करने वाला भी ब्रह्म ही है । इस प्रकार कर्म करते समय जो ब्रह्म मे समाधित हैं, वे ब्रह्म को ही प्राप्त करते हैं ॥

 दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
 ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥४-२५॥
कुछ योगी यज्ञ के द्वारा देवों की पूजा करते हैं । और कुछ ब्रह्म की ही अग्नि मे यज्ञ कि आहुति देते हैं ॥
 श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
 शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥४-२६॥
अन्य सुनने आदि इन्द्रियों की संयम अग्नि मे आहुति देते हैं । और अन्य शब्दादि विषयों कि इन्द्रियों रूपी अग्नि मे आहूति देते हैं ॥
 सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
 आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥४-२७॥
और दूसरे कोई, सभी इन्द्रियों और प्राणों को कर्म मे लगा कर, आत्म संयम द्वारा, ज्ञान से जल रही, योग अग्नि मे अर्पित करते हैं

 द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
 स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥४-२८॥
इस प्रकार कोई धन पदार्थों द्वारा यज्ञ करते हैं, कोई तप द्वारा यज्ञ करते हैं, कोई कर्म योग द्वारा यज्ञ करते हैं और कोई स्वाध्याय द्वारा ज्ञान यज्ञ करते हैं, अपने अपने व्रतों का सावधानि से पालन करते हुऐ ॥

 अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
 प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥४-२९॥
और भी कई, अपान में प्राण को अर्पित कर और प्राण मे अपान को अर्पित कर, इस प्रकार प्राण और अपान कि गतियों को नियमित कर, प्राणायाम मे लगते हैँ ॥
 अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
 सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥४-३०॥
अन्य कुछ, अहार न ले कर, प्राणों को प्राणों मे अर्पित करते हैं । ये सभी ही, यज्ञों द्वारा क्षीण पाप हुऐ, यज्ञ को जानने वाले हैं ॥
 यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
 नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥४-३१॥
यज्ञ से उत्पन्न इस अमृत का जो पान करते हैं अर्थात जो यज्ञ कर पापों को क्षीण कर उससे उत्पन्न शान्ति को प्राप्त करते हैं, वे सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं । जो यज्ञ नहीं करता, उसके लिये यह लोक ही सुखमयी नहीं है, तो और कोई लोक भी कैसे हो सकता है, हे कुरुसत्तम ॥

 एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
 कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥४-३२॥
इस प्रकार ब्रह्म से बहुत से यज्ञों का विधान हुआ । इन सभी को तुम कर्म से उत्पन्न हुआ जानो और ऍसा जान जाने पर तुम भी कर्म से मोक्ष पा जाओगे ॥
 श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
 सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥४-३३॥
हे परन्तप, धन आदि पदार्थों के यज्ञ से ज्ञान यज्ञ ज्यादा अच्छा है । सारे कर्म पूर्ण रूप से ज्ञान मिल जाने पर अन्त पाते हैं ॥
 तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
 उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥४-३४॥
सार को जानने वाले ज्ञानमंदों को तुम प्रणाम करो, उनसे प्रशन करो और उनकी सेवा करो ॥ वे तुम्हे ज्ञान मे उपदेश देंगे ॥
 यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
 येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥४-३५॥
हे पाण्डव, उस ज्ञान में, जिसे जान लेने पर तुम फिर से मोहित नहीं होगे, और अशेष सभी जीवों को तुम अपने में अन्यथा मुझ मे देखोगे ॥

 अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
 सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥४-३६॥
यदि तुम सभी पाप करने वालों से भी अधिक पापी हो, तब भी ज्ञान रूपी नाव द्वारा तुम उन सब पापों को पार कर जाओगे ॥
 यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
 ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥४-३७॥
जैसे समृद्ध अग्नि भस्म कर डालती है, हे अर्जुन, उसी प्रकार ज्ञान अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर डालती है ॥
 न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
 तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥४-३८॥
ज्ञान से अधिक पवित्र इस संसार पर और कुछ नहीं है । तुम सवयंम ही, योग में सिद्ध हो जाने पर, समय के साथ अपनी आत्मा में ज्ञान को प्राप्त करोगे ॥
 श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
 ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥४-३९॥
श्रद्धा रखने वाले, अपनी इन्द्रियों का संयम कर ज्ञान लभते हैं । और ज्ञान मिल जाने पर, जलद ही परम शान्ति को प्राप्त होते हैं ॥
 अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
 नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४-४०॥
ज्ञानहीन और श्रद्धाहीन, शंकाओं मे डूबी आत्मा वालों का विनाश हो जाता है । न उनके लिये ये लोक है, न कोई और न ही शंका में डूबी आत्मा को कोई सुख है ॥
 योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ।
 आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥४-४१॥
योग द्वारा कर्मों का त्याग किये हुआ, ज्ञान द्वारा शंकाओं को छिन्न भिन्न किया हुआ, आत्म मे स्थित व्यक्ति को कर्म नहीं बाँधते, हे धनंजय ॥
 तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
 छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥४-४२॥
इसलिये अज्ञान से जन्मे इस संशय को जो तुम्हारे हृदय मे घर किया हुआ है, ज्ञान रूपी तल्वार से चीर डालो, और योग को धारण कर उठो हे भारत ॥

 


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


पाँचवां अध्याय
अर्जुन उवाच
 संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
 यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥५- १॥
हे कृष्ण, आप कर्मों के त्याग की प्रशंसा कर रहे हैं और फिर योग द्वारा कर्मों को करने की भी । इन दोनों में से जो ऐक मेरे लिये ज्यादा अच्छा है वही आप निश्चित कर के मुझे कहिये ॥

श्रीभगवानुवाच
 संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
 तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥५- २॥
संन्यास और कर्म योग, ये दोनो ही श्रेय हैं, परम की प्राप्ति कराने वाले हैं । लेकिन कर्मों से संन्यास की जगह, योग द्वारा कर्मों का करना अच्छा है ॥
 ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
 निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥५- ३॥
उसे तुम सदा संन्यासी ही जानो जो न घृणा करता है और न इच्छा करता है । हे महाबाहो, द्विन्दता से मुक्त व्यक्ति आसानी से ही बंधन से मुक्त हो जाता है ॥
 सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
 एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥५- ४॥
संन्यास अथवा सांख्य को और कर्म योग को बालक ही भिन्न भिन्न देखते हैं, ज्ञानमंद नहीं । किसी भी एक में ही स्थित मनुष्य दोनो के ही फलों को समान रूप से पाता है ॥
 यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
 एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स: पश्यति ॥५- ५॥
सांख्य से जो स्थान प्राप्त होता है, वही स्थान योग से भी प्राप्त होता है । जो सांख्य और कर्म योग को एक ही देखता है, वही वास्तव में देखता है ॥
 संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
 योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥५- ६॥
संन्यास अथवा त्याग, हे महाबाहो, कर्म योग के बिना प्राप्त करना कठिन है । लेकिन योग से युक्त मुनि कुछ ही समय मे ब्रह्म को प्राप्त कर लेते है ॥
 योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
 सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥५- ७॥
योग से युक्त हुआ, शुद्ध आत्मा वाला, सवयंम और अपनी इन्द्रियों पर जीत पाया हुआ, सभी जगह और सभी जीवों मे एक ही परमात्मा को देखता हुआ, ऍसा मुनि कर्म करते हुऐ भी लिपता नहीं है ॥
 नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
 पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥५- ८॥
 प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
 इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥५- ९॥
सार को जानने वाला यही मानता है कि वो कुछ नहीं कर रहा । देखते हुऐ, सुनते हुऐ, छूते हुऐ, सूँघते हुऐ, खाते हुऐ, चलते फिरते हुऐ, सोते हुऐ, साँस लेते हुऐ, बोलते हुऐ, छोड़ते या पकड़े हुऐ, यहाँ तक कि आँखें खोलते या बंद करते हुऐ, अर्थात कुछ भी करते हुऐ, वो इसी भावना से युक्त रहता है कि वो कुछ नहीं कर रहा । वो यही धारण किये रहता है कि इन्द्रियाँ अपने विषयों के साथ वर्त रही हैं ॥

 ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
 लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥५- १०॥
कर्मों को ब्रह्म के हवाले कर, संग को त्याग कर जो कार्य करता है, वो पाप मे नहीं लिपता, जैसे कमल का पत्ता पानी में भी गीला नहीं होता ॥

 कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
 योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५- ११॥
योगी, आत्मशुद्धि के लिये, केवल शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से कर्म करते हैं, संग को त्याग कर ॥

 युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
 अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥५- १२॥
कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम शान्ति पाता है । लेकिन जो ऍसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बँध जाता है ॥
 सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
 नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥५- १३॥
सभी कर्मों को मन से त्याग कर, देही इस नौं दरवाजों के देश मतलब इस शरीर में सुख से बसती है । न वो कुछ करती है और न करवाती है ॥
 न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
 न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥५- १४॥
प्रभु, न तो कर्ता होने कि भावना की, और न कर्म की रचना करते हैं । न ही वे कर्म का फल से संयोग कराते हैं । यह सब तो सवयंम के कारण ही होता है ।
 नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
 अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥५- १५॥
न भगवान किसी के पाप को ग्रहण करते हैं और न किसी के अच्छे कार्य को । ज्ञान को अज्ञान ढक लेता है, इसिलिये जीव मोहित हो जाते हैं ॥
 ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
 तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥५- १६॥
जिन के आत्म मे स्थित अज्ञान को ज्ञान ने नष्ट कर दिया है, वह ज्ञान, सूर्य की तरह, सब प्रकाशित कर देता है ॥
 तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
 गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥५- १७॥
ज्ञान द्वारा उनके सभी पाप धुले हुऐ, उसी ज्ञान मे बुद्धि लगाये, उसी मे आत्मा को लगाये, उसी मे श्रद्धा रखते हुऐ, और उसी में डूबे हुऐ, वे ऍसा स्थान प्राप्त करते हैं जिस से फिर लौट कर नहीं आते ॥
 विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
 शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥५- १८॥
ज्ञानमंद व्यक्ति एक विद्या विनय संपन्न ब्राह्मण को, गाय को, हाथी को, कुत्ते को और एक नीच व्यक्ति को, इन सभी को समान दृष्टि से देखता है ।
 इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
 निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥५- १९॥
जिनका मन समता में स्थित है वे यहीं इस जन्म मृत्यु को जीत लेते हैं । क्योंकि ब्रह्म निर्दोष है और समता पूर्ण है, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं ।
 न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
 स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥५- २०॥
न प्रिय लगने वाला प्राप्त कर वे प्रसन्न होते हैं, और न अप्रिय लगने वाला प्राप्त करने पर व्यथित होते हैं । स्थिर बुद्धि वाले, मूर्खता से परे, ब्रह्म को जानने वाले, एसे लोग ब्रह्म में ही स्थित हैं ।

 बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम् ।
 स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥५- २१॥
बाहरी स्पर्शों से न जुड़ी आत्मा, अपने आप में ही सुख पाती है । एसी, ब्रह्म योग से युक्त, आत्मा, कभी न अन्त होने वाले निरन्तर सुख का आनन्द लेती है ।

 ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
 आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥५- २२॥
बाहरी स्पर्श से उत्तपन्न भोग तो दुख का ही घर हैं । शुरू और अन्त हो जाने वाले ऍसे भोग, हे कौन्तेय, उनमें बुद्धिमान लोग रमा नहीं करते ।

 शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
 कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥५- २३॥
यहाँ इस शरीर को त्यागने से पहले ही जो काम और क्रोध से उत्तपन्न वेगों को सहन कर पाले में सफल हो पाये, ऍसा युक्त नर सुखी है ।

 योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
 स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥५- २४॥
जिसकी अन्तर आत्मा सुखी है, अन्तर आत्मा में ही जो तुष्ट है, और जिसका अन्त करण प्रकाशमयी है, ऍसा योगी ब्रह्म निर्वाण प्राप्त कर, ब्रह्म में ही समा जाता है ।
 लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
 छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥५- २५॥
ॠषी जिनके पाप क्षीण हो चुके हैं, जिनकी द्विन्द्वता छिन्न हो चुकी है, जो संवयम की ही तरह सभी जीवों के हित में रमे हैं, वो ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करते हैं ।

 कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
 अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥५- २६॥
काम और क्रोध को त्यागे, साधना करते हुऐ, अपने चित को नियमित किये, आत्मा का ज्ञान जिनहें हो चुका है, वे यहाँ होते हुऐ भी ब्रह्म निर्वाण में ही स्थित हैं ।
 स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
 प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥५- २७॥
 यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
 विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥५- २८॥
बाहरी स्पर्शों को बाहर कर, अपनी दृष्टि को अन्दर की ओर भ्रुवों के मध्य में लगाये, प्राण और अपान का नासिकाओं में एक सा बहाव कर, इन्द्रियों, मन और बुद्धि को नियमित कर, ऍसा मुनि जो मोक्ष प्राप्ति में ही लगा हुआ है, इच्छा, भय और क्रोध से मुक्त, वह सदा ही मुक्त है ।
 भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
 सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥५- २९॥
मुझे ही सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी लोकों का महान ईश्वर, और सभी जीवों का सुहृद जान कर वह शान्ति को प्राप्त करता है ।

 


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
छटा अध्याय
श्रीभगवानुवाच
 अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
 स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥६- १॥
कर्म के फल का आश्रय न लेकर जो कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी । वह नहीं जो अग्निहीन है, न वह जो अक्रिय है ।
 यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
 न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥६- २॥
जिसे सन्यास कहा जाता है उसे ही तुम योग भी जानो हे पाण्डव । क्योंकि सन्यास अर्थात त्याग के संकल्प के बिना कोई योगी नहीं बनता ।
 आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
 योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥६- ३॥
एक मुनि के लिये योग में स्थित होने के लिये कर्म साधन कहा जाता है । योग मे स्थित हो जाने पर शान्ति उस के लिये साधन कही जाती है ।
 यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
 सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥६- ४॥
जब वह न इन्द्रियों के विषयों की ओर और न कर्मों की ओर आकर्षित होता है, सभी संकल्पों का त्यागी, तब उसे योग में स्थित कहा जाता है ।
 उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
 आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥६- ५॥
सवयंम से अपना उद्धार करो, सवयंम ही अपना पतन नहीं । मनुष्य सवयंम ही अपना मित्र होता है और सवयंम ही अपना शत्रू ।
 बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
 अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥६- ६॥
जिसने अपने आप पर जीत पा ली है उसके लिये उसका आत्म उसका मित्र है । लेकिन सवयंम पर जीत नही प्राप्त की है उसके लिये उसका आत्म ही शत्रु की तरह वर्तता है ।

 जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
 शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥६- ७॥
अपने आत्मन पर जीत प्राप्त किया, सरदी गरमी, सुख दुख तथा मान अपमान में एक सा रहने वाला, प्रसन्न चित्त मनुष्य परमात्मा मे बसता है ।

 ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
 युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥६- ८॥
ज्ञान और अनुभव से तृप्त हुई आत्मा, अ-हिल, अपनी इन्द्रीयों पर जीत प्राप्त कीये, इस प्रकार युक्त व्यक्ति को ही योगी कहा जाता है, जो लोहे, पत्थर और सोने को एक सा देखता है ।
 सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
 साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥६- ९॥
जो अपने सुहृद को, मित्र को, वैरी को, कोई मतलब न रखने वाले को, बिचोले को, घृणा करने वाले को, सम्बन्धी को, यहाँ तक की एक साधू पुरूष को और पापी पुरूष को एक ही बुद्धि से देखता है वह उत्तम है ।
 योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
 एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥६- १०॥
योगी को एकान्त स्थान पर स्थित होकर सदा अपनी आत्मा को नियमित करना चाहिये । एकान्त मे इच्छाओं और घर, धन आदि मान्सिक परिग्रहों से रहित हो अपने चित और आत्मा को नियमित करता हुआ ।
 शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
 नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥६- ११॥
उसे ऍसे आसन पर बैठना चाहिये जो साफ और पवित्र स्थान पर स्थित हो, स्थिर हो, और जो न ज़्यादा ऊँचा हो और न ज़्यादा नीचा हो, और कपड़े, खाल या कुश नामक घास से बना हो ।
 तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
 उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥६- १२॥
वहाँ अपने मन को एकाग्र कर, चित्त और इन्द्रीयों को अक्रिय कर, उसे आत्म शुद्धि के लिये ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिये ।
 समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
 सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥६- १३॥
अपनी काया, सिर और गर्दन को एक सा सीधा धारण कर, अचल रखते हुऐ, स्थिर रह कर, अपनी नाक के आगे वाले भाग की ओर एकाग्रता से देखते हुये, और किसी दिशा में नहीं देखना चाहिये ।
 प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
 मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥६- १४॥
प्रसन्न आत्मा, भय मुक्त, ब्रह्मचार्य के व्रत में स्थित, मन को संयमित कर, मुझ मे चित्त लगाये हुऐ, इस प्रकार युक्त हो मेरी ही परम चाह रखते हुऐ ।
 युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
 शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥६- १५॥
इस प्रकार योगी सदा अपने आप को नियमित करता हुआ, नियमित मन वाला, मुझ मे स्थित होने ने कारण परम शान्ति और निर्वाण प्राप्त करता है ।
 नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
 न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥६- १६॥
हे अर्जुन, न बहुत खाने वाला योग प्राप्त करता है, न वह जो बहुत ही कम खाता है । न वह जो बहुत सोता है और न वह जो जागता ही रहता है ।
 युक्ताहारविहारस्य  युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
 युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६- १७॥
जो नियमित आहार लेता है और नियमित निर-आहार रहता है, नियमित ही कर्म करता है, नियमित ही सोता और जागता है, उसके लिये यह योगा दुखों का अन्त कर देने वाली हो जाती है ।
 यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
 निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥६- १८॥
जब सवंयम ही उसका चित्त, बिना हलचल के और सभी कामनाओं से मुक्त, उसकी आत्मा मे विराजमान रहता है, तब उसे युक्त कहा जाता है ।
 यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
 योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥६- १९॥
जैसे एक दीपक वायु न होने पर हिलता नहीं है, उसी प्रकार योग द्वारा नियमित किया हुआ योगी का चित्त होता है ।
 यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
 यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥६- २०॥
जब उस योगी का चित्त योग द्वारा विषयों से हट जाता है तब वह सवयं अपनी आत्मा को सवयं अपनी आत्मा द्वारा देख तुष्ठ होता है ।
 सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
 वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥६- २१॥
वह अत्यन्त सुख जो इन्द्रियों से पार उसकी बुद्धि मे समाता है, उसे देख लेने के बाद योगी उसी मे स्थित रहता है और सार से हिलता नहीं ।
 यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
 यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥६- २२॥
तब बड़े से बड़ा लाभ प्राप्त कर लेने पर भी वह उसे अधिक नहीं मानता, और न ही, उस सुख में स्थित, वह भयानक से भयानक दुख से भी विचलित होता है ।
 तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।
 स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥६- २३॥
दुख से जो जोड़ है उसके इस टुट जाने को ही योग का नाम दिया जाता है । निश्चय कर और पूरे मन से इस योग मे जुटना चाहिये ।
 संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
 मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥६- २४॥
शुरू होने वालीं सभी कामनाओं को त्याग देने का संकल्प कर, मन से सभी इन्द्रियों को हर ओर से रोक कर ।
 शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
 आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥६- २५॥
धीरे धीरे बुद्धि की स्थिरता ग्ररण करते हुऐ मन को आत्म मे स्थित कर, कुछ भी नहीं सोचना चाहिये ।
 यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
 ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥६- २६॥
जब जब चंचल और अस्थिर मन किसी भी ओर जाये, तब तब उसे नियमित कर अपने वश में कर लेना चाहिये ।

 प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
 उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥६- २७॥
ऍसे प्रसन्न चित्त योगी को उत्तम सुख प्राप्त होता है जिसका रजो गुण शान्त हो चुका है, जो पाप मुक्त है और ब्रह्म मे समा चुका है ।

 युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
 सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥६- २८॥
अपनी आत्मा को सदा योग मे लगाये, पाप मुक्त हुआ योगी, आसानी से ब्रह्म से स्पर्श होने का अत्यन्त सुख भोगता है ।

 सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
 ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥६- २९॥
योग से युक्त आत्मा, अपनी आत्मा को सभी जीवों में देखते हुऐ और सभी जीवों मे अपनी आत्मा को देखते हुऐ हर जगह एक सा रहता है ।
 यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
 तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६- ३०॥
जो मुझे हर जगह देखता है और हर चीज़ को मुझ में देखता है, उसके लिये मैं कभी ओझल नहीं होता और न ही वो मेरे लिये ओझल होता है ।
 सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
 सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥६- ३१॥
सभी भूतों में स्थित मुझे जो अन्नय भाव से स्थित हो कर भजता है, वह सब कुछ करते हुऐ भी मुझ ही में रहता है ।
 आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
 सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥६- ३२॥
हे अर्जुन, जो सदा दूसरों के दुख सुख और अपने दुख सुख को एक सा देखता है, वही योगी सबसे परम है ।
अर्जुन उवाच
 योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
 एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥६- ३३॥
हे मधुसूदन, जो आपने यह समता भरी योगा बताई है, इसमें मैं स्थिरता नहीं देख पा रहा हूँ, मन की चंचलता के कारण ।

 चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
 तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥६- ३४॥
हे कृष्ण, मन तो चंचल, हलचल भरा, बलवान और दृढ होता है । उसे रोक पाना तो मैं वैसे अत्यन्त कठिन मानता हूँ जैसे वायु को रोक पाना ।

श्रीभगवानुवाच
 असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
 अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥६- ३५॥
बेशक, हे महाबाहो, चंचल मन को रोक पाना कठिन है, लेकिन हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से इसे काबू किया जा सकता है ।
 असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
 वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥६- ३६॥
मेरे मत में, आत्म संयम बिना योग प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । लेकिन अपने आप को वश मे कर अभ्यास द्वारा इसे प्राप्त किया जा सकता है ।
अर्जुन उवाच
 अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
 अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥६- ३७॥
हे कृष्ण, श्रद्धा होते हुए भी जिसका मन योग से हिल जाता है, योग सिद्धि को प्राप्त न कर पाने पर उसको क्या परिणाम होता है ।
 कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
 अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥६- ३८॥
क्या वह दोनों पथों में असफल हुआ, टूटे बादल की तरह नष्ट नहीं हो जाता । हे महाबाहो, अप्रतिष्ठित और ब्रह्म पथ से विमूढ हुआ ।
 एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
 त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥६- ३९॥
हे कृष्ण, मेरे इस संशय को आप पूरी तरह मिटा दीजीऐ क्योंकि आप के अलावा और कोई नहीं है जो इस संशय को छेद पाये ।
श्रीभगवानुवाच
 पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
 न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥६- ४०॥
हे पार्थ, उसके लिये विनाश न यहाँ है और न कहीं और ही । क्योंकि, हे तात, कल्याण कारी कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता ।

 प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
 शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥६- ४१॥
योग पथ में भ्रष्ट हुआ मनुष्य, पुन्यवान लोगों के लोकों को प्राप्त कर, वहाँ बहुत समय तक रहता है और फिर पवित्र और श्रीमान घर में जन्म लेता है ।
 अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
 एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥६- ४२॥
या फिर वह बुद्धिमान योगियों के घर मे जन्म लेता है । ऍसा जन्म मिलना इस संसार में बहुत मुश्किल है ।
 तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
 यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥६- ४३॥
वहाँ उसे अपने पहले वाले जन्म की ही बुद्धि से फिर से संयोग प्राप्त होता है । फिर दोबारा अभ्यास करते हुऐ, हे कुरुनन्दन, वह सिद्धि प्राप्त करता है ।
 पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
 जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥६- ४४॥
पुर्व जन्म में किये अभ्यास की तरफ वह बिना वश ही खिच जाता है । क्योंकि योग मे जिज्ञासा रखने वाला भी वेदों से ऊपर उठ जाता है ।
 प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
 अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥६- ४५॥
अनेक जन्मों मे किये प्रयत्न से योगी विशुद्ध और पाप मुक्त हो, अन्त में परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ।
 तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
 कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥६- ४६॥
योगी तपस्वियों से अधिक है, विद्वानों से भी अधिक है, कर्म से जुड़े लोगों से भी अधिक है, इसलिये हे अर्जुन तुम योगी बनो ।
 योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
 श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥६- ४७॥
और सभी योगीयों में जो अन्तर आत्मा को मुझ में ही बसा कर श्रद्धा से मुझे याद करता है, वही सबसे उत्तम है ।

 

 

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
सातवाँ अध्याय
श्रीभगवानुवाच
 मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
 असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥७- १॥
मुझ मे लगे मन से, हे पार्थ, मेरा आश्रय लेकर योगाभ्यास करते हुऐ तुम बिना शक के मुझे पूरी तरह कैसे जान जाओगे वह सुनो ।
 ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
 यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥७- २॥
मैं तुम्हे ज्ञान और अनुभव के बारे सब बताता हूँ, जिसे जान लेने के बाद और कुछ भी जानने वाला बाकि नहीं रहता ।
 मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
 यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥७- ३॥
हजारों मनुष्यों में कोई ही सिद्ध होने के लिये प्रयत्न करता है । और सिद्धि के लिये प्रयत्न करने वालों में भी कोई ही मुझे सार तक जानता है ।
 भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
 अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥७- ४॥
भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – यह भिन्न भिन्न आठ रूपों वाली मेरी प्रकृति है ।
 अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
 जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥७- ५॥
यह नीचे है । इससे अलग मेरी एक और प्राकृति है जो परम है – जो जीवात्मा का रूप लेकर, हे महाबाहो, इस जगत को धारण करती है ।
 एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
 अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥७- ६॥
यह दो ही वह योनि हैं जिससे सभी जीव संभव होते हैं । मैं ही इस संपूर्ण जगत का आरम्भ हूँ औऱ अन्त भी ।
 मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।
 मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥७- ७॥
मुझे छोड़कर, हे धनंजय, और कुछ भी नहीं है । यह सब मुझ से वैसे पुरा हुआ है जैसे मणियों में धागा पुरा होता है ।
 रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
 प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥७- ८॥
मैं पानी का रस हूँ, हे कौन्तेय, चन्द्र और सूर्य की रौशनी हूँ, सभी वेदों में वर्णित ॐ हूँ, और पुरुषों का पौरुष हूँ ।
 पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
 जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥७- ९॥
पृथवि की पुन्य सुगन्ध हूँ और अग्नि का तेज हूँ । सभी जीवों का जीवन हूँ, और तप करने वालों का तप हूँ ।
 बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
 बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥७- १०॥
हे पार्थ, मुझे तुम सभी जीवों का सनातन बीज जानो । बुद्धिमानों की बुद्धि मैं हूँ और तेजस्वियों का तेज मैं हूँ ।
 बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
 धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥७- ११॥
बलवानों का वह बल जो काम और राग मुक्त हो वह मैं हूँ । प्राणियों में वह इच्छा जो धर्म विरुद्ध न हो वह मैं हूँ हे भारत श्रेष्ठ ।
 ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
 मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥७- १२॥
जो भी सत्तव, रजो अथवा तमो गुण से होता है उसे तुम मुझ से ही हुआ जानो, लेकिन मैं उन में नहीं, वे मुझ में हैं ।
 त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
 मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥७- १३॥
इन तीन गुणों के भाव से यह सारा जगत मोहित हुआ, मुझ अव्यय और परम को नहीं जानता ।
 दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
 मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥७- १४॥
गुणों का रूप धारण की मेरी इस दिव्य माया को पार करना अत्यन्त कठिन है । लेकिन जो मेरी ही शरण में आते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं ।
 न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
 माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥७- १५॥
बुरे कर्म करने वाले, मूर्ख, नीच लोग मेरी शरण में नहीं आते । ऍसे दुष्कृत लोग, माया द्वारा जिनका ज्ञान छिन चुका है वे असुर भाव का आश्रय लेते हैं ।
 चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
 आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥७- १६॥
हे अर्जुन, चार प्रकार के सुकृत लोग मुझे भजते हैं । मुसीबत में जो हैं, जिज्ञासी, धन आदि के इच्छुक, और जो ज्ञानी हैं, हे भरतर्षभ ।
 तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
 प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥७- १७॥
उनमें से ज्ञानी ही सदा अनन्य भक्तिभाव से युक्त होकर मुझे भजता हुआ सबसे उत्तम है । ज्ञानी को मैं बहुत प्रिय हूँ और वह भी मुझे वैसे ही प्रिय है ।
 उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
 आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥७- १८॥
यह सब ही उदार हैं, लेकिन मेरे मत में ज्ञानी तो मेरा अपना आत्म ही है । क्योंकि मेरी भक्ति भाव से युक्त और मुझ में ही स्थित रह कर वह सबसे उत्तम गति - मुझे, प्राप्त करता है ।
 बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
 वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥७- १९॥
बहुत जन्मों के अन्त में ज्ञानमंद मेरी शरण में आता है । वासुदेव ही सब कुछ हैं, इसी भाव में स्थिर महात्मा मिल पाना अत्यन्त कठिन है ।
 कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
 तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥७- २०॥
इच्छाओं के कारण जिन का ज्ञान छिन गया है, वे अपने अपने स्वभाव के अनुसार, नीयमों का पालन करते हुऐ अन्य देवताओं की शरण में जाते हैं ।
 यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
 तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥७- २१॥
जो भी मनुष्य जिस जिस देवता की भक्ति और श्रद्धा से अर्चना करने की इच्छा करता है, उसी रूप (देवता) में मैं उसे अचल श्रद्धा प्रदान करता हूँ ।
 स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
 लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥७- २२॥
उस देवता के लिये (मेरी ही दी) श्रद्धा से युक्त होकर वह उसकी अराधना करता है और अपनी इच्छा पूर्ती प्राप्त करता है, जो मेरे द्वारा ही निरधारित की गयी होती है ।
 अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
 देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥७- २३॥
अल्प बुद्धि वाले लोगों को इस प्रकार प्रप्त हुऐ यह फल अन्तशील हैं । देवताओं का यजन करने वाले देवताओं के पास जाते हैं लेकिन मेरा भक्त मुझे ही प्राप्त करता है ।
 अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
 परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥७- २४॥
मुझ अव्यक्त (अदृश्य) को यह अवतार लेने पर, बुद्धिहीन लोग देहधारी मानते हैं । मेरे परम भाव को अर्थात मुझे नहीं जानते जो की अव्यय (विकार हीन) और परम उत्तम है ।
 नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
 मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥७- २५॥
अपनी योग माया से ढका मैं सबको नहीं दिखता हूँ । इस संसार में मूर्ख मुझ अजन्मा और विकार हीन को नहीं जानते ।
 वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
 भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥७- २६॥
हे अर्जुन, जो बीत चुके हैं, जो वर्तमान में हैं, और जो भविष्य में होंगे, उन सभी जीवों को मैं जानता हूँ, लेकिन मुझे कोई नहीं जानता ।
 इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
 सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥७- २७॥
हे भारत, इच्छा और द्वेष से उठी द्वन्द्वता से मोहित हो कर, सभी जीव जन्म चक्र में फसे रहते हैं, हे परन्तप ।
 येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
 ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥७- २८॥
लेकिन जिनके पापों का अन्त हो गया है, वह पुण्य कर्म करने वाले लोग द्वन्द्वता से निर्मुक्त होकर, दृढ व्रत से मुझे भजते हैं ।
 जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
 ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥७- २९॥
बुढापे और मृत्यु से छुटकारा पाने के लिये जो मेरा आश्रय लेते हैं वे उस ब्रह्म को, सारे अध्यात्म को, और संपूर्ण कर्म को जानते हैं ।
 साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
 प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥७- ३०॥
वे सभी भूतों में, दैव में, और यज्ञ में मुझे जानते हैं । मृत्युकाल में भी इसी बुद्धि से युक्त चित्त से वे मुझे ही जानते हैं ।

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥

 

आठवाँ अध्याय
अर्जुन उवाच
 किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
 अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥८- १॥
हे पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, और कर्म क्या होता है । अधिभूत किसे कहते हैं और अधिदैव किसे कहा जाता है ।
 अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
 प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥८- २॥
हे मधुसूदन, इस देह में जो अधियज्ञ है वह कौन है । और सदा नियमित चित्त वाले कैसे मृत्युकाल के समय उसे जान जाते हैं ।

श्रीभगवानुवाच
 अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
 भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥८- ३॥
जिसका क्षर नहीं होता वह ब्रह्म है । जीवों के परम स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है । जीवों की जिससे उत्पत्ति होती है उसे कर्म कहा जाता है ।
 अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
 अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥८- ४॥
इस देह के क्षर भाव को अधिभूत कहा जाता है, और पुरूष अर्थात आत्मा को अधिदैव कहा जाता है । इस देह में मैं अधियज्ञ हूँ - देह धारण करने वालों में सबसे श्रेष्ठ ।
 अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
 यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥८- ५॥
अन्तकाल में मुझी को याद करते हुऐ जो देह से मुक्ति पाता है, वह मेरे ही भाव को प्राप्त होता है, इस में कोई संशय नहीं ।
 यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
 तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥८- ६॥
प्राणी जो भी स्मरन करते हुऐ अपनी देह त्यागता है, वह उसी को प्राप्त करता है हे कौन्तेय, सदा उन्हीं भावों में रहने के कारण ।
 तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
 मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥८- ७॥
इसलिये, हर समय मुझे ही याद करते हुऐ तुम युद्ध करो । अपने मन और बुद्धि को मुझे ही अर्पित करने से, तुम मुझ में ही रहोगे, इस में कोई संशय नहीं ।
 अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
 परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥८- ८॥
 कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
 सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥८- ९॥
हे पार्थ, अभ्यास द्वारा चित्त को योग युक्त कर और अन्य किसी भी विषय का चिन्तन न करते हुऐ, उन पुरातन कवि, सब के अनुशासक, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, सबके धाता, अचिन्त्य रूप, सूर्य के प्रकार प्रकाशमयी, अंधकार से परे उन ईश्वर का ही चिन्तन करते हुऐ, उस दिव्य परम-पुरुष को ही प्राप्त करोगे ।
 प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
 भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥८- १०॥
इस देह को त्यागते समय, मन को योग बल से अचल कर और और भक्ति भाव से युक्त हो, भ्रुवों के मध्य में अपने प्राणों को टिका कर जो प्राण त्यागता है वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है ।
 यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
 यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥८- ११॥
जिसे वेद को जानने वाले अक्षर कहते हैं, और जिसमें साधक राग मुक्त हो जाने पर प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ती की इच्छा से ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्या का पालन करते हैं, तुम्हें मैं उस पद के बारे में बताता हूँ ।
 सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
 मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥८- १२॥
 ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
 यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥८- १३॥
अपने सभी द्वारों (अर्थात इन्द्रियों) को संयमशील कर, मन और हृदय को निरोद्ध कर (विषयों से निकाल कर), प्राणों को अपने मश्तिष्क में स्थित कर, इस प्रकार योग को धारण करते हुऐ । ॐ से अक्षर ब्रह्म को संबोधित करते हुऐ, और मेरा अनुस्मरन करते हुऐ, जो अपनी देह को त्यजता है, वह परम गति को प्राप्त करता है ।
 अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
 तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥८- १४॥
अनन्य चित्त से जो मुझे सदा याद करता है, उस नित्य युक्त योगी के लिये मुझे प्राप्त करना आसान है हे पार्थ ।
 मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
 नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥८- १५॥
मुझे प्राप्त कर लेने पर महात्माओं को फिर से, दुख का घर और मृत्युरूप, अगला जन्म नहीं लेना पड़ता, क्योंकि वे परम सिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं ।
 आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
 मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥८- १६॥
ब्रह्म से नीचे जितने भी लोक हैं उनमें से किसी को भी प्राप्त करने पर जीव को वापिस लौटना पड़ता है (मृत्यु होती है), लेकिन मुझे प्राप्त कर लेने पर, हे कौन्तेय, फिर दोबारा जन्म नहीं होता ।
 सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
 रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥८- १७॥
जो जानते हैं की सहस्र (हज़ार) युग बीत जाने पर ब्रह्म का दिन होता है और सहस्र युगों के अन्त पर ही रात्री होती है, वे लोग दिन और रात को जानते हैं ।
 अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
 रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥८- १८॥
दिन के आगम पर अव्यक्त से सभी उत्तपन्न होकर व्यक्त (दिखते हैं) होते हैं, और रात्रि के आने पर प्रलय को प्राप्त हो, जिसे अव्यक्त कहा जाता है, उसी में समा जाते हैं ।
 भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
 रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥८- १९॥
हे पार्थ, इस प्रकार यह समस्त जीव दिन आने पर बार बार उत्पन्न होते हैं, और रात होने पर बार बार वशहीन ही प्रलय को प्राप्त होते हैं ।
 परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
 यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥८- २०॥
इन व्यक्त और अव्यक्त जीवों से परे एक और अव्यक्त सनातन पुरुष है, जो सभी जीवों का अन्त होने पर भी नष्ट नहीं होता ।
 अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।
 यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥८- २१॥
जिसे अव्यक्त और अक्षर कहा जाता है, और जिसे परम गति बताया जाता है, जिसे प्राप्त करने पर कोई फिर से नहीं लौटता वही मेरा परम स्थान है ।
 पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
 यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥८- २२॥
हे पार्थ, उस परम पुरुष को, जिसमें यह सभी जीव स्थित हैं और जीसमें यह सब कुछ ही बसा हुआ है, तुम अनन्य भक्ति से पा सकते हो ।
 यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
 प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥८- २३॥
हे भरतर्षभ, अब मैं तुम्हें वह समय बताता हूँ जिसमें शरीर त्यागते हुऐ योगी लौट कर नहीं आते और जिसमें वे लौट कर आते हैं ।
 अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
 तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥८- २४॥
रौशनी में, अग्नि की ज्योति के समीप, दिन के समय, या सुर्य के उत्तर में होने वाले छः महीने (गरमी), उस में जाने वाले ब्रह्म को जानने वाले, ब्रह्म को प्राप्त करते हैं ।
 धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
 तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥८- २५॥
धूऐं, रात्रि, अंधकार और सूर्य के दक्षिण में होने वाले छः महीने (सर्दी), उस में योगी चन्द्र की ज्योति को प्राप्त कर पुनः लौटते हैं ।
 शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
 एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥८- २६॥
इस जगत में सफेद और काला - ये दो शाश्वत पथ माने जाते हैं । एक पर चलने वाले फिर लौट कर नहीं आते और दूसरे पर चलने वाले फिर लौट कर आते हैं ।
 नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
 तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥८- २७॥
हे पार्थ, ऍसा एक भी योगी नहीं है जो इसे जान जाने के बाद फिर कभी मोहित हुआ हो । इसलिये, हे अर्जुन, तुम हर समय योग-युक्त बनो ।
 वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
 अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥८- २८॥
इस सब को जान कर, योगी, वेदों, यज्ञों, तप औऱ दान से जो भी पुण्य फल प्राप्त होते हैं उन सब से ऊपर उठकर, पुरातन परम स्थान प्राप्त कर लेता है ।


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
नौंवा अध्याय
श्रीभगवानुवाच
 इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
 ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥९- १॥
मैं तुम्हे इस परम रहस्य के बारे में बताता हूँ क्योंकि तुममें इसके प्रति कोई वैर वहीं है । इसे ज्ञान और अनुभव सहित जान लेने पर तुम अशुभ से मुक्ति पा लोगे ।
 राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
 प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥९- २॥
यह विद्या सबसे श्रेष्ठ है, सबसे श्रेष्ठ रहस्य है, उत्तम से भी उत्तम और पवित्र है, सामने ही दिखने वाली है (टेढी नहीं है), न्याय और अच्छाई से भरी है, अव्यय है और आसानी से इसका पालन किया जा सकता है ।
 अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
 अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥९- ३॥
हे परन्तप, इस धर्म में जिन पुरुषों की श्रद्धा नहीं होती, वे मुझे प्राप्त न कर, बार बार इस मृत्यु संसार में जन्म लेते हैं ।
 मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
 मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥९- ४॥
मैं इस संपूर्ण जगत में अव्यक्त (जो दिखाई न दे) मूर्ति रुप से विराजित हूँ । सभी जीव मुझ में ही स्थित हैं, मैं उन में नहीं ।
 न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
 भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥९- ५॥
लेकिन फिर भी ये जीव मुझ में स्थित नहीं हैं । देखो मेरे योग ऍश्वर्य को, इन जीवों में स्थित न होते हुये भी मैं इन जीवों का पालन हार, और उत्पत्ति कर्ता हूँ ।
 यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
 तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥९- ६॥
जैसे सदा हर ओर फैले हुये आकाश में वायु चलती रहती है, उसी प्रकार सभी जीव मुझ में स्थित हैं ।
 सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
 कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥९- ७॥
हे कौन्तेय, सभी जीव कल्प का अन्त हो जाने पर (1000 युगों के अन्त पर) मेरी ही प्रकृति में समा जाते हैं और फिर कल्प के आरम्भ पर मैं उनकी दोबारा रचना करता हूँ ।
 प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
 भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥९- ८॥
इस प्रकार प्रकृति को अपने वश में कर, पुनः पुनः इस संपूर्ण जीव समूह की मैं रचना करता हूँ जो इस प्रकृति के वश में होने के कारण वशहीन हैं ।
 न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ।
 उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९- ९॥
यह कर्म मुझे बांधते नहीं हैं, हे धनंजय, क्योंकि मैं इन कर्मैं को करते हुये भी इनसे उदासीन (जिसे कोई खास मतलब न हो) और संग रहित रहता हूँ ।
 मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
 हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥९- १०॥
मेरी अध्यक्षता के नीचे यह प्रकृति इन चर और अचर (चलने वाले और न चलने वाले) जीवों को जन्म देती है । इसी से, हे कौन्तेय, इस जगत का परिवर्तन चक्र चलता है ।
 अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
 परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥९- ११॥
इस मानुषी तन का आश्रय लेने पर (मानव रुप अवतार लेने पर), जो मूर्ख हैं वे मुझे नहीं पहचानते । मेरे परम भाव को न जानते कि मैं इन सभी भूतों का (संसार और प्राणीयों का) महान् ईश्वर हूँ ।
 मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
 राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥९- १२॥
व्यर्थ आशाओं में बँधे, व्यर्थ कर्मों में लगे, व्यर्थ ज्ञानों से जिनका चित्त हरा जा चुका है, वे विमोहित करने वाली राक्षसी और आसुरी प्रकृति का सहारा लेते हैं ।
 महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
 भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥९- १३॥
लेकिन महात्मा लोग, हे पार्थ, दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर मुझे ही अव्यय (विकार हीन) और इस संसार का आदि जान कर, अनन्य मन से मुझे भजते हैं ।
 सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
 नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥९- १४॥
ऍसे भक्त सदा मेरी प्रशंसा (कीर्ति) करते हुये, मेरे सामने नतमस्तक हो और सदा भक्ति से युक्त हो दृढ व्रत से मेरी उपासने करते हैं ।
 ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
 एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥९- १५॥
और दूसरे कुछ लोग ज्ञान यज्ञ द्वारा मुझे उपासते हैं । अलग अलग रूपों में एक ही देखते हुये, और इन बहुत से रुपों को ईश्वर का विश्वरूप ही देखते हुये ।
 अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
 मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥९- १६॥
मैं क्रतु हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, स्वधा मैं हूँ, मैं ही औषधी हूँ । मन्त्र मैं हूँ, मैं ही घी हूँ, मैं अग्नि हूँ और यज्ञ में अर्पित करने का कर्म भी मैं ही हूँ ।
 पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
 वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥९- १७॥
मैं इस जगत का पिता हूँ, माता भी, धाता भी और पितामहः (दादा) भी । मैं ही वेद्यं (जिसे जानना चाहिये) हूँ, पवित्र ॐ हूँ, और ऋग, साम, और यजुर भी मैं ही हूँ ।
 गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
 प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥९- १८॥
मैं ही गति (परिणाम) हूँ, भर्ता (भरण पोषण करने वाला) हूँ, प्रभु (स्वामी) हूँ, साक्षी हूँ, निवास स्थान हूँ, शरण देने वाला हूँ और सुहृद (मित्र अथवा भला चाहने वाला) हूँ । मैं ही उत्पत्ति हूँ, प्रलय हूँ, आधार (स्थान) हूँ, कोष हूँ । मैं ही विकारहीन अव्यय बीज हूँ ।
 तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।
 अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥९- १९॥
मैं ही भूमि को (सूर्य रूप से) तपाता हूँ और मैं ही जल को सोक कर वर्षा करता हूँ । मैं अमृत भी हूँ, मृत्यु भी, हे अर्जुन, और मैं ही सत् भी और असत् भी ।
 त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
 ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥९- २०॥
तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर) के ज्ञाता, सोम (चन्द्र) रस का पान करने वाले, क्षीण पाप लोग स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से यज्ञों द्वारा मेरा पूजन करते हैं । उन पुण्य कर्मों के फल स्वरूप वे देवताओं के राजा इन्द्र के लोक को प्राप्त कर, देवताओं के दिव्य भोगों का भोग करते हैं ।
 ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
 एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥९- २१॥
वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगने के कारण क्षीण पुण्य होने पर फिर से मृत्यु लोक पहुँचते हैं । इस प्रकार कामी (इच्छाओं से भरे) लोग, तीन शीखाओं वाले धर्म (तीन वेदों) का पालन कर, अपनी इच्छाओं को प्राप्त कर बार बार आते जाते हैं ।
 अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
 तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥९- २२॥
किसी और का चिन्तन न कर, अनन्य चित्त से जो जन मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य अभियुक्त (सदा मेरी भक्ति से युक्त) लोगों को मैं योग और क्षेम (जो नहीं है उसकी प्राप्ति और जो है उसकी रक्षा - लाभ की प्राप्ति और अलाभ से रक्षा) प्रदान करता हूँ ।
 येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
 तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥९- २३॥
जो (अन्य देवताओं के) भक्त अन्य देवताओं का श्रद्धा से पूजन करते हैं, वे भी, हे कौन्तेय, मेरा ही पूजन करते हैं लेकिन अविधि पूर्ण ढँग से ।
 अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
 न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥९- २४॥
मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता (भोगने वाला) और प्रभु हूँ । वे मुझे सार तक नहीं जानते, इसी लिये वे गिर पड़ते हैं ।
 यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
 भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥९- २५॥
देवताओं (के अर्चन) का व्रत रखने वाले देवताओं के पास जाते हैं, पितृ पूजन वाले पितरों को प्राप्त करते हैं, जीवों का पूजन करने वाले जीवों को प्राप्त करते हैं, और मेरी भक्ति करने वाले मुझे ही प्राप्त करते हैं ।
 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
 तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥९- २६॥
मेरा भक्त शुद्ध मन से मुझे जो भी पत्ता, फूल, फल अथवा जल अर्पित करता है, उस भक्ति भरे मन से अर्पित की वस्तु को मैं भोगता (स्विकार करता) हूँ ।
 यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
 यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥९- २७॥
हे कौन्तेय, तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, जो भी यज्ञ करते हो, जो भी दान करते हो, जो भी तप करते हो, वह सब मुझे ही अर्पण कर दो ।
 शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
 संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥९- २८॥
इस प्रकार शुभ और अशुभ फलों से और कर्म बन्धन से मुक्ति पा कर, सन्यास (त्याग) और योग युक्त आत्मा द्वारा विमुक्त हो तुम मुझे प्राप्त कर लोगे ।
 समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
 ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥९- २९॥
मेरे लिये सभी जीव एक से हैं - न मुझे किसी से द्वेष है और न ही कोई प्रिय है । लेकिन जो भक्ति भाव से मुझे भजते हैं वे मुझ में हैं और मैं उन में हुँ ।
 अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
 साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥९- ३०॥
यदि बहुत दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मुझे भजता है तो उसे साधु पुरूष ही समझना चाहिये क्योंकि उसने उत्तम निर्णय कर लिया है ।
 क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
 कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥९- ३१॥
वह जल्द ही धर्मात्मा (सदाचार करने वाला) बन शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लेता है । कौन्तेय, तुम एकदम जानो की मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता ।
 मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
 स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥९- ३२॥
हे पार्थ, मेरा ही आश्रय लेकर वे लोग जो पाप योनियों से उत्पन्न हुये हैं, और स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी परम गति को प्राप्त कर लेते हैं ।
 किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
 अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥९- ३३॥
फिर पुण्य और भक्तिमान ब्राह्मण और राज (क्षत्रिय) ऋषियों की तो बात ही क्या है । इसलिये, इस अनित्य (अन्तशील) और असुखी लोक में जन्म लेने पर मेरी ही भक्ति करो ।
 मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
 मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥९- ३४॥
मुझी में अपने मन को लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरा ही पूजन करो, मेरे ही सामने नत् मस्तक हो । इस प्रकार युक्त रहते हुये, मेरे ही ओर लगे हुये तुम मुझे ही प्राप्त करोगे ।

 


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥
दसवाँ अध्याय
श्रीभगवानुवाच
 भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
 यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१०- १॥
फिर से, हे महाबाहो, तुम मेरे परम वचनों को सुनो । क्योंकि तुम मुझे प्रिय हो इसलिय मैं तुम्हारे हित के लिये तुम्हें बताता हूँ ।
 न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
 अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥१०- २॥
न मेरे आदि (आरम्भ) को देवता लोग जानते हैं और न ही महान् ऋषि जन क्योंकि मैं ही सभी देवताओं का और महर्षियों का आदि हूँ ।
 यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
 असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१०- ३॥
जो मुझे अजम (जन्म हीन) और अन-आदि (जिसका कोई आरम्भ न हो) और इस संसार का महान ईश्वर (स्वामि) जानता है, वह मूर्खता रहित मनुष्य इस मृत्यु संसार में सभी पापों से मुक्त हो जाता है ।
 बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
 सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥१०- ४॥
 अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
  भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥१०- ५॥
बुद्धि, ज्ञान, मोहित होने का अभाव, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों पर संयम, मन की सैम्यता (संयम), सुख, दुख, होना और न होना, भय और अभय, प्राणियों की हिंसा न करना (अहिंसा), एक सा रहना एक सा देखना (समता), संतोष, तप, दान, यश, अपयश - प्राणियों के ये सभी अलग अलग भाव मुझ से ही होते हैं ।
 महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
 मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥१०- ६॥
पुर्वकाल में उत्पन्न हुये सप्त (सात) महर्षि, चार ब्रह्म कुमार, और मनु - ये सब मेरे द्वारा ही मन से (योग द्वारा) उत्पन्न हुये हैं और उनसे ही इस लोक में यह प्रजा हुई है ।
 एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
 सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥१०- ७॥
मेरी इस विभूति (संसार के जन्म कर्ता) और योग ऍश्वर्य को सार तक जानता है, वह अचल (भक्ति) योग में स्थिर हो जाता है, इसमें कोई शक नहीं ।
 अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
 इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥१०- ८॥
मैं ही सब कुछ का आरम्भ हूँ, मुझ से ही सबकुछ चलता है । यह मान कर बुद्धिमान लोग पूर्ण भाव से मुझे भजते हैं ।
 मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
 कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥१०- ९॥
मुझ में ही अपने चित्त को बसाऐ, मुझ में ही अपने प्राणों को संजोये, परस्पर एक दूसरे को मेरा बोध कराते हुये और मेरी बातें करते हुये मेरे भक्त सदा संतुष्ट रहते हैं और मुझ में ही रमते हैं ।
 तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
 ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥१०- १०॥
ऍसे भक्त जो सदा भक्ति भाव से भरे मुझे प्रीति पूर्ण ढंग से भजते हैं, उनहें मैं वह बुद्धि योग (सार युक्त बुद्धि) प्रदान करता हूँ जिसके द्वारा वे मुझे प्राप्त करते हैं ।
 तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
 नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥१०- ११॥
उन पर अपनी कृपा करने के लिये मैं उनके अन्तकरण में स्थित होकर, अज्ञान से उत्पन्न हुये उनके अँधकार को ज्ञान रूपी दीपक जला कर नष्ट कर देता हूँ ।
अर्जुन उवाच
 परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
 पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥१०- १२॥
आप ही परम ब्रह्म हैं, आप ही परम धाम हैं, आप ही परम पवित्र हैं, आप ही दिव्य शाश्वत पुरुष हैं, आप ही हे विभु आदि देव हैं, अजम हैं ।
 आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
 असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥१०- १३॥
सभी ऋषि, देवर्षि नारद, असित, व्याल, व्यास जी आपको ऍसे ही बताते हैं । यहाँ तक की स्वयं आपने भी मुझ से यही कहा है ।
 सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
 न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥१०- १४॥
हे केशव, आपने मुझे जो कुछ भी बताया उस सब को मैं सत्य मानता हूँ । हे भगवन, आप के व्यक्त होने को न देवता जानते हैं और न ही दानव ।
 स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
 भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥१०- १५॥
स्वयं आप ही अपने आप को जानते हैं हे पुरुषोत्तम । हे भूत भावन (जीवों के जन्म दाता) । हे भूतेश (जीवों के ईश) । हे देवों के देव । हे जगतपति ।
 वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
 याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥१०- १६॥
आप जिन जिन विभूतियों से इस संसार में व्याप्त होकर विराजमान हैं, मुझे पुरी तरहं (अशेष) अपनी उन दिव्य आत्म विभूतियों का वर्णन कीजिय (आप ही करने में समर्थ हैं) ।
 कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
 केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥१०- १७॥
हे योगी, मैं सदा आप का परिचिन्तन करता (आप के बारे में सोचता) हुआ किस प्रकार आप को जानूं (अर्थात किस प्रकार मैं आप का चिन्तन करूँ) । हे भगवन, मैं आपके किन किन भावों में आपका चिन्तन करूँ ।
 विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
 भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥१०- १८॥
हे जनार्दन, आप आपनी योग विभूतियों के विस्तार को फिर से मुझे बताइये, क्योंकि आपके वचनों रुपी इस अमृत का पान करते (सुनते) अभी मैं तृप्त नहीं हुआ हूँ ।
श्रीभगवानुवाच
 हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
 प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥१०- १९॥
मैं तुम्हें अपनी प्रधान प्रधान दिव्य आत्म विभूतियों के बारे में बताता हूँ क्योंकि हे कुरु श्रेष्ठ मेरे विसतार का कोई अन्त नहीं है ।
 अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
 अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥१०- २०॥
मैं आत्मा हूँ, हे गुडाकेश, सभी जीवों के अन्तकरण में स्थित । मैं ही सभी जीवों का आदि (जन्म), मध्य और अन्त भी हूँ ।
 आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
 मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥१०- २१॥
आदित्यों (अदिति के पुत्रों) में मैं विष्णु हूँ । और ज्योतियों में किरणों युक्त सूर्य हूँ । मरुतों (49 मरुत नाम के देवताओं) में से मैं मरीचि हूँ । और नक्षत्रों में शशि (चन्द्र) ।
 वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
 इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥१०- २२॥
वेदों में मैं साम वेद हूँ । देवताओं में इन्द्र । इन्द्रियों में मैं मन हूँ । और जीवों में चेतना ।
 रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
 वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥१०- २३॥
रुद्रों में मैं शंकर (शिव जी) हूँ, और यक्ष एवं राक्षसों में कुबेर हूँ । वसुयों में मैं अग्नि (पावक) हूँ । और शिखर वाले पर्वतों में मैं मेरु हूँ ।
 पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
 सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥१०- २४॥
हे पार्थ तुम मुझे पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति जानो । सेना पतियों में मुझे स्कन्ध जानो और जलाशयों में सागर ।
 महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
 यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥१०- २५॥
महर्षीयों में मैं भृगु हूँ, शब्दों में मैं एक ही अक्षर ॐ हूँ । यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ और न हिलने वालों में हिमालय ।
 अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
 गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥१०- २६॥
सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ, और देव ऋर्षियों में नारद । गन्धर्वों में मैं चित्ररथ हूँ और सिद्धों में भगवान कपिल मुनि ।
 उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् ।
 ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥१०- २७॥
सभी घोड़ों में से मुझे तुम अमृत के लिये किये सागर मंथन से उत्पन्न उच्चैश्रव समझो । हाथीयों का राजा ऐरावत समझो । और मनुष्यों में मनुष्यों का राजा समझो ।
 आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
 प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥१०- २८॥
शस्त्रों में मैं वज्र हूँ । गायों में कामधुक । प्रजा की बढौति करने वालों में कन्दर्प (काम देव) और सर्पों में मैं वासुकि हूँ ।
 अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
 पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥१०- २९॥
नागों में मैं अनन्त (शेष नाग) हूँ और जल के देवताओं में वरुण । पितरों में अर्यामा हूँ और नियंत्रित करने वालों में यम देव ।
 प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
 मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥१०- ३०॥
दैत्यों में मैं भक्त प्रह्लाद हूँ । परिवर्तन शीलों में मैं समय हूँ । हिरणों में मैं उनका इन्द्र अर्थात शेर हूँ और पक्षियों में वैनतेय (गरुड) ।
 पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
 झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥१०- ३१॥
पवित्र करने वालों में मैं पवन (हवा) हूँ और शस्त्र धारण करने वालों में भगवान राम । मछलियों में मैं मकर हूँ और नदीयों में जाह्नवी (गँगा) ।
 सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
 अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥१०- ३२॥
सृष्टि का आदि, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ हे अर्जुन । सभी विद्याओं मे से अध्यात्म विद्या मैं हूँ । और वाद विवाद करने वालों के वाद में तर्क मैं हूँ ।
 अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च ।
 अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥१०- ३३॥
अक्षरों में अ मैं हूँ । मैं ही अन्तहीन (अक्षय) काल (समय) हूँ । मैं ही धाता हूँ (पालन करने वाला), मैं ही विश्व रूप (हर ओर स्थित हूँ) ।
 मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
 कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥१०- ३४॥
सब कुछ हर लेने वीली मृत्यु भी मैं हूँ और भविष्य में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्पत्ति भी मैं ही हूँ । नारीयों में कीर्ति (यश), श्री (धन संपत्ति सत्त्व), वाक शक्ति (बोलने की शक्ति), स्मृति (यादाश्त), मेधा (बुद्धि), धृति (स्थिरता) और क्षमा मैं हूँ ।
 बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
 मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥१०- ३५॥
गाये जाने वाली श्रुतियों (सामों) में मैं बृहत्साम हूँ और वैदिक छन्दों में गायत्री । महानों में मैं मार्ग-शीर्ष हूँ और ऋतुयों में कुसुमाकर (फूलों को करने वाली अर्थात वसन्त) ।
 द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
 जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥१०- ३६॥
छल करने वालों का जुआ मैं हूँ और तेजस्वियों का तेज मैं हूँ । मैं ही विजय (जीत) हूँ, मैं ही सही निश्चय (सही मार्ग) हूँ । मैं ही सात्विकों का सत्त्व हूँ ।
 वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः ।
 मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥१०- ३७॥
वृष्णियों में मैं वासुदेव हूँ और पाण्डवों में धनंजय (अर्जुन) । मुनियों में मैं भगवान व्यास मुनि हूँ और सिद्ध कवियों में मैं उशना कवि (शुक्राचार्य) हूँ ।
 दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
 मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥१०- ३८॥
दमन (लागू) करने वालों में दण्ड नीति मैं हूँ और विजय की इच्छा रखने वालों में न्याय (नीति) मैं हूँ । गोपनीय बातों में मौनता मैं हूँ और ज्ञानियों का ज्ञान मैं हूँ ।
 यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
 न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥१०- ३९॥
जितने भी जीव हैं हे अर्जुन, उन सबका बीज मैं हूँ । ऍसा कोई भी चर अचर (चलने या न चलने वाला) जीव नहीं है जो मेरे बिना हो ।
 नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
 एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥१०- ४०॥
मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है हे परन्तप । मैने अपनी इन विभूतियों की विस्तार तुम्हें केवल कुछ उदाहरण देकर ही बताया है ।
 यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
 तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् ॥१०- ४१॥
जो कुछ भी (प्राणी, वस्तु आदि) विभूति मयी है, सत्त्वशील है, श्री युक्त हैं अथवा शक्तिमान है, उसे तुम मेरे ही अंश के तेज से उत्पन्न हुआ जानो ।
 अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
 विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥१०- ४२॥
और इस के अतिरिक्त बहुत कुछ जानने की तुम्हें क्या आवश्यकता है हे अर्जुन । मैंने इस संपूर्ण जगत को अपने एक अंश मात्र से प्रवेश करके स्थित कर रखा है ।

 


॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


ग्यारवाँ अध्याय
अर्जुन उवाच
 मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् ।
 यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥११- १॥
मुझ पर अनुग्रह कर आपने यह परम गुह्य अध्यात्म ज्ञान जो मुझे बताया, आपके इन वचनों से मेरा मोह (अन्धकार) चला गया है ।
 भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
 त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥११- २॥
हे कमलपत्र नयन, मैंने आपसे सभी प्राणियों की उत्पत्ति और अन्त को विस्तार से सुना है और हे अव्यय, आपके महात्मय का वर्णन भी ।
 एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
 द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥११- ३॥
जैसा आप को बताया जाता है, है परमेश्वर, आप वैसे ही हैं । हे पुरुषोत्तम, मैं आप के ईश्वर रुप को देखना चाहता हूँ ।
 मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
 योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥११- ४॥
हे प्रभो, यदि आप मानते हैं कि आपके उस रुप को मेरे द्वारा देख पाना संभव है, तो हे योगेश्वर, मुझे आप अपने अव्यय आत्म स्वरुप के दर्शन करवा दीजिये ।
श्रीभगवानुवाच
 पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
 नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥११- ५॥
हे पार्थ, तुम मेरे रुपों का दर्शन करो । सैंकड़ों, हज़ारों, भिन्न भिन्न प्रकार के, दिव्य, भिन्न भिन्न वर्णों और आकृतियों वाले ।
 पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
 बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥११- ६॥
हे भारत, तुम आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनों, और मरुदों को देखो । और बहुत से पहले कभी न देखे गये आश्चर्यों को भी देखो ।
 इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
 मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि ॥११- ७॥
हे गुडाकेश, तुम मेरी देह में एक जगह स्थित इस संपूर्ण चर-अचर जगत को देखो । और भी जो कुछ तुम्हे देखने की इच्छा हो, वह तुम मेरी इस देह सकते हो ।
 न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
 दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥११- ८॥
लेकिन तुम मुझे अपने इस आँखों से नहीं देख सकते । इसलिये, मैं तुम्हे दिव्य चक्षु (आँखें) प्रदान करता हूँ जिससे तुम मेरे योग ऍश्वर्य का दर्शन करो ।
संजय उवाच
 एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
 दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥११- ९॥
यह बोलने के बाद, हे राजन, महायोगेश्वर हरिः ने पार्थ को अपने परम ऍश्वर्यमयी रुप का दर्शन कराया ।
 अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
 अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥११- १०॥
अर्जुन ने देखा कि भगवान के अनेक मुख हैं, अनेक नेत्र हैं, अनेक अद्भुत दर्शन (रुप) हैं । उन्होंने अनेक दिव्य अभुषण पहने हुये हैं, और अनेकों दिव्य आयुध (शस्त्र) धारण किये हुये हैं ।
 दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
 सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥११- ११॥
उन्होंने दिव्य मालायें और दिव्य वस्त्र धारण किये हुये हैं, दिव्य गन्धों से लिपित हैं । सर्व ऍश्वर्यमयी वे देव अनन्त रुप हैं, विश्व रुप (हर ओर स्थित) हैं ।
 दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
 यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥११- १२॥
यदि आकाश में हज़ार (सहस्र) सूर्य भी एक साथ उदय हो जायें, शायद ही वे उन महात्मा के समान प्रकाशमयी हो पायें ।
 तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
 अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥११- १३॥
तब पाण्डव (अर्जुन) ने उन देवों के देव, भगवान् हरि के शरीर में एक स्थान पर स्थित, अनेक विभागों में बंटे संपूर्ण संसार (कृत्स्न जगत) को देखा ।
 ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः ।
 प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥११- १४॥
तब विस्मय (आश्चर्य) पू्र्ण होकर जिसके रोंगटे खड़े हो गये थे, उस धनंजयः ने उन देव को सिर झुका कर प्रणाम किया और हाथ जोड़ कर बोले ।
अर्जुन उवाच
 पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान् ।
 ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥११- १५॥
हे देव, मुझे आप के देह में सभी देवता और अन्य समस्त जीव समूह, कमल आसन पर स्थित ब्रह्मा ईश्वर, सभी ऋषि, और दिव्य सर्प दिख रहे हैं ।
 अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
 नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर  विश्वरूप ॥११- १६॥
अनेक बाहें, अनेक पेट, अनेक मुख, अनेक नेत्र, हे देव, मैं आप को हर जगह देख रहा हूँ, हे अनन्त रुप । ना मुझे आपका अन्त, न मध्य, और न ही आदि (शुरुआत) दिख रहा, हे विश्वेश्वर (विश्व के ईश्वर), हे विश्व रुप (विश्व का रुप धारण किये हुये) ।
 किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
 पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥११- १७॥
मुकुट, गदा और चक्र धारण किये, और अपनी तेजोराशि से संपूर्ण दिशाओं को दीप्त करते हुये, हे भगवन्, आप को मैं देखता हूँ, लेकिन आपका निरीक्षण करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि आप समस्त ओर से प्रकाशमयी, अप्रमेय (जिसके समान कोई न हो) तेजोमयी हैं ।
 त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
 त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥११- १८॥
आप ही अक्षर (जिसका कभी नाश नहीं होता) हैं, आप ही परम हैं, आप ही जानना ज़रुरी है (जिन्हें जाना जाना चाहिये), आप ही इस विश्व के परम निधान (आश्रय) हैं । आप ही अव्यय (विकार हीन) हैं, मेरे मत में आप ही शाश्वत धर्म के रक्षक सनातन पुरुष हैं ।
 अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
 पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥११- १९॥
आप आदि, मध्य और अन्त रहित (अनादिमध्यान्तम), अनन्त वीर्य (पराक्रम), अनन्त बाहू (बाजुयें) हैं । चन्द्र (शशि) और सूर्य आपके नेत्र हैं । हे भगवन, मैं आपके आग्नि पूर्ण प्रज्वलित वक्त्रों (मूँहों) को देखता हूँ जो अपने तेज से इस विश्व को तपा (गरमा) रहे हैं ।
 द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
 दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥११- २०॥
स्वर्ग (आकाश) और पृथिवी के बीच में जो भी स्थान है, सभी दिशाओं में, वह केवल एक आप के द्वारा ही व्याप्त है (स्वर्ग से लेकर पृथिवी तक केवल आप ही हैं) । आप के इस अद्भुत उग्र (घोर) रूप को देख कर, हे महात्मा, तीनों लोक प्रव्यथित (भय व्याकुल) हो रहे हैं ।
 अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
 स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥११- २१॥
आप ही में देवता गण प्रवेश कर रहे हैं । कुछ भयभीत हुये हाथ जोड़े आप की स्तुति कर रहे हैं । महर्षी और सिद्ध गण स्वस्ति (कल्याण हो) उच्चारण कर उत्तम स्तुतियों द्वारा आप की प्रशंसा कर रहे हैं ।
 रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
 गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥११- २२॥
रूद्र, आदित्य, वसु, साध्य गण, विश्वदेव, अश्विनी कुमार, मरूत गण, पितृ गण, गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध गण - सब आप को विस्मय से देखते हैं ।
 रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् ।
 बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥११- २३॥
हे महाबाहो, बहुत से मुख, बहुत से नेत्र, बहुत सी बाहुयें, बहुत सी जँगाऐं (उरु), पैर, बहुत से उदर (पेट), बहुत से विकराल दांतो वाले इस महान् रूप को देख कर यह संसार प्रव्यथित (भयभीत) हो रहा है और मैं भी ।
 नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
 दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥११- २४॥
आकाश को छूते, अनेकों प्रकार (वर्णों) वाले आपके दीप्तमान रूप, जिनके खुले हुये विशाल मुख हैं और प्रज्वलित (दिप्तमान) विशाल नेत्र हैं - आपके इस रुप को देख कर मेरी अन्तर आत्मा भयभीत (प्रव्यथित) हो रही है । न मुझे धैर्य मिल रहा हैं, हे विष्णु, और न ही शान्ति ।
 दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि ।
 दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥११- २५॥
आपके विकराल भयानक दाँतो को देख कर और काल-अग्नि के समान भयानक प्रज्वलित मुखों को देख कर मुझे दिशाओं कि सुध नहीं रही, न ही मुझे शान्ति प्राप्त हो रही है । प्रसन्न होईये हे देवेश (देवों के ईश), हे जगन्-निवास ।
 अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।
 भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥११- २६॥
 वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
 केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः ॥११- २७॥
धृतराष्ट्र के सभी पुत्र और उनके साथ और भी राजा लोग, श्री भीष्म, द्रोण, तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी कई मुख्य योधा आप के भयानक विकराल दाँतों वाले मुखों में प्रवेश कर रहे हैं । और आप के दाँतों मे बीच फसें कईयों के सिर चूर्ण हुये दिखाई दे रहे हैं ।
 यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
 तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥११- २८॥
जैसे नदियों के अनेक जल प्रवाह वेग से समुद्र में प्रवेश करते हैं (की ओर बढते हैं), वैसे ही नर लोक (मनुष्य लोक) के यह योद्धा आप के प्रज्वलित मुखों में प्रवेश करते हैं ।
 यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
 तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥११- २९॥
जैसे जलती अग्नि में पतंगे बहुत तेज़ी से अपने ही नाश के लिये प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार अपने नाश के लिये यह लोग अति वेग से आप के मुखों में प्रवेश करते हैं ।
 लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
 तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥११- ३०॥
अपने प्रज्वलित मुखों से इन संपूर्ण लोकों को निगलते हुये और हर ओर से समेटते हुये, हे विष्णु, आपका यह उग्र प्रकाश संपूर्ण जगत में फैल कर इन लोकों को तपा रहा है ।
 आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
 विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥११- ३१॥
इस उग्र रुप वाले आप कौन हैं, मुझ से कहिये । आप को प्रणाम है हे देववर, प्रसन्न होईये । हे आदिदेव, मैं आप को अनुभव सहित जानना चाहता हूँ । मैं आपकी प्रवृत्ति अर्थात इस रुप लेने के कारण को नहीं जानता ।
श्रीभगवानुवाच
 कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
 ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥११- ३२॥
मैं संसार का क्षय करने के लिये प्रवृद्ध (बढा) हुआ काल हूँ । और इस समय इन लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हूँ । तुम्हारे बिना भी, यहाँ तुम्हारे विपक्ष में जो योद्धा गण स्थित हैं, वे भविष्य में नहीं रहेंगे ।
 तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
 मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥११- ३३॥
इसलिये तुम उठो और अपने शत्रुयों को जीत कर यश प्राप्त करो और समृद्ध राज्य भोगो । तुम्हारे यह शत्रु मेरे द्वारा पैहले से ही मारे जा चुके हैं, हे सव्यसाचिन्, तुम केवल निमित्त-मात्र (कहने को) ही बनो ।
 द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
 मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥११- ३४॥
द्रोण, श्री भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य वीर योधा भी, मेरे द्वारा (पहले ही) मारे जा चुके हैं । व्यथा (गलत आग्रह) त्यागो और युध करो, तुम रण में अपने शत्रुओं को जीतोगे ।
संजय उवाच
 एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी ।
 नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥११- ३५॥
श्री केशव के इन वचनों को सुन कर मुकुटधारी अर्जुन ने हाथ जोड़ कर श्री कृष्ण को नमस्कार किया और काँपते हुये भयभीत हृदय से फिरसे प्रणाम करते हुये बोले ।
अर्जुन उवाच
 स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
 रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥११- ३६॥
यह योग्य है, हे हृषीकेश, कि यह जगत आप की कीर्ती का गुणगान कर हर्षित होतै है और अनुरागित (प्रेम युक्त) होता है । आप से भयभीत हो कर राक्षस हर दिशाओं में भाग रहे हैं और सभी सिद्ध गण आपको नमस्कार कर रहे हैं ।
 कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
 अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥११- ३७॥
और हे महात्मा, आपको नमस्कार करें भी क्यों नहीं । आप ही सबसे बढकर हैं, ब्रह्मा जी के भी आदि कर्ता हैं (ब्रह्मा जी के भी आदि हैं) । आप ही अनन्त हैं, देव-ईश हैं, जगत्-निवास हैं । आप ही अक्षर हैं, आप ही सत् और असत् हैं, और उन संज्ञाओं से भी परे जो है वह भी आप ही हैं ।
 त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
 वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥११- ३८॥
आप ही आदि-देव (पुरातन देव) हैं, सनातन पुरुष हैं, आप ही इस संसार के परम आश्रय (निधान) हैं । आप ही ज्ञाता हैं और ज्ञेय (जिन्हें जानना चाहिये) हैं । आप ही परम धाम हैं और आप से ही यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, हे अनन्त रुप ।
 वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
 नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥११- ३९॥
आप ही वायु हैं, आप ही यम हैं, आप ही अग्नि हैं, आप ही वरुण (जल देवता) हैं, आप ही चन्द्र हैं, प्रजापति भी आप ही हैं, और प्रपितामहा (पितामह अर्थात पिता-के-पिता के भी पिता) भी आप हैं । आप को नमस्कार है, नमस्कार है, सहस्र (हज़ार) बार मैं आपको नमस्कार करता हूँ । और फिर से आपको नमस्कार है, नमस्कार है ।
 नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
 अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥११- ४०॥
हे सर्व, आप को आगे से नमस्कार है, पीछे से भी नमस्कार है, हर प्रकार से नमस्कार है । हे अनन्त वीर्य, हे अमित विक्रमशाली, सबमें आप समाये हुये हैं (व्याप्त हैं), आप ही सब कुछ हैं ।
 सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
 अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥११- ४१॥
हे भगवन्, आप को केवल आपना मित्र ही मान कर मैंने प्रमादवश (मूर्खता कारण) यां प्रेम वश आपको जो हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा (मित्र) - कह कर संबोधित किया, आप के महिमानता को न जानते हुये ।
 यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
 एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥११- ४२॥
और हास्य मज़ाक करते हुये, या चलते फिरते, लेटे हुये, बैठे हुये अथवा भोजन करते हुये, अकेले में या आप के सामने मैंने जो भी असत् व्यवहार किया हो (जितना आदर पूर्ण व्यहार करना चाहिये उतना न किया हो) उसके लिये, हे अप्रमेय, आप मुझे क्षमा कर दीजिये ।
 पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
 न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥११- ४३॥
आप इस चर-अचर लोक के पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं, परम् गुरू हैं । हे अप्रतिम प्रभाव, इन तीनो लोकों में आप के बराबर (समान) ही कोई नहीं है, आप से बढकर तो कौन होगा भला ।
 तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
 पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥११- ४४॥
इसलिये मैं झुक कर आप को प्रणाम करता, मुझ से प्रसन्न होईये हे ईश्वर । जैसे एक पिता अपने पुत्र के, मित्र आपने मित्र के, औप प्रिय आपने प्रिय की गलतियों को क्षमा कर देता है, वैसे ही हे देव, आप मुझे क्षमा कर दीजिये ।
 अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
 तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥११- ४५॥
जो मैंने पहले कभी नहीं देखा, आप के इस रुप को देख लेने पर मैं अति प्रसन्न हो रहा हूँ, और साथ ही साथ मेरा मन भय से प्रव्यथित (व्याकुल) भी हो रहा है । हे भगवन्, आप कृप्या कर मुझे अपना सौम्य देव रुप (चार बाहों वाला रुप) ही दिखाईये । प्रसन्न होईये, हे देवेश, हे जगन्निवास (इस जगत के निवास स्थान) ।
 किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
 तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥११- ४६॥
मैं आप को मुकुट धारण किये, और हाथों में गदा और चक्र धारण किये देखने का इच्छुक हूँ । हे भगवन्, आप चतुर्भुज (चार भुजाओं वाला) रुप धारण कर लीजिये, हे सहस्र बाहो (हज़ारों बाहों वाले), हे विश्व मूर्ते (विश्व रूप) ।
श्रीभगवानुवाच
 मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
 तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥११- ४७॥
हे अर्जुन, तुम पर प्रसन्न होकर मैंने तुम्हे अपनी योगशक्ति द्वारा इस परम रूप का दर्शन कराया है । मेरे इस तेजोमयी, अनन्त, आदि विश्व रूप को तुमसे पहले किसी ने नहीं देखा है ।
 न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
 एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥११- ४८॥
हे कुरुप्रवीर (कुरूओं में श्रेष्ठ वीर), तुम्हारे अतिरिक्त इस नर लोक में कोई भी वेदों द्वारा, यज्ञों द्वारा, अध्ययन द्वारा, दान द्वारा, या क्रयाओं द्वारा (योग क्रियाऐं आदि), या फिर उग्र तप द्वारा भी मेरे इस रुप को नहीं देख सकता ।
 मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
 व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥११- ४९॥
मेरे इस घोर रुप को देख कर न तुम व्यथा करो न मूढ भाव हो (अतः भयभीत और स्तब्ध न हो) । तुम भयमुक्त होकर फिर से प्रिति पूर्ण मन से (प्रसन्न चित्त से) मेरे इस (सौम्य) रूप को देखो ।
संजय उवाच
 इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
 आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥११- ५०॥
अर्जुन को यह कह कर वासुदेव ने फिर से उन्हें अपने (सौम्य) रुप के दर्शन कराये । इस प्रकार उन महात्मा (भगवान्) ने भयभीत हुये अर्जुन को अपना सौम्य रूप दिखा कर आश्वासन दिया ।
अर्जुन उवाच
 दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
 इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥११- ५१॥
हे जनार्दन, आपके इस सौम्य (मधुर) मानुष रूप को देख कर शान्तचित्त हो कर अपनी प्रकृति को प्राप्त हो गया हूँ (अर्थात अब मेरी सुध बुध वापिस आ गई है) ।
श्रीभगवानुवाच
 सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
 देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥११- ५२॥
मेरा यह रूप जो तुमने देखा है, इसे देख पाना अत्यन्त कठिन (अति दुर्लभ) है । इसे देखने की देवता भी सदा कामना करते हैं ।
 नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
 शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥११- ५३॥
न मुझे वेदों द्वारा, न तप द्वारा, न दान द्वारा और न ही यज्ञ द्वारा इस रूप में देखा जा सकता है, जिस रूप में मुझे तुमने देखा है हे अर्जुन ।
 भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
 ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥११- ५४॥
लेकिन अनन्य भक्ति द्वारा, हे अर्जुन, मुझे इस प्रकार (रूप को) जाना भी जा सकता है, देखा भी जा सकता है, और मेरे तत्व (सार) में प्रवेष भी किया जा सकता है हे परंतप ।
 मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
 निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥११- ५५॥
जो मनुष्य मेरे लिये ही कर्म करता है, मुझी की तरफ लगा हुआ है, मेरा भक्त है, और संग रहित है (दूसरी चीज़ों, विषयों के चिन्तन में डूबा हुआ नहीं है), सभी जीवों की तरफ वैर रहित है, वह भक्त मुझे प्राप्त करता है हे पाण्डव ।

 


तेरहँवां अध्याय
श्रीभगवानुवाच
 इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
 एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥१३- १॥
इस शरीर को, हे कौन्तेय, क्षेत्र कहा जाता है । और ज्ञानी लोग इस क्षेत्र को जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं ।
 क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
 क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥१३- २॥
सभी क्षोत्रों में तुम मुझे ही क्षेत्रज्ञ जानो हे भारत (सभी शरीरों में मैं क्षेत्रज्ञ हूँ) । इस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान (समझ) ही वास्तव में ज्ञान है, मेरे मत से ।
 तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
 स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥१३- ३॥
वह क्षेत्र जो है और जैसा है, और उसके जो विकार (बदलाव) हैं, और जिस से वो उत्पन्न हुआ है, और वह क्षेत्रज्ञ जो है, और जो इसका प्रभाव है, वह तुम मुझ से संक्षेप में सुनो ।
 ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
 ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥१३- ४॥
ऋषियों ने बहुत से गीतों में और विविध छन्दों में पृथक पृथक रुप से इन का वर्णन किया है । तथा सोच समझ कर संपूर्ण तरह निश्चित कर के ब्रह्म सूत्र के पदों में भी इसे बताया गया है ।
 महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
 इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥१३- ५॥
महाभूत (मूल प्राकृति), अहंकार (मैं का अहसास), बुद्धि, अव्यक्त प्रकृति (गुण), दस इन्द्रियाँ (पाँच इन्द्रियां और मन और कर्म अंग), और पाँचों इन्द्रियों के विषय ।
 इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः ।
 एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥१३- ६॥
इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघ (देह समूह), चेतना, धृति (स्थिरता) - यह संक्षेप में क्षेत्र और उसके विकार बताये गये हैं ।
 अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
 आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥१३- ७॥
अभिमान न होना (स्वयं के मान की इच्छा न रखना), झुठी दिखावट न करना, अहिंसा (जीवों की हिंसा न करना), शान्ति, सरलता, आचार्य की उपासना करना, शुद्धता (शौच), स्थिरता और आत्म संयम ।
 इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
 जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥१३- ८॥
इन्द्रियों के विषयों के प्रति वैराग्य (इच्छा शून्यता), अहंकार का अभाव, जन्म मृत्यु जरा (बुढापे) और बिमारी (व्याधि) के रुप में जो दुख दोष है उसे ध्यान में रखना (अर्थात इन से मुक्त होने का प्रयत्न करना) ।
 असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
 नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥१३- ९॥
आसक्ति से मुक्त रहना (संग रहित रहना), पुत्र, पत्नी और गृह आदि को स्वयं से जुड़ा न देखना (ऐकात्मता का भाव न होना), इष्ट (प्रिय) और अनिष्ट (अप्रिय) का प्राप्ति में चित्त का सदा एक सा रहना ।
 मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
 विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥१३- १०॥
मुझ में अनन्य अव्यभिचारिणी (स्थिर) भक्ति होना, एकान्त स्थान पर रहने का स्वभाव होना, और लोगों से घिरे होने को पसंद न करना ।
 अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
 एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३- ११॥
सदा अध्यात्म ज्ञान में लगे रहना, तत्त्व (सार) का ज्ञान होना, और अपनी भलाई (अर्थ अर्थात भगवात् प्राप्ति जिसे परमार्थ - परम अर्थ कहा जाता है) को देखना, इस सब को ज्ञान कहा गया है, और बाकी सब अज्ञान है ।
 ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
 अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥१३- १२॥
जो ज्ञेय है (जिसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये), मैं उसका वर्णन करता हूँ, जिसे जान कर मनुष्य अमरता को प्राप्त होता है । वह (ज्ञेय) अनादि है (उसका कोई जन्म नहीं है), परम ब्रह्म है । न उसे सत कहा जाता है, न असत् कहा जाता है (वह इन संज्ञाओं से परे है) ।
 सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
 सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१३- १३॥
हर ओर हर जगह उसके हाथ और पैर हैं, हर ओर हर जगह उसके आँखें और सिर तथा मुख हैं, हर जगह उसके कान हैं । वह इस संपूर्ण संसार को ढक कर (हर जगह व्याप्त हो) विराजमान है ।
 सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
 असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥१३- १४॥
वह सभी इन्द्रियों से वर्जित होते हुये सभी इन्द्रियों और गुणों को आभास करता है । वह असक्त होते हुये भी सभी का भरण पोषण करता है । निर्गुण होते हुये भी सभी गुणों को भोक्ता है ।
  बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
 सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥१३- १५॥
वह सभी चर और अचर प्राणियों के बाहर भी है और अन्दर भी । सूक्षम होने के कारण उसे देखा नहीं जा सकता । वह दुर भी स्थित है और पास भी ।
 अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
 भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥१३- १६॥
सभी भूतों (प्राणियों) में एक ही होते हुये भी (अविभक्त होते हुये भी) विभक्त सा स्थित है । वहीं सभी प्राणियों का पालन पोषण करने वाला है, वहीं ज्ञेयं (जिसे जाना जाना चाहिये) है, ग्रसिष्णु है, प्रभविष्णु है ।
 ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
 ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥१३- १७॥
सभी ज्योतियों की वही ज्योति है । उसे तमसः (अन्धकार) से परे (परम) कहा जाता है । वही ज्ञान है, वहीं ज्ञेय है, ज्ञान द्वारा उसे प्राप्त किया जाता है । वही सब के हृदयों में विराजमान है ।
 इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
 मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥१३- १८॥
इस प्रकार तुम्हें संक्षेप में क्षेत्र (यह शरीर आदि), ज्ञान और ज्ञेय (भगवान) का वर्णन किया है । मेरा भक्त इन को समझ जाने पर मेरे स्वरुप को प्राप्त होता है ।
 प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
 विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥१३- १९॥
तुम प्रकृति और पुरुष दोनो की ही अनादि (जन्म रहित) जानो । और विकारों और गुणों को तुम प्रकृति से उत्पन्न हुआ जानो ।
 कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
 पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥१३- २०॥
कार्य के साधन और कर्ता होने की भावना में प्रकृति को कारण बताया जाता है । और सुख दुख के भोक्ता होने में पुरुष को उसका कारण कहा जाता है ।
 पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‌क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
 कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥१३- २१॥
यह पुरुष (आत्मा) प्रकृति में स्थित हो कर प्रकृति से ही उत्पन्न हुये गुणों को भोक्ता है । इन गुणों से संग (जुडा होना) ही पुरुष का सद और असद योनियों में जन्म का कारण है ।
 उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
 परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥१३- २२॥
यह पुरुष (जीव आत्मा) इस देह में स्थित होकर देह के साथ संग करता है इसलिये इसे उपद्रष्टा कहा जाता है, अनुमति देता है इसलिये इसे अनुमन्ता कहा जा सकता है, स्वयं को देह का पालन पोषण करने वाला समझने के कारण इसे भर्ता कहा जा सकता है, और देह को भोगने के कारण भोक्ता कहा जा सकता है, स्वयं को देह का स्वामि समझने के कारण महेष्वर कहा जा सकता है । लेकिन स्वरूप से यह परमात्मा तत्व ही है अर्थात इस का देह से कोई संबंध नहीं ।
 य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
 सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥१३- २३॥
जो इस प्रकार पुरुष और प्रकृति तथा प्रकृति में स्थित गुणों के भेद को जानता है, वह मनुष्य सदा वर्तता हुआ भी दोबारा फिर मोहित नहीं होता ।
 ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
 अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥१३- २४॥
कोई ध्यान द्वारा अपने ही आत्मन से अपनी आत्मा को देखते हैं, अन्य सांख्य ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करते हैं, तथा अन्य कई कर्म योग द्वारा ।
 अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
 तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥१३- २५॥
लेकिन दूसरे कई इसे न जानते हुये भी जैसा सुना है उस पर विश्वास कर, बताये हुये की उपासना करते हैं । वे श्रुति परायण (सुने हुये पर विश्वास करते और उसका सहारा लेते) लोग भी इस मृत्यु संसार को पार कर जाते हैं ।
 यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
 क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥१३- २६॥
हे भरतर्षभ, जो भी स्थावर यां चलने-फिरने वाले जीव उत्पन्न होते हैं, तुम उन्हें इस क्षेत्र (शरीर तथा उसके विकार आदि) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के संयोग से ही उत्पन्न हुआ समझो ।
 समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
 विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥१३- २७॥
परमात्मा सभी जीवों में एक से स्थित हैं । विनाश को प्राप्त होते इन जीवों में जो अविनाशी उन परमात्मा को देखता है, वही वास्तव में देखता है ।
 समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
 न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥१३- २८॥
हर जगह इश्वर को एक सा अवस्थित देखता हुआ जो मनुष्य सर्वत्र समता से देखता है, वह अपने ही आत्मन द्वारा अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परम पति को प्राप्त करता है ।
 प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
 यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥१३- २९॥
जो प्रकृति को ही हर प्रकार से सभी कर्म करते हुये देखता है, और स्वयं को अकर्ता (कर्म न करने वाला) जानता है, वही वास्तव में सत्य देखता है ।
 यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
 तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥१३- ३०॥
जब वह इन सभी जीवों के विविध भावों को एक ही जगह स्थित देखता है (प्रकृति में) और उसी एक कारण से यह सारा विस्तार देखता है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
 अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
 शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥१३- ३१॥
हे कौन्तेय, जीवात्मा अनादि और निर्गुण होने के कारण विकारहीन (अव्यय) परमात्मा तत्व ही है । यह शरीर में स्थित होते हुये भी न कुछ करती है और न ही लिपती है ।
 यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
 सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥१३- ३२॥
जैसे हर जगह फैला आकाश सूक्षम होने के कारण लिपता नहीं है उसी प्रकार हर जगह अवस्थित आत्मा भी देह से लिपती नहीं है ।
 यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
 क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥१३- ३३॥
जैसे एक ही सूर्य इस संपूर्ण संसार को प्रकाशित कर देता है, उसी प्रकार हे भारत, क्षेत्री (आत्मा) भी क्षेत्र को प्रकाशित कर देती है ।
 क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
 भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥१३- ३४॥
इस पर्कार जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बीच में ज्ञान दृष्टि से भेद देखते हैं और उन को अलग अलग जानते हैं, वे इस प्रकृति से विमुक्त हो परम गति को प्राप्त करते हैं ।

 


।। ॐ नमः भगवते वासेदुवाय ।।


चौदहवाँ अध्याय
श्री भगवान बोले:
 परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
 यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥१४- १॥
हे अर्जुन, मैं फिर से तुम्हें वह बताता हूँ जो सभी ज्ञानों में से उत्तम ज्ञान है । इसे जान कर सभी मुनी परम सिद्धि को प्राप्त हुये हैं ।
 इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
 सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥१४- २॥
इस ज्ञान का आश्रय ले जो मेरी स्थित को प्राप्त कर चुके हैं, वे सर्ग के समय फिर जन्म नहीं लेते, और न ही प्रलय में व्यथित होते हैं ।
 मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
 संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥१४- ३॥
हे भारत, यह महद् ब्रह्म (मूल प्रकृति) योनि है, और मैं उसमें गर्भ देता हूँ । इस से ही सभी जीवों का जन्म होता है हे भारत ।
 सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः ।
 तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥१४- ४॥
हे कौन्तेय, सभी योनियों में जो भी जीव पैदा होते हैं, उनकी महद् ब्रह्म तो योनि है (कोख है), और मैं बीज देने वाला पिता हूँ ।
 सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः ।
 निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥१४- ५॥
हे माहाबाहो, सत्त्व, रज और तम - प्रकृति से उत्पन्न होने वाले यह तीन गुण अविकारी अव्यय आत्मा को देह में बाँधते हैं ।
 तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
 सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥१४- ६॥
हे आनघ (पापरहित), उन में से सत्त्व निर्मल और प्रकाशमयी, पीडा रहित होने के कारण सुख के संग और ज्ञान द्वारा आत्मा को बाँधता है ।
 रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
 तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥१४- ७॥
तृष्णा (भूख, इच्छा) और आसक्ति से उत्पन्न रजो गुण को तुम रागात्मक जानो । यह देहि (आत्मा) को कर्म के प्रति आसक्ति से बाँधता है, हे कौन्तेय ।
 तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
 प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥१४- ८॥
तम को लेकिन तुम अज्ञान से उत्पन्न हुआ जानो जो सभी देहवासीयों को मोहित करता है । हे भारत, वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा द्वारा आत्मा को बाँधता है ।
 सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत ।
 ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥१४- ९॥
सत्त्व सुख को जन्म देता है, रजो गुण कर्मों (कार्यों) को, हे भारत । लेकिन तम गुण ज्ञान को ढक कर प्रमाद (अज्ञानता, मुर्खता) को जन्म देता है ।
 रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
 रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥१४- १०॥
हे भारत, रजो गुण और तमो गुण को दबा कर सत्त्व बढता है, सत्त्व और तमो गुण को दबा कर रजो गुण बढता है, और रजो और सत्त्व को दबाकर तमो गुण बढता है ।
 सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
 ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥१४- ११॥
जब देह के सभी द्वारों में प्रकाश उत्पन्न होता है और ज्ञान बढता है, तो जानना चाहिये की सत्त्व गुण बढा हुआ है ।
 लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
 रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥१४- १२॥
हे भरतर्षभ, जब रजो गुण की वृद्धि होती है तो लोभ प्रवृत्ति और उद्वेग से कर्मों का आरम्भ, स्पृहा (अशान्ति) होते हैं ।
 अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
 तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥१४- १३॥
हे कुरुनन्दन । तमो गुण के बढने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति (न करने की इच्छा), प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं ।
 यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
 तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥१४- १४॥
जब देहभृत सत्त्व के बढे होते हुये मृत्यु को प्राप्त होता है, तब वह उत्तम ज्ञानमंद लोगों के अमल (स्वच्छ) लोकों को जाता है ।
 रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
 तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥१४- १५॥
रजो गुण की बढोती में जब जीव मृत्यु को प्राप्त होता है, तो वह कर्मों से आसक्त जीवों के बीच जन्म लेता है । तथा तमो गुण की वृद्धि में जब मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह मूढ योनियों में जन्म लेता है ।
 कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
 रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥१४- १६॥
सात्विक (सत्त्व गुण में आधारित) अच्छे कर्मों का फल भी निर्मल बताया जाता है, राजसिक कर्मों का फल लेकिन दुख ही कहा जाता है, और तामसिक कर्मों का फल अज्ञान ही है ।
 सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
 प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥१४- १७॥
सत्त्व ज्ञान को जन्म देता है, रजो गुण लोभ को । तमो गुण प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न करता है ।
 ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
 जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥१४- १८॥
सत्त्व में स्थित प्राणि ऊपर उठते हैं, रजो गुण में स्थित लोग मध्य में ही रहते हैं (अर्थात न उनका पतन होता है न उन्नति), लेकिन तामसिक जघन्य गुण की वृत्ति में स्थित होने के कारण (निंदनीय तमो गुण में स्थित होने के कारण) नीचें को गिरते हैं (उनका पतन होता है) ।
 नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
 गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥१४- १९॥
जब मनुष्य गुणों के अतिरिक्त और किसी को भी कर्ता नहीं देखता समझता (स्वयं और दूसरों को भी अकर्ता देखता है), केवल गुणों को ही गर्ता देखता है, और स्वयं को गुणों से ऊपर (परे) जानता है, तब वह मेरे भाव को प्राप्त करता है ।
 गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
 जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥१४- २०॥
इन तीनों गुणों को, जो देह की उत्पत्ति का कारण हैं, लाँघ कर देही अर्थात आत्मा जन्म, मृत्यु और जरा आदि दुखों से विमुक्त हो अमृत का अनुभव करता है ।

अर्जुन जी बोले:
 कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
 किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥१४- २१॥
हे प्रभो, इन तीनो गुणों से अतीत हुये मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं । उस का क्या आचरण होता है । वह तीनों गुणो से कैसे पार होता है ।
श्रीभगवान बोले:
 प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
 न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥१४- २२॥
हे पाण्डव, तानों गुणों से ऊपर उठा महात्मा न प्रकाश (ज्ञान), न प्रवृत्ति (रजो गुण), न ही मोह (तमो गुण) के बहुत बढने पर उन से द्वेष करता है और न ही लोप हो जाने पर उन की इच्छा करता है ।
 उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
 गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥१४- २३॥
जो इस धारणा में स्थित रहता है की गुण ही आपस में वर्त रहे हैं, और इसलिये उदासीन (जिसे कोई मतलब न हो) की तरह गुणों से विचलित न होता, न ही उन से कोई चेष्ठा करता है ।
 समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
 तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥१४- २४॥
सुख और दुख में एक सा, अपने आप में ही स्थित जो मिट्टि, पत्थर और सोने को एक सा देखता है । जो प्रिय और अप्रिय की एक सी तुलना करता है, जो धीर मनुष्य निंदा और आत्म संस्तुति (प्रशंसा) को एक सा देखता है ।
 मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
 सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥१४- २५॥
जो मान और अपमान को एक सा ही तोलता है (बराबर समझता है), मित्र और विपक्षी को भी बराबर देखता है । सभी आरम्भों का त्याग करने वाला है, ऐसे महात्मा को गुणातीत (गुणों के अतीत) कहा जाता है ।

 मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
 स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥१४- २६॥
और जो मेरी अव्यभिचारी भक्ति करता है, वह इन गुणों को लाँघ कर ब्रह्म की प्राप्ति करने का पात्र हो जाता है ।
 ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
 शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥१४- २७॥
क्योंकि मैं ही ब्रह्म का, अमृतता का (अमरता का), अव्ययता का, शाश्वतता का, धर्म का, सुख का और एकान्तिक सिद्धि का आधार हूँ (वे मुझ में ही स्थापित हैं) ।

।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाय ।।

 


पंद्रहवाँ अध्याय
श्रीभगवान बोले
 ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
 छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥१५- १॥
अश्वत्थ नाम वृक्ष जिसे अव्यय बताया जाता है, जिसकी जडें ऊपर हैं और शाखायें नीचे हैं, वेद छन्द जिसके पत्ते हैं, जो उसे जानता है वह वेदों का ज्ञाता है ।
 अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
 अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥१५- २॥
उस वृक्ष की गुणों और विषयों द्वारा सिंचीं शाखाएं नीचे ऊपर हर ओर फैली हुईं हैं । उसकी जडें भी मनुष्य के कर्मों द्वारा मनुष्य को हर ओर से बाँधे नीचे उपर बढी हुईं हैं ।
 न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा ।
 अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥१५- ३॥
न इसका वास्तविक रुप दिखता है, न इस का अन्त और न ही इस का आदि और न ही इस का मूल स्थान (जहां यह स्थापित है) । इस अश्वथ नामक वृक्ष की बहुत धृढ शाखाओं को असंग रूपी धृढ शस्त्र से काट कर -।

 ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
 तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥१५- ४॥
उसके बाद परम पद की खोज करनी चाहिये, जिस मार्ग पर चले जाने के बाद मनुष्य फिर लौट कर नहीं आता । उसी आदि पुरुष की शरण में चले जाना चाहिये जिन से यह पुरातन वृक्ष रूपी संसार उत्पन्न हुआ है ।

 निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
 द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥१५- ५॥
मान और मोह से मुक्त, संग रूपी दोष पर जीत प्राप्त किये, नित्य अध्यात्म में लगे, कामनाओं को शान्त किये, सुख दुख जिसे कहा जाता है उस द्वन्द्व से मुक्त हुये, ऐसे मूर्खता हीन महात्मा जन उस परम अव्यय पद को प्राप्त करते हैं ।

 न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
 यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥१५- ६॥
न उस पद को सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्र और न ही अग्नि (वह पद इस सभी लक्षणों से परे है), जहां पहुँचने पर वे पुनः वापिस नहीं आते, वही मेरा परम धाम (स्थान) है ।
 ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
 मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥१५- ७॥
मेरा ही सनातन अंश इस जीव लोक में जीव रूप धारण कर, मन सहित छे इन्द्रियों (मन और पाँच अन्य इन्द्रियों) को, जो प्रकृति में स्थित हैं, आकर्षित करता है ।
 शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
 गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥१५- ८॥
जैसे वायु गन्ध को ग्रहण कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है, उसी प्रकार आत्मा इन इन्द्रियों को ग्रहण कर जिस भी शरीर को प्राप्त करता है वहां ले जाता है ।
 श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
 अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥१५- ९॥
शरीर में स्थित हो वह सुनने की शक्ति, आँखें, छूना, स्वाद, सूँघने की शक्ति तथा मन द्वारा इन सभी के विषयों का सेवन करता है ।
 उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
 विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥१५- १०॥
शरीर को त्यागते हुये, या उस में स्थित रहते हुये, गुणों को भोगते हुये, जो विमूढ (मूर्ख) हैं वे उसे (आत्मा) को नहीं देख पाते, परन्तु जिनके पास ज्ञान चक्षु (आँखें) हैं, अर्थात जो ज्ञान युक्त हैं, वे उसे देखते हैं ।
 यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
 यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥१५- ११॥
साधना युक्त योगी जन इसे स्वयं में अवस्थित देखते हैं (अर्थात अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं), परन्तु साधना करते हुये भी अकृत जन, जिनका चित अभी ज्ञान युक्त नहीं है, वे इसे नहीं देख पाते ।
 यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
 यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥१५- १२॥
जो तेज सूर्य से आकर इस संपूर्ण संसार को प्रकाशित कर देता है, और जो तेज चन्द्र औऱ अग्नि में है, उन सभी को तुम मेरा ही जानो ।
 गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
 पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥१५- १३॥
मैं ही सभी प्राणियों में प्रविष्ट होकर उन्हें धारण करता हूँ (उनका पालन पोषण करता हूँ) । मैं ही रसमय चन्द्र बनकर सभी औषधीयाँ (अनाज आदि) उत्पन्न करता हूँ ।
 अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
 प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥१५- १४॥
मैं ही प्राणियों की देह में स्थित हो प्राण और अपान वायुओं द्वारा चारों प्रकार के खानों को पचाता हूँ ।
 सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
 वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥१५- १५॥
मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ । मुझ से ही स्मृति, ज्ञान होते है । सभी वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ । मैं ही वेदों का सार हुँ और मैं ही वेदों का ज्ञाता हुँ ।
 द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
 क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१५- १६॥
इस संसार में दो प्रकार की पुरुष संज्ञायें हैं - क्षर और अक्षऱ (अर्थात जो नश्वर हैं और जो शाश्वत हैं) । इन दोनो प्रकारों में सभी जीव (देहधारी) क्षर हैं और उन देहों में विराजमान आत्मा को अक्षर कहा जाता है ।
 उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
 यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥१५- १७॥
परन्तु इन से अतिरिक्त एक अन्य उत्तम पुरुष और भी हैं जिन्हें परमात्मा कह कर पुकारा जाता है । वे विकार हीन अव्यय ईश्वर इन तीनो लोकों में प्रविष्ट होकर संपूर्ण संसार का भरण पोषण करते हैं ।
 यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
 अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥१५- १८॥
क्योंकि मैं क्षर (देह धारी जीव) से ऊपर हूँ तथा अक्षर (आत्मा) से भी उत्तम हूँ, इस लिये मुझे इस संसार में पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है ।
 यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
 स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥१५- १९॥
जो अन्धकार से परे मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह ही सब कुछ जानता है और संपूर्ण भावना से हर प्रकार मुझे भजता है, हे भारत ।
 इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
 एतद्‌बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥१५- २०॥
हे अनघ (पाप हीन अर्जुन), इस प्रकार मैंने तुम्हें इस गुह्य शास्त्र को सुनाया । इसे जान लेने पर मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है, हे भारत ।

 

 

।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ।।

सोल्हवाँ अध्याय
श्री भगवान बोले:
 अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
 दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥१६- १॥
अभय, सत्त्व संशुद्धि, ज्ञान और कर्म योग में स्थिरता, दान, इन्द्रियों का दमन, यज्ञ (जैसे प्राणायाम, जप यज्ञ, द्रव्य यज्ञ आदि), स्वध्याय, तपस्या, सरलता ।
 अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
 दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१६- २॥
अहिंसा (किसी भी प्राणी की हिंसा न करना), सत्य, क्रोध न करना, त्याग, मन में शान्ति होना (द्वेष आदि न रखना), सभी जीवों पर दया, संसारिक विषयों की तरफ उदासीनता, अन्त करण में कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा ।
 तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
 भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥१६- ३॥
तेज, क्षमा, धृति (स्थिरता), शौच (सफाई और शुद्धता), अद्रोह (द्रोह - वैर की भावना न रखना), मान की इच्छा न रखना - हे भारत, यह दैवी प्रकृति में उत्पन्न मनुष्य के लक्षण होते हैं ।
 दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
 अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥१६- ४॥
दम्भ (क्रोध अभिमान), दर्प (घमन्ड), क्रोध, कठोरता और अपने बल का दिखावा करना, तथा अज्ञान - यह असुर प्राकृति को प्राप्त मनुष्य के लक्षण होते हैं ।
 दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
 मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥१६- ५॥
दैवी प्रकृति विमोक्ष में सहायक बनती है, परन्तु आसुरी बुद्धि और ज्यादा बन्धन का कारण बनती है । तुम दुखी मत हो क्योंकि तुम दैवी संपदा को प्राप्त हो हे अर्जुन ।
 द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
 दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥१६- ६॥
इस संसार में दो प्रकार के जीव हैं - दैवी प्रकृति वाले और आसुरी प्रकृति वाले । दैवी स्वभाव के बारे में अब तक विस्तार से बताया है । अब आसुरी बुद्धि के विषय में सुनो हे पार्थ ।
 प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
 न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥१६- ७॥
असुर बुद्धि वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते (अर्थात किस चीज में प्रवृत्त होना चाहिये किस से निवृत्त होना चाहिये, उन्हें इसका आभास नहीं) । न उनमें शौच (शुद्धता) होता है, न ही सही आचरण, और न ही सत्य ।
 असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
 अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥१६- ८॥
उनके अनुसार यह संसार असत्य और प्रतिष्ठा हीन है (अर्थात इस संसार में कोई दिखाई देने वाले से बढकर सत्य नहीं है और न ही इसका कोई मूल स्थान है) , न ही उनके अनुसार इस संसार में कोई ईश्वर हैं, केवल परस्पर (स्त्रि पुरुष के) संयोग से ही यह संसार उत्पन्न हुआ है, केवल काम भाव ही इस संसार का कारण है ।
 एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
 प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥१६- ९॥
इस दृष्टि से इस संसार को देखते, ऐसे अल्प बुद्धि मनुष्य अपना नाश कर बैठते हैं और उग्र कर्मों में प्रवृत्त होकर इस संसार के अहित के लिये ही प्रयत्न करते हैं ।
 काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
 मोहाद्‌गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥१६- १०॥
दुर्लभ (असंभव) इच्छाओं का आश्रय लिये, दम्भ (घमन्ड) मान और अपने ही मद में चुर हुये, मोहवश (अज्ञान वश) असद आग्रहों को पकड कर अपवित्र (अशुचि) व्रतों में जुटते हैं ।
 चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।
 कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥१६- ११॥
मृत्यु तक समाप्त न होने वालीं अपार चिन्ताओं से घिरे, वे काम उपभोग को ही परम मानते हैं ।
 आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
 ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥१६- १२॥
सैंकडों आशाओं के जाल में बंधे, इच्छाओं और क्रोध में डूबे, वे अपनी इच्छाओं और भोगों के लिये अन्याय से कमाये धन के संचय में लगते हैं ।
 इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।
 इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥१६- १३॥
'इसे तो हमने आज प्राप्त कर लिया है, अन्य मनोरथ को भी हम प्राप्त कर लेंगें । इतना हमारे पास है, उस धन भी भविष्य में हमारा हो जायेगा' ।
 असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
 ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥१६- १४॥
'इस शत्रु तो हमारे द्वारा मर चुका है, दूसरों को भी हम मार डालेंगें । मैं ईश्वर हूँ (मालिक हूँ), मैं सुख सम्रद्धि का भोगी हूँ, सिद्ध हुँ, बलवान हुँ, सुखी हुँ ' ।
 आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।
 यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥१६- १५॥
'मेरे समान दूसरा कौन है । हम यज्ञ करेंगें, दान देंगें और मजा उठायेंगें ' - इस प्रकार वे अज्ञान से विमोहित होते हैं ।
 अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
 प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥१६- १६॥
उनका चित्त अनेकों दिशाओं में दौडता हुआ, अज्ञान के जाल से ढका रहता है । इच्छाओं और भोगों से आसक्त चित्त, वे अपवित्र नरक में गिरते जाते हैं ।
 आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः ।
 यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥१६- १७॥
अपने ही घमन्ड में डूबे, सवयं से सुध बुध खोये, धन और मान से चिपके, वे केवन ऊपर ऊपर से ही (नाम के लिये ही) दम्भ और घमन्ड में डूबे अविधि पूर्ण ढंग से यज्ञ करते हैं ।
 अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः ।
 मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥१६- १८॥
अहंकार, बल, घमन्ड, काम और क्रोध में डूबे वे सवयं की आत्मा और अन्य जीवों में विराजमान मुझ से द्वेष करते हैं और मुझ में दोष ढूँडते हैं ।
 तानहं द्विषतः क्रुरान्संसारेषु नराधमान् ।
 क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥१६- १९॥
उन द्वेष करने वाले क्रूर, इस संसार में सबसे नीच मनुष्यों को मैं पुनः पुनः असुरी योनियों में ही फेंकता हुँ ।
 आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
 मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥१६- २०॥
उन आसुरी योनियों को प्राप्त कर, जन्मों ही जन्मों तक वे मूर्ख मुझे प्राप्त न कर, हे कौन्तेय, फिर और नीच गतियों को (योनियों अथवा नरकों) को प्राप्त करते हैं ।
 त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
 कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥१६- २१॥
नरक के तीन द्वार हैं जो आत्मा का नाश करते हैं - काम (इच्छा), क्रोध, तथा लोभ । इसलिये, इन तीनों का ही त्याग कर देना चाहिये ।
 एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
 आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥१६- २२॥
इन तीनों अज्ञान के द्वारों से विमुक्त होकर मनुष्य अपने श्रेय (भले) के लिये आचरण करता है, और फिर परम गति को प्राप्त होता है ।
 यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
 न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥१६- २३॥
जो शास्त्र में बताये मार्ग को छोड कर, अपनी इच्छा अनुसार आचरण करता है, न वह सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न ही परम गति ।
 तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
 ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥१६- २४॥
इसलिये तुम्हारे लिये शास्त्र प्रमाण रूप है (शास्त्र को प्रमाण मानकर) जिससे तुम जान सकते हो की क्या करने योग्य है और क्या नहीं करने योग्य है । शास्त्र द्वारा मार्ग को जान कर हि तुम्हें उसके अनुसार कर्म करना चाहिये ।

 


।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ।।

 

सतारँहवा अध्याय
अर्जुन बोले:
 ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
 तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥१७- १॥
हे कृष्ण । जो लोग शास्त्र में बताई विधि की चिंता न कर, अपनी श्रद्धा अनुसार यजन (यज्ञ) करते हैं, उन की निष्ठा कैसी ही - सातविक, राजसिक अथवा तामसिक ।
श्री भगवान बोले:
 त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
 सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥१७- २॥
हे अर्जुन । देहधारियों की श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार तीन प्रकार की होती है - सात्त्विक, राजसिक और तामसिक । इस बारे में मुझ से सुनो ।
 सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
 श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥१७- ३॥
हे भारत, सब की श्रद्धा उन के अन्तःकरण के अनुसार ही होती है । जिस पुरुष की जैसी श्रद्धा होती है, वैसा ही वह स्वयं भी होता है ।
 यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
 प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥१७- ४॥
सातविक जन देवताओं को यजते हैं । राजसिक लोग यक्ष औऱ राक्षसों का अनुसरण करते हैं । तथा तामसिक लोग भूत प्रेतों की यजना करते हैं ।
 अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।
 दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥१७- ५॥
 कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
 मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥१७- ६॥
जो लोग शास्त्रों में नहीं बताये घोर तप करते हैं, ऐसे दम्भ, अहंकार, काम, राग औऱ बल से चूर अज्ञानी (बुद्धि हीन) मनुष्य इस शरीर में स्थित पाँचों तत्वों को कर्षित करते हैं, साथ में मुझे भी जो उन के शरीर में स्थित हुँ । ऐसे मनुष्यों को तुम आसुरी निश्चय (असुर वृ्त्ति) वाले जानो ।

 आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
 यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥१७- ७॥
प्राणियों को जो आहार प्रिय होता है वह भी तीन प्रकार का होता है । वैसे ही यज्ञ, तप तथा दानसभी - ये सभी भी तीन प्रकार के होते हैं । इन का भेद तुम मुझ से सुनो ।
 आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
 रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥१७- ८॥
जो आहार आयु बढाने वाला, बल तथा तेज में वृद्धि करने वाला, आरोग्य प्रदान करने वाला, सुख तथा प्रीति बढाने वाला, रसमयी, स्निग्ध (कोमल आदि), हृदय की स्थिरता बढाने वाला होता है - ऐसा आहार सातविक लोगों को प्रिय होता है ।
 कट्‌वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
 आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥१७- ९॥
कटु (कडवा), खट्टा, ज्यादा नमकीन, अति तीक्षण (तीखा), रूखा या कष्ट देने वाला - ऐसा आहार जो दुख, शोक और राग उत्पन्न करने वाला है वह राजसिक मनुष्यों को भाता है ।
 यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
 उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥१७- १०॥
जो आहार आधा पका हो, रस रहित हो गया हो, बासा, दुर्गन्धित, गन्दा या अपवित्र हो - वैसा तामसिक जनों को प्रिय लगता है ।
 अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
 यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥१७- ११॥
जो यज्ञ फल की कामना किये बिना, यज्ञ विधि अनुसार किया जाये, यज्ञ करना कर्तव्य है - मन में यह बिठा कर किया जाये वह सात्त्विक है ।
 अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
 इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥१७- १२॥
जो यज्ञ फल की कामना से, और दम्भ (दिखावे आदि) के लिये किया जाये, हे भारत श्रेष्ठ, ऐसे यज्ञ को तुम राजसिक जानो ।

 विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
 श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥१७- १३॥
जो यज्ञ विधि हीन ढंग से किया जाये, अन्न दान रहित हो, मन्त्रहीन हो, जिसमें कोई दक्षिणा न हो, श्रद्धा रहित हो - ऐसे यज्ञ को तामसिक यज्ञ कहा जाता है ।
 देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
 ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥१७- १४॥
देवताओं, ब्राह्मण, गुरु और बुद्धिमान ज्ञानी लोगों की पूजा, शौच (सफाई, पवित्रता), सरलता, ब्रह्मचार्य, अहिंसा - यह सब शरीर की तपस्या बताये जाते हैं ।
 अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
 स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥१७- १५॥
उद्वेग न पहुँचाने वाले सत्य वाक्य जो सुनने में प्रिय और हितकारी हों - ऐसे वाक्य बोलना, शास्त्रों का स्वध्याय तथा अभ्यास ये वाणी की तपस्या बताये जाते है ।
 मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
 भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥१७- १६॥
मन में शान्ति (से उत्पन्न हुई प्रसन्नता), सौम्यता, मौन, आत्म संयम, भावों (अन्तःकरण) की शुद्धि - ये सब मन की तपस्या बताये जाते हैं ।
 श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः ।
 अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥१७- १७॥
मनुष्य जिस श्रद्धा से तपस्य करता है, वह भी तीन प्रकार की है । सातविक तपस्या वह है जो फल की कामना से मुक्त होकर की जाती है ।
 सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
 क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥१७- १८॥
जो तपस्या सत्कार, मान तथा पूजे जाने के लिये की जाती है, या दिखावे अथवा पाखण्ड से की जाती है, ऐसी अस्थिर और अध्रुव (जिस का असतित्व स्थिर न हो) तपस्या को राजसिक कहा जाता है ।
 मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
 परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥१७- १९॥
वह तप जो मूर्ख आग्रह कारण (गलत धारणा के कारण) और स्वयं को पीडा पहुँचाने वाला अथवा दूसरों को कष्ट पहुँचाने हेतु किया जाये, ऐसा तप तामसिक कहा जाता है ।
 दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
 देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥१७- २०॥
जो दान यह मान कर दिया जाये की दान देना कर्तव्य है, न कि उपकार करने के लिये, और सही स्थान पर, सही समय पर उचित पात्र (जिसे दान देना चाहिये) को दिया जाये, उस दान को सात्विक दान कहा जाता है ।
 यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
 दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥१७- २१॥
जो दान उपकार हेतु, या पुनः फल की कामना से दिया जाये, या कष्ट भरे मन से दिया जाये उसे राजसिक कहा जाता है ।
 अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
 असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥१७- २२॥
परन्तु जो दान गलत स्थान पर या गलत समय पर, अनुचित पात्र को दिया जाये, या बिना सत्कार अथवा तिरस्कार के दिया जाये, उसे तामसिक दान कहा जायेगा ।
 ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
 ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥१७- २३॥
ॐ तत सत् - इस प्रकार ब्रह्म का तीन प्रकार का निर्देश कहा गया है । उसी से पुरातन काल में ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों का विधान हुआ है ।
 तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
 प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥१७- २४॥
इसलिये ब्रह्मवादि शास्त्रों में बताई विधि द्वारा सदा ॐ के उच्चारण द्वारा यज्ञ, दान और तप क्रियायें आरम्भ करते हैं ।
 तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
 दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥१७- २५॥
और मोक्ष की कामना करने वाले मनुष्य "तत" कह कर फल की इच्छा त्याग कर यज्ञ, तप औऱ दान क्रियायें करते हैं । (तत अर्थात वह)
 सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
 प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥१७- २६॥
हे पार्थ, सद-भाव (सत भाव) तथा साधु भाव में सत शब्द का प्रयोग किया जाता है । उसी प्रकार प्रशंसनीय कार्य में भी 'सत' शब्द प्रयुक्त होता है ।
 यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
 कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥१७- २७॥
यज्ञ, तप तथा दान में स्थिर होने को भी सत कहा जाता है । तथा भगवान के लिये ही कर्म करने को भी 'सत' कहा जाता है ।
 अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
 असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥१७- २८॥
जो भी यज्ञ, दान, तपस्या या कार्य श्रद्धा बिना किया जाये, हे पार्थ उसे 'असत्' कहा जाता है, न उस से यहाँ कोई लाभ होता है, और न ही आगे ।

 


।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाय ।।


अठारहँवा अध्याय
अर्जुन बोले:
 संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
 त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥१८- १॥
हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे केशिनिषूदन, मैं संन्यास और त्याग (कर्म योग) के सार को अलग अलग जानना चाहता हूँ ।
श्री भगवान बोले:
 काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।
 सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥१८- २॥
बुद्धिमान ज्ञानी जन कामनाओं से उत्पन्न हुये कर्मों के त्याग को सन्यास समझते हैं और सभी कर्मों के फलों के त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग (कर्म योग) कहते हैं ।
 त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
 यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥१८- ३॥
कुछ मुनि जन कहते हैं की सभी कर्म दोषमयी होने के कारण त्यागने योग्य हैं । दूसरे कहते हैं की यज्ञ, दान और तप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये ।
 निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
 त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः ॥१८- ४॥
कर्मों के त्याग के विषय में तुम मेरा निश्चय सुनो हे भरतसत्तम । हे पुरुषव्याघ्र, त्याग को तीन प्रकार का बताया गया है ।
 यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
 यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥१८- ५॥
यज्ञ, दान और तप कर्मों का त्याग करना उचित नहीं है - इन्हें करना चाहिये । यज्ञ, दान और तप मुनियों को पवित्र करते हैं ।
 एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
 कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥१८- ६॥
परन्तु ये कर्म (यज्ञ दान तप कर्म) भी संग त्याग कर तथा फल की इच्छा त्याग कर करने चाहिये, केवल अपना कर्तव्य जान कर । यह मेरा उत्तम निश्चय है ।
 नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
 मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥१८- ७॥
नियत कर्म का त्याग करना उचित नहीं हैं । मोह के कारण कर्तव्य कर्म का त्याग करना तामसिक कहा जाता है ।
 दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
 स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥१८- ८॥
शरीर को कष्ट देने के भय से कर्म को दुख मानते हुये उसे त्याग देने से मनुष्य को उस त्याग का फल प्राप्त नहीं होता । ऐसे त्याग को राजसिक त्याग कहा जाता है ।
 कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
 सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥१८- ९॥
हे अर्जुन, जिस नियत कार्य को कर्तव्य समझ कर किया जाये, संग को त्याग कर तथा फल को मन से त्याग कर, ऐसे त्याग को सातविक माना जाता है ।
 न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
 त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥१८- १०॥
जो मनुष्य न अकुशल कर्म से द्वेष करता है और न ही कुशल कर्म के प्रति खिचता है (अर्थात न लाभदायक फल की इच्छा करता है और न अलाभ के प्रति द्वेष करता है), ऐसा त्यागी मनुष्य सत्त्व में समाहित है, मेधावी (बुद्धिमान) है और संशय हीन है ।
 न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
 यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥१८- ११॥
देहधारीयों के लिये समस्त कर्मों का त्याग करना सम्भव नहीं है । परन्तु जो कर्मों के फलों का त्याग करता है, वही वास्तव में त्यागी है ।
 अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
 भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ॥१८- १२॥
कर्म का तीन प्रकार का फल हो सकता है - अनिष्ट (बुरा), इष्ट (अच्छा अथवा प्रिय) और मिला-जुला (दोनों) । जन्होंने कर्म के फलों का त्याग नहीं किया, उन्हें वे फल मृत्यु के पश्चात भी प्राप्त होते हैं, परन्तु उन्हें कभी नहीं जिन्होंने उन का त्याग कर दिया है ।
 पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
 सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥१८- १३॥
हे महाबाहो, सभी कर्मों के सिद्ध होने के पीछे पाँच कारण साँख्य सिद्धांत में बताये गये हैं । उनका तुम मुझ से ज्ञान लो ।
 अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
 विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥१८- १४॥
ये पाँच हैं - अधिष्ठान, कर्ता, विविध प्रकार के करण, विविध प्रकार की चेष्टायें तथा देव ।
 शरीरवाङ्‌मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
 न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥१८- १५॥
मनुष्य अपने शरीर, वाणी अथवा मन से जो भी कर्म का आरम्भ करता है, चाहे वह न्याय पूर्ण हो या उसके विपरीत, यह पाँच उस कर्म के हेतु (कारण) होते हैं ।
 तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
 पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥१८- १६॥
जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि द्वारा केवल अपने आत्म को ही कर्ता देखता है (कर्म करने का एक मात्र कारण), वह दुर्मति सत्य नहीं देखता ।
 यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
 हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥१८- १७॥
जिस में यह भाव नहीं है की 'मैंने किया है' और जिस की बुद्धि लिपि नहीं है (शुद्ध है), वह इस संसार में (किसी जीव को) मार कर भी नहीं मारता और न ही (कर्म फल में) बँधता है ।
 ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
 करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥१८- १८॥
ज्ञान, ज्ञेय (जाने जाने योग्य) औऱ परिज्ञाता - ये कर्म में प्रेरित करते हैं, और करण, कर्म और कर्ता - यह कर्म के संग्रह (निवास स्थान) हैं ।
 ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
 प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥१८- १९॥
ज्ञान (कोई जानकारी), कर्म और कर्ता भी साँख्य सिद्धांत में गुणों के अनुसार तीन प्रकार के बताये गये हैं । उन का भी तुम मुझसे यथावत श्रवण करो ।
 सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
 अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥१८- २०॥
जिस ज्ञान द्वारा मनुष्य सभी जीवों में एक ही अव्यय भाव (परमेश्वर) को देखता है, एक ही अविभक्त (जो बाँटा हुआ नहीं है) को विभिन्न विभिन्न रूपों में देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्विक जानो ।
 पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
 वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥१८- २१॥
जिस ज्ञान द्वारा मनुष्य सभी जीवों को अलग अलग विभिन्न प्रकार का देखता है, उस ज्ञान दृष्टि को तुम राजसिक जानो ।
 यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
 अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥१८- २२॥
और जिस ज्ञान से मनुष्य एक ही व्यर्थ कार्य से जुड जाता है मानो वही सब कुछ हो, वह तत्वहीन, अल्प (छोटे) ज्ञान को तुम तामसिक जानो ।
 नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
 अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥१८- २३॥
जो कर्म नियत है (कर्तव्य है), उसे संग रहित और बिना राग द्वेष के किया गया है, जिसे फल की इच्छा नहीं रख कर किया गया है, उस कर्म को सात्विक कहा जाता है ।
 यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः ।
 क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥१८- २४॥
जो कर्म बहुत परिश्रम से फल की कामना करते हुये किया गया है, अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया गया है, वह कर्म राजसिक है ।
 अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
 मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥१८- २५॥
जो कर्म सामर्थय का, परिणाम का, हानि और हिंसा का ध्यान न करते हुये मोह द्वारा आरम्भ किया गया है, जो कर्म तामसिक कहलाता है ।
 मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
 सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८- २६॥
जो कर्ता संग मुक्त है, 'अहम' वादी नहीं है, धृति (स्थिरता) और उत्साह पूर्ण है, तथा कार्य के सिद्ध और न सिद्ध होने में एक सा है (अर्थात फल से जिसे कोई मतलब नहीं), ऐसे कर्ता को सात्विक कहा जाता है ।
 रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः ।
 हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥१८- २७॥
जो कर्ता रागी होता है, अपने किये काम के फल के प्रति इच्छा और लोभ रखता है, हिंसात्मक और अपवित्र वृत्ति वाला होता है, तथा (कर्म के सिद्ध होने या न होने पर) प्रसन्नता और शोक ग्रस्त होता है, उसे राजसिक कहा जाता है ।
 अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः ।
 विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥१८- २८॥
जो कर्ता अयुक्त (कर्म भावना का न होना, सही चेतना न होना) हो, स्तब्ध हो, आलसी हो, विषादी तथा दीर्घ सूत्री हो (लम्बा खीचने वाला हो) (जिसकी कर्म न करने में ही रुची हो तथा आलस से भरा हो) - ऐसे कर्ता को तामसिक कहते हैं ।
 बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु ।
 प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ॥१८- २९॥
हे धनंजय, अब तुम अशेष रूप से अलग अलग बुद्धि तथा धृति (स्थिरता) के भी तीनों गुणों के अनुसार जो भेद हैं, वे सुनो ।
 प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
 बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥१८- ३०॥
प्रवृत्ति (किसी भी चीज़ या कर्म में लगना) और निवृत्ति (किसी भी चीज़ या कर्म से मानसिक छुटकारा पाना) क्या है (तथा किस चीज में प्रवृत्त होना चाहिये और किस से निवृत्त होना चाहिये), कार्य क्या है, और अकार्य (कार्य न करना) क्या है, भय क्या है और अभय क्या है, किस से बन्धन उत्पन्न होता है, और किस से मोक्ष उत्पन्न होता है - जो बुद्धि इन सब को जानती है (इनका भेद देखती है), हे पार्थ वह बुद्धि सात्त्विकहै ।
 यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
 अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥१८- ३१॥
हे पार्थ, जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य अपने धर्म (कर्तव्य) और अधर्म को, तथा कार्य (जो करना चाहिये) और अकार्य को सार से नहीं जानता, वह बुद्धि राजसिक है ।
 अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
 सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥१८- ३२॥
हे पार्थ, जिस बुद्धि से मनुष्य अधर्म को ही धर्म मानता है, अंधकार से ठकी जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य सभी हितकारी गुणों अथवा कर्तव्यों को विपरीत ही देखता है, वह बुद्धि तामसिक है ।
 धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
 योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥१८- ३३॥
हे पार्थ, जिस धृति (मानसिक स्थिरता) द्वारा मनुष्य अपने प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को नियमित करता है, तथा उन्हें नित्य योग साधना में प्रविष्ट करता है, ऐसी धृति सातविक है ।
 यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन ।
 प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥१८- ३४॥
हे अर्जुन, जब मनुष्य फलों की इच्छा रखते हुये, अपने (स्वार्थ हेतु) धर्म, इच्छा और धन की प्राप्ति के लिये कर्मों तथा चेष्टाओं में प्रवृत्त रहता है, वह धर्ति राजसिक है हे पार्थ ।
 यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
 न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥१८- ३५॥
हे पार्थ, जिस दुर्बुद्धि भरी धृति के कारण मनुष्य स्वप्न (निद्रा), भय, शोक, विषाद, मद (मूर्खता) को नहीं त्यागता, वह तामसिक है ।
 सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
 अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥१८- ३६॥
 यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
 तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥१८- ३७॥
उसी प्रकार, हे भरतर्षभ, तुम मुझ से तीन प्रकार के सुख के विषय में भी सुनो । वह सुख जो (योग) अभ्यास द्वारा प्राप्त होता है, तथा जिस से मनुष्य को दुखों का अन्त प्राप्त होता है, जो शुरु में तो विष के समान प्रतीत होता है (प्रिय नहीं लगता), परन्तु उस का परिणाम अमृत समान होता है (प्रिय लगता है), उस स्वयं की बुद्धि की प्रसन्नता (सुख) से प्राप्त होने वाले सुख को सात्विक कहा जाता है ।

 विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
 परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥१८- ३८॥
जो सुख भावना विषयों की इन्द्रियों के संयोग से प्राप्त होती है (जैसी स्वादिष्ट भोजन आदि), जो शुरु में तो अमृत समान प्रतीत होता है, परन्तु उसका परिणाम विष जैसा होता है, उस सुख को तुम राजसिक जानो ।
 यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
 निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥१८- ३९॥
जो सुख शुरु में तथा अन्त में भी आत्मा को मोहित करता है, निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होने वाले ऐसी सुख भावना को तामसिक कहा जाता है ।
 न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
 सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥१८- ४०॥
ऐसा कोई भी जीव नहीं है, न इस पृथवि पर और न ही दिव्य लोक के देवताओं में, जो प्रकृति से उत्पन्न हुये इन तीन गुणों से मुक्त हो ।
 ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
 कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥१८- ४१॥
हे परन्तप, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के कर्म उन के स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार ही विभक्त किये गये हैं ।
 शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
 ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥१८- ४२॥
मानसिक शान्ति, संयम, तपस्या, पवित्रता, शान्ति, सरलता, ज्ञान तथा अनुभव - यह सब ब्राह्मण के स्वभाव से ही उत्पन्न कर्म हैं ।
 शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
 दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥१८- ४३॥
शौर्य, तेज, स्थिरता, दक्षता, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान, स्वामी भाव - यह सब एक क्षत्रीय के स्वभाविक कर्म हैं ।
 कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
 परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥१८- ४४॥
कृषि, गौ रक्षा, वाणिज्य - यह वैश्य के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं । परिचर्य - यह शूद्र के स्वाभिक कर्म हैं ।
 स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
 स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥१८- ४५॥
अपने अपने (स्वभाव से उत्पन्न) कर्मों का पालन करते हुये मनुष्य सिद्धि (सफलता) को प्राप्त करता है । मनुष्य वह सिद्धि लाभ कैसे प्राप्त करता है - वह तुम सुनो ।
 यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
 स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥१८- ४६॥
जिन (परमात्मा) से यह सभी जीव प्रवृत्त हुये हैं (उत्पन्न हुये हैं), जिन से यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, उन परमात्मा की अपने कर्म करने द्वारा अर्चना कर, मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ।
 श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
 स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥१८- ४७॥
दूसरे का गुण संपन्न धर्म के बराबर अपना धर्म (कर्तव्य, कर्म) ही श्रेय है (बेहतर है), भले ही उस में कोई गुण न हों, क्योंकि अपने स्वभाव द्वारा नियत कर्म करते हुये मनुष्य पाप प्राप्त नहीं करता ।
 सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
 सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥१८- ४८॥
हे कौन्तेय, अपने जन्म से उत्पन्न (स्वभाविक) कर्म को उसमें दोष होने पर भी नहीं त्यागना चाहिये, क्योंकि सभी आरम्भों में (कर्मों में) ही कोई न कोई दोष होता है, जैसे अग्नि धूँयें से ठकी होती है ।
 असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
 नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥१८- ४९॥
हर जगह असक्त (संग रहित) बुद्धि मनुष्य जिसने अपने आप पर जीत पा ली है, हलचल (स्पृह) मुक्त है, ऐसा मनुष्य सन्यास (मन से इच्छा कर्मों के त्याग) द्वारा नैष्कर्म सिद्धि को प्राप्त होता है ।
 सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
 समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥१८- ५०॥
इस प्रकार सिद्धि प्राप्त किया मनुष्य किस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त करता है, तथा उसके ज्ञान की क्या निष्ठा होती है वह तुम मुझ से संक्षेप में सुनो ।
 बुद्ध्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
 शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥१८- ५१॥
 विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः ।
 ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ॥१८- ५२॥
 अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
 विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥१८- ५३॥
पवित्र बुद्धि से युक्त, अपने आत्म को स्थिरता से नियमित कर, शब्द आदि विषयों को त्याग कर, तथा राग-द्वेष आदि को छोड कर, एकेले स्थान पर निवास करते हुये, नियमित आहार करते हुये, अपने शरीर, वाणी और मन को योग में प्रविष्ट करते हुये वह योगी नित्य ध्यान योग में लगा, वैराग्य पर आश्रित रहता है । तथा अहंकार, बल, घमन्ड, इच्छा, क्रोध और घर संपत्ति आदि को मन से त्याग कर, 'मैं' भाव से मुक्त हो शान्ति को प्राप्त करता है और ब्रह्म प्राप्ति का पात्र बनता है ।

 ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
 समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥१८- ५४॥
ब्रह्म के साथ एक हो जाने पर, वह प्रसन्न आत्मा, न शोक करता है न इच्छा करता है । सभी जीवों के प्रति एक सा हो कर, वह मेरी परम भक्ति प्राप्त करता है ।
 भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
 ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥१८- ५५॥
उस भक्ति द्वारा वह मुझे पूर्णत्या, जितना मैं हुँ, सार तक मुझे जान लेता है । और मुझे सार तक जान लेने पर मुझ में ही प्रवेश कर जाता है (मुझ में एक हो जाता है) ।
 सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
 मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥१८- ५६॥
सभी कर्मों के सदा मेरा ही आश्रय लेकर करो । मेरी कृपा से तुम उस अव्यय शाश्वत पद को प्राप्त कर लोगे ।
 चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः ।
 बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥१८- ५७॥
सभी कर्मों को अपने चित्त से मुझ पर त्याग दो (उन के फलों को मुझ पर छोड दो, और कर्मों को मेरे हवाले करते केवल मेरे लिये करो) । सदी इसी बुद्धि योग का आश्रय लेते हुये, सदा मेरे ही चित्त वाले बनो ।
 मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
 अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ॥१८- ५८॥
मुझ में ही चित्त रख कर, तुम मेरी कृसा से सभी कठिनाईयों को पार कर जाओगे । परन्तु यदि तुम अहंकार वश मेरी आज्ञा नहीं सुनोगे तो विनाश को प्राप्त होगे ।
 यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
 मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥१८- ५९॥
यदि तुम अहंकार वश (अहंकार का आश्रय लिये) यह मानते हो कि तुम युद्ध नहीं करोगे, तो तुम्हारा यह व्यवसाय (धारणा) मिथ्या है, क्योंकि तुम्हारी प्रकृति तुम्हें (युद्ध में) नियोजित कर देगी ।
 स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
 कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥१८- ६०॥
हे कौन्तेय, सभी अपने स्वभाव के कारण अपने कर्मों से बंधे हुये हैं । जिसे तुम मोह के कारण नहीं करना चाहते, उसे तुम विवश होकर फिर भी करोगे ।
 ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
 भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥१८- ६१॥
हे अर्जुन, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं और अपनी माया द्वारा सभी जीवों को भ्रमित कर रहे हैं, मानो वे (प्राणी) किसी यन्त्र पर बैठे हों ।
 तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
 तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥१८- ६२॥
उन्हीं की शरण में तुम संपूर्ण भावना से जाओ, हे भारत । उन्हीं की कृपा से तुम्हें परम शान्ति और शाश्वत स्थान प्राप्त होगा ।
 इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‌गुह्यतरं मया ।
 विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥१८- ६३॥
इस प्रकार मैंने तुम्हें गुह्य से भी गूह्य इस ज्ञान का वर्णन किया । इस पर पूर्णत्या विचार करके जैसी तु्म्हारी इच्छा हो करो ।
 सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।
 इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥१८- ६४॥
तुम एक बार फिर से सबसे ज्यादा रहस्यमयी मेरे परम वचन सुनो । तुम मुझे बहुत प्रिय हो, इसलिये मैं तुम्हारे हित के लिये तुम्हें बताता हूँ ।
 मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
 मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥१८- ६५॥
मेरे मन वाले बनो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करने वाले बनो, मुझे नमस्कार करो । इस प्रकार तुम मुझे ही प्राप्त करोगे, मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मुझे प्रिय हो ।
 सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
 अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥१८- ६६॥
सभी धर्मों को त्याग कर (हर आश्रय त्याग कर), केवल मेरी शरण में बैठ जाओ । मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दुँगा, इसलिये शोक मत करो ।
 इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
 न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥१८- ६७॥
इसे कभी भी उसे मत बताना जो तपस्या न करता हो, जो मेरा भक्त ना हो, और न उसे जिसमें सेवा भाव न हो, और न ही उसे जो मुझ में दोष निकालता हो ।
 य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
 भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥१८- ६८॥
जो इस परम रहस्य को मेरे भक्तों को बताता है, वह मेरी परम भक्ति करने के कारण मुझे ही प्राप्त करता है, इस में कोई संशय नहीं ।
 न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
 भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥१८- ६९॥
न ही मनुष्यों में उस से बढकर कोई मुझे प्रिय कर्म करने वाला है, और न ही इस पृथ्वि पर उस से बढकर कोई और मुझे प्रिय होगा ।
 अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
 ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥१८- ७०॥
जो हम दोनों के इस धर्म संवाद का अध्ययन करेगा, वह ज्ञान यज्ञ द्वारा मेरा पूजन करेगा, यह मेरा मत है ।

 श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः ।
 सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥१८- ७१॥
जो मनुष्य इसको श्रद्धा और दोष-दृष्टि रहित मन से सुनेगा, वह भी (अशुभ से) मुक्त हो पुण्य कर्म करने वालों के शुभ लोकों में स्थान ग्रहण करेगा ।
 कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
 कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय ॥१८- ७२॥
हे पार्थ, क्या यह तुमने एकाग्र मन से सुना है । हे धनंजय, क्या तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न सम्मोह नष्ट हुआ है ।
अर्जुन बोले:
 नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
 स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥१८- ७३॥
हे अच्युत, आप की कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ, और मुझे वापिस स्मृति प्राप्त हुई है । मेरे सन्देह दूर हो गये हैं, और मैं आप के वचनों पर स्थित हुआ आप की आज्ञा का पालन करूंगा ।
संजय बोले:
 इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
 संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥१८- ७४॥
इस प्रकार मैंने भगवान वासुदेव और महात्मा पार्थ के इस अद्भुत रोम हर्षित करने वाले संवाद को सुना ।
 व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
 योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥१८- ७५॥
भगवान व्यास जी के कृपा से मैंने इस परम गूह्य (रहस्य) योग को साक्षात योगेश्वर श्री कृष्ण के वचनों द्वारा सुना ।
 राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
 केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥१८- ७६॥
हे राजन, भगवान केशव और अर्जुन के इस अद्भुत पुण्य संवाद को बार बार याद कर मेरा हृदय पुनः पुनः हर्षित हो रहा है ।
 तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
 विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥१८- ७७॥
और पुनः पुनः भगवान हरि के उस अति अद्भुत रूप को याद कर, मुझे महान विस्मय हो रहा है हे राजन, और मेरा मन पुनः पुनः हर्ष से भरे जा रहा है ।
 यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
 तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥१८- ७८॥
जहां योगेश्वर कृष्ण हैं, जहां धनुर्धर पार्थ हैं, वहीं पर श्री (लक्ष्मी, ऐश्वर्य, पवित्रता), विजय, विभूति और स्थिर नीति हैं - यही मेरा मत है ।

।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाय ।। ।। इस प्रकार भगवान वासुदेव द्वारा दिये ज्ञान - श्री भगवद गीत (श्रीमद गीता) का हिन्दी अनुवाद करने का मैंने प्रयत्न किया है । भगवान हम सब को बुद्धि दें की हम उन के इस अचिंतनीय अलौकिक ज्ञान को अपने जीवन में उतार पायें । जैसे भगवान हरि के चरण कमलों से निकल कर गँगा सारे संसार को पवित्र करती है, उसी प्रकार भगवान हरि के यह वचन हमारे जीवन को पवित्र करते हैं । श्रीमद भगवद गीता मनुष्य जीवन की गाथा है । जीवन क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या है, जीव का धर्म क्या है, क्या प्राप्तव्य है, कैसे संकटों से मनुष्य छूटता है - यह सब भगवान हरि के इन वाक्यों द्वारा सपष्ट होता है । इस संसार के परम गुरु, भगवान जनार्दन को प्रणाम है । ॐ नमः भगवते वासुदेवाय ।।

 


।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ।।

 

सतारँहवा अध्याय
अर्जुन बोले:
 ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
 तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥१७- १॥
हे कृष्ण । जो लोग शास्त्र में बताई विधि की चिंता न कर, अपनी श्रद्धा अनुसार यजन (यज्ञ) करते हैं, उन की निष्ठा कैसी ही - सातविक, राजसिक अथवा तामसिक ।
श्री भगवान बोले:
 त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
 सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥१७- २॥
हे अर्जुन । देहधारियों की श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार तीन प्रकार की होती है - सात्त्विक, राजसिक और तामसिक । इस बारे में मुझ से सुनो ।
 सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
 श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥१७- ३॥
हे भारत, सब की श्रद्धा उन के अन्तःकरण के अनुसार ही होती है । जिस पुरुष की जैसी श्रद्धा होती है, वैसा ही वह स्वयं भी होता है ।
 यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
 प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥१७- ४॥
सातविक जन देवताओं को यजते हैं । राजसिक लोग यक्ष औऱ राक्षसों का अनुसरण करते हैं । तथा तामसिक लोग भूत प्रेतों की यजना करते हैं ।
 अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।
 दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥१७- ५॥
 कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
 मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥१७- ६॥
जो लोग शास्त्रों में नहीं बताये घोर तप करते हैं, ऐसे दम्भ, अहंकार, काम, राग औऱ बल से चूर अज्ञानी (बुद्धि हीन) मनुष्य इस शरीर में स्थित पाँचों तत्वों को कर्षित करते हैं, साथ में मुझे भी जो उन के शरीर में स्थित हुँ । ऐसे मनुष्यों को तुम आसुरी निश्चय (असुर वृ्त्ति) वाले जानो ।

 आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
 यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥१७- ७॥
प्राणियों को जो आहार प्रिय होता है वह भी तीन प्रकार का होता है । वैसे ही यज्ञ, तप तथा दानसभी - ये सभी भी तीन प्रकार के होते हैं । इन का भेद तुम मुझ से सुनो ।
 आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
 रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥१७- ८॥
जो आहार आयु बढाने वाला, बल तथा तेज में वृद्धि करने वाला, आरोग्य प्रदान करने वाला, सुख तथा प्रीति बढाने वाला, रसमयी, स्निग्ध (कोमल आदि), हृदय की स्थिरता बढाने वाला होता है - ऐसा आहार सातविक लोगों को प्रिय होता है ।
 कट्‌वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
 आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥१७- ९॥
कटु (कडवा), खट्टा, ज्यादा नमकीन, अति तीक्षण (तीखा), रूखा या कष्ट देने वाला - ऐसा आहार जो दुख, शोक और राग उत्पन्न करने वाला है वह राजसिक मनुष्यों को भाता है ।
 यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
 उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥१७- १०॥
जो आहार आधा पका हो, रस रहित हो गया हो, बासा, दुर्गन्धित, गन्दा या अपवित्र हो - वैसा तामसिक जनों को प्रिय लगता है ।
 अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
 यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥१७- ११॥
जो यज्ञ फल की कामना किये बिना, यज्ञ विधि अनुसार किया जाये, यज्ञ करना कर्तव्य है - मन में यह बिठा कर किया जाये वह सात्त्विक है ।
 अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
 इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥१७- १२॥
जो यज्ञ फल की कामना से, और दम्भ (दिखावे आदि) के लिये किया जाये, हे भारत श्रेष्ठ, ऐसे यज्ञ को तुम राजसिक जानो ।

 विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
 श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥१७- १३॥
जो यज्ञ विधि हीन ढंग से किया जाये, अन्न दान रहित हो, मन्त्रहीन हो, जिसमें कोई दक्षिणा न हो, श्रद्धा रहित हो - ऐसे यज्ञ को तामसिक यज्ञ कहा जाता है ।
 देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
 ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥१७- १४॥
देवताओं, ब्राह्मण, गुरु और बुद्धिमान ज्ञानी लोगों की पूजा, शौच (सफाई, पवित्रता), सरलता, ब्रह्मचार्य, अहिंसा - यह सब शरीर की तपस्या बताये जाते हैं ।
 अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
 स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥१७- १५॥
उद्वेग न पहुँचाने वाले सत्य वाक्य जो सुनने में प्रिय और हितकारी हों - ऐसे वाक्य बोलना, शास्त्रों का स्वध्याय तथा अभ्यास ये वाणी की तपस्या बताये जाते है ।
 मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
 भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥१७- १६॥
मन में शान्ति (से उत्पन्न हुई प्रसन्नता), सौम्यता, मौन, आत्म संयम, भावों (अन्तःकरण) की शुद्धि - ये सब मन की तपस्या बताये जाते हैं ।
 श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः ।
 अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥१७- १७॥
मनुष्य जिस श्रद्धा से तपस्य करता है, वह भी तीन प्रकार की है । सातविक तपस्या वह है जो फल की कामना से मुक्त होकर की जाती है ।
 सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
 क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥१७- १८॥
जो तपस्या सत्कार, मान तथा पूजे जाने के लिये की जाती है, या दिखावे अथवा पाखण्ड से की जाती है, ऐसी अस्थिर और अध्रुव (जिस का असतित्व स्थिर न हो) तपस्या को राजसिक कहा जाता है ।
 मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
 परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥१७- १९॥
वह तप जो मूर्ख आग्रह कारण (गलत धारणा के कारण) और स्वयं को पीडा पहुँचाने वाला अथवा दूसरों को कष्ट पहुँचाने हेतु किया जाये, ऐसा तप तामसिक कहा जाता है ।
 दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
 देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥१७- २०॥
जो दान यह मान कर दिया जाये की दान देना कर्तव्य है, न कि उपकार करने के लिये, और सही स्थान पर, सही समय पर उचित पात्र (जिसे दान देना चाहिये) को दिया जाये, उस दान को सात्विक दान कहा जाता है ।
 यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
 दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥१७- २१॥
जो दान उपकार हेतु, या पुनः फल की कामना से दिया जाये, या कष्ट भरे मन से दिया जाये उसे राजसिक कहा जाता है ।
 अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
 असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥१७- २२॥
परन्तु जो दान गलत स्थान पर या गलत समय पर, अनुचित पात्र को दिया जाये, या बिना सत्कार अथवा तिरस्कार के दिया जाये, उसे तामसिक दान कहा जायेगा ।
 ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
 ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥१७- २३॥
ॐ तत सत् - इस प्रकार ब्रह्म का तीन प्रकार का निर्देश कहा गया है । उसी से पुरातन काल में ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों का विधान हुआ है ।
 तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
 प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥१७- २४॥
इसलिये ब्रह्मवादि शास्त्रों में बताई विधि द्वारा सदा ॐ के उच्चारण द्वारा यज्ञ, दान और तप क्रियायें आरम्भ करते हैं ।
 तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
 दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥१७- २५॥
और मोक्ष की कामना करने वाले मनुष्य "तत" कह कर फल की इच्छा त्याग कर यज्ञ, तप औऱ दान क्रियायें करते हैं । (तत अर्थात वह)
 सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
 प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥१७- २६॥
हे पार्थ, सद-भाव (सत भाव) तथा साधु भाव में सत शब्द का प्रयोग किया जाता है । उसी प्रकार प्रशंसनीय कार्य में भी 'सत' शब्द प्रयुक्त होता है ।
 यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
 कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥१७- २७॥
यज्ञ, तप तथा दान में स्थिर होने को भी सत कहा जाता है । तथा भगवान के लिये ही कर्म करने को भी 'सत' कहा जाता है ।
 अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
 असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥१७- २८॥
जो भी यज्ञ, दान, तपस्या या कार्य श्रद्धा बिना किया जाये, हे पार्थ उसे 'असत्' कहा जाता है, न उस से यहाँ कोई लाभ होता है, और न ही आगे ।